Paired Row System: फूलगोभी की खेती में युग्मित पंक्ति प्रणाली का किया इस्तेमाल, मिली अच्छी उपज और बेहतर मुनाफ़ा
फूलगोभी की खेती पंक्तियों में की जाए और पंक्तियों के बीच उचित दूरी का ध्यान रखा जाए, तो अच्छी फसल और ज़्यादा आमदनी की गारंटी है।
फूलगोभी की खेती पंक्तियों में की जाए और पंक्तियों के बीच उचित दूरी का ध्यान रखा जाए, तो अच्छी फसल और ज़्यादा आमदनी की गारंटी है।
कपास की फसल में आमतौर पर गर्मी और बरसात के समय जो उमस वाला मौसम आता है उस समय कीट व बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में कीटनाशकों का छिड़काव सही तरीके से करना चाहिए। गुलाबी सूंडी कीड़े की वजह से भी फसल को काफी नुकसान होता है, इसलिए इसकी रोकथाम के लिए कदम उठाना ज़रूरी है।
मोनिका पांडुरंग ने कृषि विज्ञान केंद्र, जालना से बीज उत्पादन, होली के प्राकृतिक रंग तैयार करने, दालों की प्रोसेसिंग, फलों और सब्जियों के मूल्यवर्धन पर ट्रेनिंग ली। वह हर साल 100 क्विंटल से भी ज़्यादा प्रमाणित और आधार बीज का उत्पादन कर रही हैं।
जीवाणु और फफूंद के कारण होने वाले रोग और कीटों से हर साल किसानों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। अगर समय रहते रोग और कीटों की सही पहचान कर ली जाए, तो ज़रूरी कदम उठाकर किसान आर्थिक हानि से बच सकते हैं। ऐसा करने में पोल्टस्कोप माइक्रोस्कोप (Foldscope Paper Microscope) उनकी बहुत मदद कर सकता है।
छोटे व सीमांत किसानों के लिए एकीकृत कृषि प्रणाली बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकती है, क्योंकि इससे न सिर्फ़ उनकी आमदनी बढ़ेगी, बल्कि आर्थिक स्थिरता भी मिलेगी।
आमतौर पर किसी भी फसल की अच्छी खेती के लिए अच्छी बरसात ज़रूरी है, मगर बाजरे की खेती कम बरसात वाली जगह में ज़्यादा फलती-फूलती है। बाजरे की फसल गर्म इलाकों और कम पानी वाली जगहों पर अच्छी तरह होता है।
ज़्यादा ज़मीन और सारी सुविधाओं के बावजूद भी किसानों को यदि खेती से पर्याप्त आमदनी नहीं हो पाती है, तो इसकी वजह है उन्नत तकनीक की कमी। उन्नत कृषि तकनीक के इस्तेमाल से ही राजस्थान के एक किसान ने सफलता की ऐसी मिसाल पेश की है, कि अब उनकी गिनती अपने इलाके के प्रगतिशील किसानों में होती है।
मिज़ोरम के आदिवासी इलाकों में खेती की पारंपरिक तकनीक यानी झूम खेती लोकप्रिय है, मगर इससे न सिर्फ़ मिट्टी की उर्वरता कम होती है, बल्कि वनस्पतियों को जलाने से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। ऐसे में एकीकृत कृषि प्रणाली (IFS) मिज़ोरम के किसानों के लिए उम्मीद की नई किरण बनकर उभरी है।
इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड जैसे पादप वृद्धि हार्मोन्स के इस्तेमाल से सिंचाई और अन्य पोषक तत्वों की ज़रूरत भी कम पड़ती है। हालाँकि, यदि सिंचाई और पोषक तत्व भरपूर मात्रा में मिले तो पैदावार अवश्य ज़्यादा होता है, लेकिन इससे खेती की लागत बेहद बढ़ जाती है। गन्ने की पैदावार कम होने का दूसरा प्रमुख कारण कल्लों का अलग-अलग समय पर बनना भी है। यदि कल्लों का विकास एक साथ हो तो वो परिपक्व भी एक साथ होंगे तथा उनका वजन भी ज़्यादा होगा, उसमें रस की मात्रा और मिठास भी अधिर होगी। लिहाज़ा, गन्ने की खेती में यदि कल्ले बेमौत मरने से बचा जाएँ तभी किसान को फ़ायदा होगा।
फलों में अनार काफी महंगा मिलता है और सेहत के लिए बहुत अच्छा माना जाता है। यह खून बढ़ाने में मददगार है। कर्नाटक के तुमकुरू जिले में अनार की अच्छी पैदावार होती है, मगर पिछले कुछ सालों से यहां के किसान अनार में लगने वाले बैक्टीरियल ब्लाइट रोग से परेशान है जिससे फसल की बहुत हानि होती है। मगर कृषि विज्ञान केंद्र ने अब इसका भी हल निकाल लिया।
फ़सलों पर पाला पड़ना बेहद घातक होता है। पाले से फ़सल को बचाने के लिए किसी भी तरह से वायुमंडल के तापमान को ज़ीरो डिग्री सेल्सियस से ऊपर बनाये रखना ज़रूरी होता है। इसके लिए अनेक परम्परागत, आधुनिक और रासायनिक तरक़ीबों को अपनाना चाहिए। पाला से होने वाले नुकसान के मुक़ाबले ये तरीके इस्तेमाल में आसान और बहुत कम खर्चीले हैं।
खरपतवार नियंत्रण किसानों की एक बड़ी समस्या है। ज़्यादातर किसान इसके लिए मल्चिंग तकनीक का सहारा लेते हैं जिसे पलवार कहते हैं, मगर प्लास्टिक शीट से मल्चिंग करना मिट्टी और फसल की सेहत के लिए ठीक नहीं होता, ऐसे में जैविक पलवार, प्लास्टिक मल्चिंग का बेहतरीन विकल्प है।
आज के समय में देश का युवा खेती-किसानी में अच्छे व्यवसाय के विकल्प तलाश रहा है, जो कि इस क्षेत्र के लिए बहुत अच्छी बात है। एक ऐसी ही महिला हैं कर्नाटक की रहने वाली आशमा। जानिए कैसे उन्होंने अपने क्षेत्र में सुपारी की खेती (areca nut farming) के साथ Integrated Farming मॉडल को अपनाते हुए तरक्की हासिल की।
ट्राइकोडर्मा ऐसे सूक्ष्मजीव आमतौर पर कार्बनिक अवशेषों पर स्वछन्द रूप से भी पाये जाते हैं। ये ऐसे मित्र फफूँद हैं जो जैविक उर्वरक और रोगनाशक की दोहरी भूमिका निभाते हुए पौधों के विकास तथा पैदावार को बढ़ाने में मददगार बनते हैं। ट्राइकोडर्मा की मौजूदगी से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों का अपघटन तेज़ होता है तथा रासायनिक कीटनाशकों से प्रदूषित तत्वों का दुष्प्रभाव ख़त्म करने में मदद मिलती है।
एकीकृत कृषि प्रणाली अपनाने से पहले उन्हें सालाना सिर्फ़ करीबन 24,680 रुपये का ही लाभ होता था, लेकिन अब न सिर्फ़ उन्होंने आमदनी में बढ़ोतरी की है, बल्कि अपने क्षेत्र के कई युवकों के लिए प्रेरणा बन गए हैं।
मल्टी लेयर फार्मिंग से सभी मौसम में अनेक फ़सलों की पैदावार, आमदनी और रोज़गार सुनिश्चित होता है। ये सीमित ज़मीन पर भी अधिकतम उत्पादकता देती है। इससे उपज को होने वाले नुकसान का जोखिम कम होता है। ये सीमित खेत और संसाधनों का अधिकतम दक्षता से दोहन करके ज़्यादा पैदावार पाने की बेहतरीन तकनीक है, इसीलिए इसमें छोटे किसानों की ज़िन्दगी का कायाकल्प करने की क्षमता है।
मिट्टी की जाँच करके उसमें मौजूद पोषक तत्वों का पता लगाया जाता है। जो किसान मिट्टी की जाँच करवाकर मिट्टी के पोषक तत्वों कृषि विज्ञानियों के नुस्ख़े के अनुसार अपने खेत के विकारों का निदान करके खेती करते हैं उन्हें निश्चित रूप से शानदार पैदावार मिलती है। इसीलिए यदि खेती-बाड़ी से पाना है बढ़िया मुनाफ़ा तो मिट्टी के गुणों को पहचानना सीखें और समय रहते उचित क़दम ज़रूर उठाएँ।
फॉल आर्मीवर्म का जीवनचक्र 30 से 61 दिनों का होता है। फॉल आर्मीवर्म के लार्वा, पौधों की पत्तियों को खुरचकर खाते हैं। इससे पत्तियों पर सफ़ेद धारियाँ दिखायी देती हैं। जैसे-जैसे लार्वा बड़े होते जाते हैं, वो पौधों की ऊपरी पत्तियों को खाने लगते हैं। इस तरह पत्तियों पर बड़े गोल-गोल छिद्र एक ही पंक्ति में नज़र आते हैं।
2 एकड़ ज़मीन में चार तालाब बने हुए थे। इसमें वो तिलापिया मछलियां पालती थीं। उनके पास 5 बकरियां और 50 देसी मुर्गियां भी थीं। सही प्रबंधन न होने की वजह से आमदनी कुछ ख़ास आमदनी नहीं होती थी। कैसे नारियल आधारित एकीकृत कृषि मॉडल अपनाकर उनकी आमदनी में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ, जानिए इस लेख में।
आम की खेती में अधिक समय, कीटों के प्रकोप और मौसम की मार के कारण होने वाली फसल हानि के चलते कर्नाटक में बहुत कम किसान ही आम की खेती कर रहे हैं। हालांकि, कुछ किसान ऐसे भी हैं जो वैज्ञानिकों की सलाह पर नई तकनीक और तरीके अपनाकर आम की खेती में अच्छी आमदनी अर्जित कर रहे हैं। एक ऐसे ही किसान हैं सत्यनारायण रेड्डी।