बासमती धान में कीट व रोगों का प्रकोप: फसल को कीटों से बचाने के लिए आजकल किसान लगभग सभी फसलों में केमिकल युक्त कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कई बार इनकी मात्रा अधिक होने से फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
धान की फसल में खासतौर पर बासमती धान में कीट और रोगों का प्रकोप ज़्यादा होने की वजह से किसान इसमें कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। मगर कुछ को इसकी सही मात्रा की जानकारी नहीं होती। ऐसे में अगर फसल पकने के दो महीने पहले तक इसका ज़्यादा इस्तेमाल किया जाए तो कीटनाशक के अवशेष धान पर रह जाते हैं, जो न सिर्फ़ इसकी गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, बल्कि इसे सेहत के लिए भी खतरनाक बना देते हैं। बासमती चावल की विदेशों में भी अच्छी मांग है, जिससे निर्यात के ज़रिए किसान अच्छा मुनाफ़ा कमा सकते हैं, लेकिन उन्होंने अगर कीटनाशकों को नियंत्रित नहीं किया तो उनसे निर्यात का मौका छिन सकता है।
दरअसल, अमेरिका, ईरान और यूरोपीय संघ ने साफ कर दिया है कि अगर बासमती धान में निर्धारित सीमा से अधिक कीटनाशक का इस्तेमाल होगा तो किसान उसका निर्यात नहीं कर पाएंगे। ऐसे में ज़रूरी है कि या तो किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल सीमित करें या केमिकल की बजाय जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना शुरू कर दें। आइए, जानते हैं बासमती धान में लगने वाले कुछ कीट व रोगों के बारे में।
बकाने रोग– इसे झंडा रोग के नाम से भी जाना जाता है। ये मिट्टी से फ्यूजेरियम मोनिलीफोर्मी नाम के फंगस के कारण होता है। इसका असर नर्सरी या खेत में पौध की रोपाई के करीब एक महीने बाद नज़र आने लगता है। संक्रमित पौधों की लंबाई सामान्य पौधों से अधिक हो जाती है। पौधे पतले हो जाते हैं। पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। इसकी जड़ें काली पड़ जाती हैं और उनपर धब्बे लग जाते हैं। ये रोग बासमती धान की किस्म पूसा सुगंध-4 (1121) और पूसा 1509 को अधिक प्रभावित करता है। बलुई मिट्टी में ये रोग अधिक होता है।
जीवाणु पत्ती झुलसा रोग- ये जैन्थोमोनास ओराइजी नाम के जीवाणु द्वारा फैलाया जाता है। ये रोग बीज के कारण होता है। ये रोग दो चरणों में पौधों को प्रभावित करता है। पहला है अंकुर झुलसा और दूसरा है पत्ती झुलसा। अंकुर झुलसा को ज़्यादा खतरनाक माना जाता है। रोपाई के 20-25 दिन बाद इस रोग के लक्षण सबसे पहले पत्तियों पर दिखते हैं। पौधे की छोटी पत्ती हल्की पीली पड़ जाती है और फिर धीरे-धीरे पूरा पौधा सूख जाता है।
ये रोग पूरे खेत में एक साथ नहीं लगता है, बल्कि कुछ पौधों से शुरू होकर धीरे-धीरे फैलता है। पत्तियों पर पहले पीले या हल्के पीले रंग की धारियां बनने लगती हैं और फिर वो सूख जाती हैं। इस रोग के बढ़ने के कारणों में शामिल है बरसात का मौसम, हल्की हवाएं और 28-30 डिग्री सेल्सियस तापमान, फसल में नाइट्रोजन का अधिक इस्तेमाल आदि।
आवरण झुलसा रोग- ये रोग भी मिट्टी की वजह से होता है। इसमें पानी की सतह से ठीक ऊपर पत्तियों पर बड़े गोलाकार धब्बे बनने लगते हैं। ये धब्बे धीरे-धीरे पत्तियों के आधार पर बड़े-बड़े धारीदार पुआल के रंग के बनने लगते हैं और तने को चारों तरफ़ से घेर लेते हैं। धब्बों के बीच का हिस्सा थोड़ा स्लेटी या सफेद होता है। जबकि फंफूद पत्तियों पर काले रंग के दाने पैदा करता है। पहले निचली पत्तियों और फिर पूरी पत्तियों पर रोग का असर दिखने लगता है और फिर पूरा पौधा ही झुलस जाता है। ये रोग 28-30 डिग्री सेल्सियस तापमान और घनी रोपाई, फसल में ज़्यादा नाइट्रोजन के उपयोग के कारण तेज़ी से फैलता है।
झोंका रोग- ये रोग बीज और हवा के कारण होता है, जो धान की फसल को बहुत नुकसान पहुंचाता है। इस रोग की शुरुआत में पत्तियों और उनके निचले हिस्सों में छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं, जो धीरे-धीरे बड़े होकर आंख या नाव की आकार के बन जाते हैं। जब धान की बाली बनने लगती है तो इस अवस्था में बाली के नीचे गांठों पर एक काला रिंग जैसा बन जाता है और बाली टूट जाती है। फसल की खेती के दौरान जब रात का तापमान 20-22 डिग्री और आर्द्रता 95 प्रतिशत से ज़्यादा हो तो इस रोग का प्रकोप बढ़ने की संभावना अधिक होती है।
भूरा पत्ती धब्बा रोग- ये बीज और मिट्टी के कारण होने वाला रोग है। इसमें पत्तियों पर छोटे-छोटे गोल भूरे धब्बे बन जाते हैं। रोग बढ़ने पर पौधों के नीचे से ऊपर तक पत्तियों के अधिकांश भाग में धब्बे हो जाते हैं। ये रोग मुख्य रूप से पानी कमी वाले इलाकों में होता है। साथ ही जिन क्षेत्रों में धान की उर्वरता कम है वहां भी इसका प्रकोप अधिक दिखाई देता है। इस रोग के कारणों में शामिल है पत्तियों का ज़्यादा समय तक गीला रहना, मिट्टी का पी.एच. बैलेंस अधिक होना, देर से रोपाई और पौधों को पूरा पोषण न मिलना आदि।
अगर आप चाहते हैं कि आपकी बासमती धान की फसल इन रोगों और कीटों से सुरक्षित रहे तो आपको कुछ बातों का ध्यान रखना होगा:
-किसी भी बीज की बजाय सिर्फ़ बुवाई के लिए प्रमाणित बीज का ही इस्तेमाल करें।
-धान की कटाई के बाद बचे डंठलों को हटा दें या डिकम्पोजर की मदद से गला दें।
-जैविक तरीके से बीजोपचार करें। इसके लिए एक किलो बीज को 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा से उपचारित करें।
-रोपाई बहुत घनी न करें, इससे रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
-रोपाई से पहले स्यूडोमोनास फ्लोरसेंस 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर 30 मिनट तक पौधों की जड़ों को डुबोकर रखें।
-बकाने रोग से संक्रमित पौधों को जड़ सहित उखाड़कर दूसरे खाली खेत में लगा दें।
-ज़रूरत पड़ने पर फफूंदीनाशकों का इस्तेमाल करें, मगर कृषि विेशेषज्ञों की सलाह के अनुसार ही।