टिशू कल्चर (Tissue culture) वाली चमत्कारिक खेती को अपनाने वाले किसान मालामाल हो रहे हैं, क्योंकि जैव-तकनीक (bio technology) से प्रयोगशाला (lab) में तैयार पौधों से लागत के मुकाबले 8-10 गुणा कमाई हो जाती है। बाग़वानी से जुड़े किसानों के लिए तो टिशू कल्चर तकनीक किसी वरदान से कम नहीं, क्योंकि इससे मुनाफ़ा कई गुणा बढ़ जाता है। सजावटी पौधों जैसे ऑर्किड, डहेलिया, कार्नेशन, गुलदाउदी वग़ैरह के लिए तो टिशू कल्टर का कोई जबाब ही नहीं। केले और बाँस की खेती करने वाले और महँगी इमारती लकड़ी सागौन का बाग़ीचा लगाने वाले किसानों या उद्यमियों के लिए टिशू कल्चर तकनीक ने क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है।
किसान और कारोबारी दोनों को निहाल करने की तकनीक
छोटे और मझोले किसान जहाँ टिशू कल्चर अपनाकर अपनी खेती का कायाकल्प कर सकते हैं, वहीं बड़े किसान और उद्यमी भी इससे जुड़कर अपनी कमाई का टिकाऊ और मज़बूत ज़रिया विकसित कर सकते हैं। टिशू कल्चर तकनीक को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र सरकार का राष्ट्रीय बाग़वानी मिशन ज़िलास्तर पर टिशू कल्चर लैब लगाने के लिए एक करोड़ रुपये का अनुदान दे रहा है। ये योजना अगस्त 2019 में शुरू हुई और इसमें लैब स्थापित करने की लागत करीब 2.5 करोड़ रुपये है।
टिशू कल्चर तकनीक से जुड़ने के इच्छुक आवेदक को ज़िला उद्यान कार्यालय से सम्पर्क करना चाहिए। चुने गये आवेदक को राष्ट्रीय बाग़वानी मिशन से जुड़ी प्रयोगशालाओं में टिशू कल्चर तकनीक का प्रशिक्षण देकर नया लैब स्थापित करने में मदद किया जाता है। एक आदर्श टिशू कल्चर लैब बनाने के लिए क़रीब ढाई एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। इस पर लैब, नर्सरी और पॉली हाउस का निर्माण किया जाता है। लैब को टिशू कल्चर से तैयार पौधों को उत्पादक किसानों को बेचने से अच्छी आमदनी होती है।
टिशू कल्चर की ख़ासियत
टिशू कल्चर तकनीक से विकसित पौधों की अनेक ख़ासियत है। इसके पौधे लगभग निरोग रहते हैं। इन पर बैक्टीरिया, वायरल और कीटों का असर भी तकरीबन नहीं ही होता है। टिशू कल्चर से विकसित पौधों की मृत्यु दर सामान्य पौधों के मुकाबले बहुत कम होती है। इसके सभी पौधे एक समान होते हैं इसीलिए उनका विकास भी एक ही ढंग से होता है। इसीलिए उत्पादन में अच्छी बढ़ोतरी नज़र आती है।
टिशू कल्चर तकनीक से विकसित पौधे साल भर मिलते हैं, इसलिए उनकी रोपाई भी साल भर हो सकती है। परम्परागत खेती या संकर नस्लों के मुकाबले टिशू कल्चर में विकसित पौधों बेहद कम समय में उपज देने लगते हैं। मसलन, सागौन का सामान्य रूप से 35-40 साल में विकसित होने वाला पेड़, टिशू कल्चर की बदौलत महज 15 साल में ही तैयार हो जाता है। इसी तरह पपीता का पेड़ एक साल में फल देने लगता है तो नीबू और अमरूद की फसल तीन साल में मिलने लगती है। बाग़वानी के अलावा टिशू कल्चर तकनीक का इस्तेमाल दलहन, तिलहन और अनेक सब्ज़ियों के लिए भी कम वक़्त में ज़्यादा उपज के लिए किया जाता है।
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इसके अलावा बाँस, सेब, देसी-विदेशी फूल और सजावटी पौधों की टिशू कल्चर से विकसित सैकड़ों वेरायटी के पौधों ने खेती में क्रान्तिकारी बदलाव ला दिया है, क्योंकि बाग़वानी वाले पौधों में भी उन्नत संकर नस्लों को विकसित करके उम्दा और टिकाऊ फल-फूल पैदा किये जाते हैं। टिशू कल्चर तकनीकी से तैयार केले की खेती में ढाई साल में दो बार पैदावार मिल जाती है। इससे पारम्परिक खेती की तुलना में टिशू कल्चर से जुड़े केला उत्पादकों की आमदनी पाँच से आठ गुना तक बढ़ गयी। इससे आलू की भी वायरस-रोधी किस्में विकसित की गयी हैं।
किसान कैसे उठाएँ टिशू कल्चर का लाभ?
टिशू कल्टर वाली खेती का लाभ उठाने के इच्छुक किसानों को भी अपने ज़िला उद्यान कार्यालय या कृषि विकास केन्द्र या नज़दीकी प्रयोगशाला से सम्पर्क करना चाहिए और वहाँ से इसके बारे में हरेक बारीक़ से बारीक़ नुस्ख़े सीखकर आगे बढ़ना चाहिए।
रिसर्च सेंटर भी हैं टिशू कल्चर लैब
टिशू कल्चर के पौधे लैब में तैयार होते हैं। ये रिसर्च सेंटर की तरह काम करते हैं। इसे वैज्ञानिकों की नर्सरी भी कह सकते हैं। यहाँ विकसित होने वाले पौधे को मज़बूत होने के बाद ही किसानों को बेचा जाता है। बेशक़, लैब की लागत को देखते हुए टिशू कल्चर से विकसित पौधों का दाम साधारण नर्सरी के तुलना में काफ़ी ज़्यादा होता है, लेकिन यदि फसल लगाने से लेकर उनका दाम पाने तक की प्रक्रिया में लगने वाले लागत और अन्य निवेश की तुलना करें तो टिशू कल्चर तकनीक की खेती बेहद मुनाफ़ा देने वाली साबित होती है।
क्या है टिशू कल्चर तकनीक?
जीवित वनस्पति के रोग रहित भाग से एक कोशिका (cell) अथवा ऊतक (tissue) लेकर प्रयोगशाला में जीवाणु रहित, नियंत्रित और अनुकूल माहौल में मूल पौधे की संरचना तथा विशेषताओं वाले एक नये पौधे को विकसित करने की पूरी प्रक्रिया टिशू कल्चर कहलाती है। ये पौधे बेहत स्वस्थ होते हैं और खेतों में काफ़ी तेज़ी से विकसित होकर ज़्यादा पैदावर देते हैं। किसी लुप्त हो रही नस्ल के संरक्षण में भी टिशू कल्चर बहुत कारगर साबित होता है। टिशू कल्टर तकनीक का बुनियादी सिद्धान्त ये है कि पौधे की हरेक कोशिका में पूरे पेड़ का रूप धारण करने का गुण होता है, बशर्ते उसे उपयुक्त पोषक तत्व और परिवेश उपलब्ध हो। वनस्पति विज्ञान में इसे ‘कोशिका की पूर्ण शक्ति’ कहा गया है।
टिशू कल्चर लैब में उन्नत नस्ल के पौधों के अलावा बीज भी तैयार किये जाते हैं। तैयार बीज को 15-25 दिनों तक पोषक तत्वों से भरे काँच के बर्तन या परखनली में अनुकूल तापमान पर लैब में रखाकर जाता है। बीज से अंकुरण के बाद दूसरी तरह के पोषक तत्वों के परिवेश वाला लैब में भी निर्धारित समय तक रखकर पौधों के मज़बूत किया जाता है। फिर पौधों को पॉली हाउस में करीब डेढ़ महीने तक अनुकूल मिट्टी में विकसित करते हैं। इसके बाद पौधों को खुली नर्सरी में रखकर और परिपक्व किया जाता है। फिर यहीं से किसानों को रोपाई के लिए मुहैया करवाया जाता है।
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कुछ पौधों के मामले में उनके स्वस्थ हिस्से का एक ख़ास टुकड़ा यानी ऊतक (Tissue) को काटकर उसे पोषक तत्वों और प्लांट हार्मोन वाली जैली (Jelly) में रखते हैं। ये हार्मोन ऊतकों के कोशकीय विभाजन यानी विकास की प्रक्रिया को बहुत तेज़ कर देते हैं। इस तरह विकसित कोशिकाएँ कैलस (Callus) कहलाती हैं। कैलस को एक अन्य जैली वाले माहौल में भेजा जाता है ताकि वहाँ के हार्मोन कैलस को पौधे की जड़ें विकसित करने के लिए उत्तेजित करें। विकसित जड़ों वाले कैलस को भी तने का विकास करने वाले हार्मोन वाले एक और जैली में डाला जाता है। इसके बाद विकसित जड़ और तना समेत छोटे पौधे को कैलस से अलग करके मिट्टी में रोपकर टिशू कल्चर से पौधा किया जाता है।
टिशू कल्चर का इतिहास
भारत में टिशू कल्चर का प्रवर्तक डॉ पंचानन माहेश्वरी को माना गया। वो 1950 के दशक में दिल्ली यूनिवर्सिटी में पादप विज्ञान विभाग के प्रोफ़ेसर थे। उन्होंने गर्भाशय, भ्रूण और अंडाणु के अध्ययन के लिए टिशू कल्चर की अलग-अलग विधियाँ विकसित कीं। लेकिन वैश्विक स्तर पर देखें तो 1756 के बाद से अनेक वैज्ञानिकों ने टिशू कल्चर तकनीक के रहस्यों को जानने की कोशिश की। लेकिन 1902 के बाद जर्मन वैज्ञानिक गॉटलिब हेंबरलेंट को टिशू कल्चर का सिद्धान्त प्रतिपादित करने में सफलता मिली। इसीलिए बायो-टेक्नोलॉज़ी की दुनिया में इन्हें ही टिशू कल्चर का जनक माना गया। हालाँकि, टिशू कल्चर की विधा आज इतनी विकसित हो चुकी है कि अब साधारण किसान भी इसमें हाथ आज़मा रहे हैं।