खरपतवार ऐसे अवांछित और ज़बरन उगने वाले पौधे हैं, जो बोये बग़ैर ही खेतों तथा अन्य स्थानों पर उगकर तेज़ी से बढ़ने की क्षमता रखते हैं। खरपतवारों को खेती-बाड़ी की बेहद गम्भीर समस्या माना गया है क्योंकि उत्पादक फ़सलों के खेतों में पनपकर ये अपने आसपास की मिट्टी के पोषक तत्वों बुरी तरह से चूस लेते हैं कि आर्थिक रूप से लाभकारी मुख्य फ़सल के पौधों का विकास बाधित होने लगता है। नतीज़तन, खेत की उत्पादकता और पैदावार की गुणवत्ता अत्यन्त गम्भीर रूप से प्रभावित होती है। इसीलिए खरपतवारों को खेती और किसानों का दुश्मन माना जाता है। जैविक खेती में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें, आप इस लेख में जानेंगे।
ज़ाहिर है, खरपतवारों पर उचित ढंग से और सही वक़्त पर नियंत्रण पाने से खेती का उत्पादन बढ़ता है क्योंकि इससे मुख्य फ़सल को सही ढंग से बढ़ने का पूरा मौका मिलता है। लेकिन दुर्भाग्यवश बीते पाँच दशकों में खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों और ज़हरीले खरपतवार नाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ी है। इससे जहाँ एक ओर पर्यावरण में ज़हरीले प्रदूषणकारी रसायनों का अनुपात बहुत बढ़ता चला गया वहीं दूसरी ओर खेतों की मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में भी भारी गिरावट देखने को मिली। इसका नकारात्मक प्रभाव फलों, सब्जियों तथा अनाजों की गुणवत्ता में गिरावट के रूप में सामने आता रहा है।
रासायनिक खरपतवार नाशकों के दुष्प्रभाव
रासायनिक खरपतवार नाशकों और कीटनाशकों से हमारे पर्यावरण के प्रत्येक हिस्सा दूषित हुआ दिया है। इससे मिट्टी, हवा, पानी, भूसतह तथा भूजल के साथ-साथ फ़सल के पौधों, पशुओं, मछलियों, अन्य जलचरों, पक्षियों, वन्यजीवों और लाभकारी सूक्ष्मजीवों तथा कीटों आदि को भी नुकसान पहुँचता है। इन्सान के भोजन में इन सभी तत्वों की किसी ना किसी रूप में भागीदारी रहती है इसीलिए कीटनाशकों से मानव स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव साफ़ देखे गये हैं। कीटनाशकों के ज़हरीले रसायनों के सम्पर्क में आने पर मानव में श्वसन मार्ग की जलन, गले में ख़राश और खाँसी, अनेक किस्म की एलर्जी तथा आँख और त्वचा में जलन की समस्या हो सकती हैं।
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रासायनिक कीटनाशकों के निरन्तर बढ़ते इस्तेमाल से जहाँ कैंसर जैसे अनेक घातक रोगों के पीड़ितों में बढ़ोत्तरी देखी गयी वहीं खेतों के बंजर होने की प्रवृत्ति में भी इज़ाफ़ा हुआ। इसीलिए खरपतवारों के जैविक उन्मूलन की विधियों के प्रति किसानों में जागरूकता को बढ़ाने की बेहद ज़रूरत है। उधर, कृषि विज्ञानियों पर भी दबाब बढ़ा कि वो खरपतवारों से निपटने की ऐसी जैविक विधियों या जैविक शाकनाशकों का पता लगाएँ जिससे पूरी समस्या का व्यावहारिक निराकरण हो सके।
प्राकृतिक या जैविक शाकनाशकों से लाभ
रासायनिक खरपतवार नाशकों की जगह जैविक उत्पादों का प्रयोग करना पर्यावरण हितैषी है। ये वातावरण और मिट्टी में जल्दी अपघटित हो जाते हैं और इनका भूजल में भी प्रवेश नहीं होता है। जैविक शाकनाशी के इस्तेमाल का सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि ये ना सिर्फ़ अवाँछित खरपतवारों को नष्ट करते हैं, बल्कि इनके इस्तेमाल से उगायी जा रही फ़सल को कोई नुकसान नहीं पहुँचता। हालाँकि, वर्तमान में व्यावसायिक रूप से बाज़ार में बहुत सीमित मात्रा में जैविक खरपतवार नाशक उपलब्ध हैं।
किसानों और कृषि वैज्ञानिकों, दोनों के लिए ऐसी दशा चुनौतीपूर्ण है। इसीलिए जैविक खरपतवार नाशकों का चयन करने से पहले किसानों के लिए कृषि विशेषज्ञों या अपने नज़दीकी कृषि विकास केन्द्र से सलाह लेना बेहद ज़रूरी है। जैविक खेती के हरेक प्रारूप के लिए होने वाले अनुसन्धान का उद्देश्य निश्चित रूप से ऐसे जैविक खरपतवार नाशकों या जैविक शाकनाशियों का विकास करना भी है, जिससे प्राकृतिक उत्पादों के इस्तेमाल से होने वाली खेती ही मुख्यधारा के रूप में पुनर्स्थापित हो सके।
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खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक खरपतवार नाशकों के स्थान पर प्राकृतिक उत्पादों का प्रयोग बेहद आकर्षक और आशाजनक वैकल्पिक समाधान हैं। मौजूदा दौर में जैसे-जैसे जैविक खेती के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है वैसे-वैसे ही खेती में प्राकृतिक शाकनाशकों की ख़ूबियों वाले उत्पादों के प्रयोग का चलन भी बढ़ रहा है। इस लिहाज़ से देखें तो फ़िलहाल प्राकृतिक उत्पादों से खरपतवार नियंत्रण के लिए मौजूद विकल्प निम्नवत हैं।
1. घुलनशील सूखे असवक अनाज (ड्राई डिस्टिलर्स ग्रेन)
यह एथेनॉल का उप-उत्पाद है। इसका उपयोग मुख्यतः चारा फ़सलों की जैविक पैदावार में किया जाता है। ‘ड्राई डिस्टिलर्स ग्रेन’ में 4.4 प्रतिशत नाइट्रोजन, 0.16 प्रतिशत फ़ॉस्फोरस, 0.79 प्रतिशत पोटाश और 0.5 प्रतिशत सल्फ़र (गन्धक) की मात्रा होती है। नाइट्रोजन की अधिकता के कारण इसका प्रयोग खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ बागवानी फ़सलों के लिए उर्वरक की भूमिका भी निभाता है।
2. ग्लूकोसाइनोलेट्स
मूली, शलगम, पत्तागोभी, फूलगोभी, सरसों जैसे पौधे ऐसे ब्रैसिकेसी (Brassicaceae) प्रजाति के हैं जिनमें ग्लूकोसाइनोलेट्स नामक एलोपैथिक मिश्रण पाया जाता है। इस प्रजाति में 350 किस्म के वंश तथा 2500 जातियों के पौधे होते हैं। इसके पौधे सर्वत्र मिलते हैं। ग्लूकोसाइनोलेट्स के विघटन से मायरोरोसिनेज एंजाइम बनता है। इससे थायोसाइनेट और आइसोथायोसाइनेट जैसे ऐसे विषैले पदार्थ बनते हैं जो खरपतवारों को नष्ट करने में उपयोगी साबित हुए हैं।
3. पौधों के अर्क से खरपतवार नियंत्रण
कुछेक पौधों के विभिन्न भागों जैसे तना, जड़ और बीजों से निर्मित अर्क में भी प्राकृतिक पौधनाशक की तरह कार्य करने की क्षमता होती है। कुछ पौधे फाइटो-टॉक्सिक एलोकेमिकल्स का स्राव करके भी खरपतवार के अंकुरण और वृद्धि को रोकने में मदद करते हैं। पौधों के अर्क से नियंत्रित होने वाले खरपतवार नाशक इस प्रकार हैं:
- सलाद पत्ता (लैट्यूस सटाईबा), छोटा धतूरा (जेन्थियम ऑक्सीडेंटल) तथा जापानी थिस्टल (क्रिसियुम जपोनिकम) का अर्क, रिजका की जड़ों के विकास को रोकने में सहायक।
- महानीम (एलियानधूस अल्टीसिमा) की ताज़ा पत्तियों का जलीय अर्क रिजका की जड़ों के विकास को रोकने में सहायक।
- चाइनीज अरबी (एलो कासिया कस्क्यूलाटा), कनेर (नेरीम ओलियंडर), कृष्ण कमल बेल (पेसिफ्लोरा इंनकारनेट) तथा जापानी पगोडा पेड़ (सोफोर जपोनिका) को मिलाकर पाउडर बनाकर 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने पर धान की खेती में 60-70 प्रतिशत तक खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।
- अरंडी (रिसिनुस कम्युनिस), तम्बाकू (निकोटियाना टोबेकम), धतूरा (धतूरा इनओक्सिया), ज्वार (सोरघम वल्गर) का 10 ग्राम प्रति लीटर जलीय अर्क के घोल का छिड़काव हिरनखुरी खरपतवार के बीज अंकुरण को रोकने में सहायक है।
4. सगन्धीय तेल से खरपतवार नियंत्रण
कुछेक पौधों से मिलने वाले सगन्धीय तेलों में भी वसा खरपतवारों के प्रति पादप विषाक्तता प्रदर्शित करने का गुण पाया जाता है। इसीलिए ये कृत्रिम पौधनाशक के रूप में अच्छा प्राकृतिक विकल्प साबित होते हैं:
- अजवायन, तुलसी, मरूवा (ओरिगेनम मेजोराना), नीम्बू तथा बेसिल (ऑसीमम सिट्रियोडोरम) के सगन्धीय तेल का प्रयोग चौलाई (अमरेन्थस स्पी.) के नियंत्रण के लिए किया जाता है।
- लासन सरू (लासन साइप्रस), मेहंदी (रोसमेरिनस ऑफिसिनेलिस), सफ़ेद देवदार (थूजा ओसिडेंटलिस) तथा नीलगिरी से प्राप्त सगन्धीय तेल का प्रयोग भी खरपतवार नाशकों के रूप में किया जा सकता है। इससे अम्लान कुल्फा और कनैपवीड जैसे अवांछित पौधों पर काबू पाया जा सकता है।
- नीलगिरी (युकेलिप्टस सिट्रियोडोरा) से प्राप्त सगन्धीय तेल का प्रयोग काँग्रेस घास (पार्थेनियम हैटेराफोरस), कनारी घास (फ्लैरिस माइनर), चिकवीड (अग्रेंतु कुएंजोइड्स) लैब्स्क्वार्टर्स, चौलाई (अमरेन्थस स्पी.) जैसे खरपतवार नियंत्रण में प्रभावशाली साबित होता है।
- लाल अजवायन, ग्रीष्म जड़ी-बूटी, दालचीनी (किन्नमोमुम वेरुम), लौंग से मिलने वाले एसेंशियल ऑयल बथुआ, रैगवीड, जाहंसन घास जैसे खरपतवारों के प्रति प्रबल पादप विषाक्तता प्रदर्शित करते हैं।
5. सूक्ष्मजीवों से खरपतवार नियंत्रण
वर्तमान में हमारे पास अनेक ऐसे सूक्ष्मजीव उपलब्ध हैं, जिनका प्रयोग उच्च मूल्य की फ़सलों में खरपतवार नियंत्रण के लिए कर सकते हैं: जैसे- कवक परजीवी, मिट्टी में पाये जाने वाले कवक रोगजीवी, बैक्टीरिया, निमेटोड्स आदि।
- रस्ट कवक (पक्सीनिया केनालिक्यूटा) पत्तों में पाया जाने वाला रोगजनक है और यह पीले अखरोट (साइप्रस एसक्यूलेटस) के नियंत्रण में उपयोगी है।
- मिट्टीजनित कवक ट्राइकोडर्मा वीरेंस का उपयोग फ़सलों में जंगली पालक के उद्भव को कम करने और वृद्धि को रोकने में किया जाता है।
- अल्टरनेरिया कंजंकटा और फ्यूजेरियम ट्राइकिंकंटुम का उपयोग अमरबेल के नियंत्रण में सहायक है। स्यूडोमोनास प्रजाति के कुछ बैक्टीरिया वार्षिक खरपतवारों (आर्तगल. जंगली सूरजमुखी) के प्रति शाकनाशी प्रवृत्ति प्रदर्शित करते हैं।
कॉर्न ग्लूटन से खरपतवार नियंत्रण
कॉर्न ग्लूटन नामक पदार्थ एक ऐसे प्रोटीन का अंश है, जो मकई की गिरी (कोर्नेल्स) की गीली मिलिंग प्रक्रिया से प्राप्त होता है। इससे लैम्बसक्वार्टर (चीनोपोडीयम एलबम), घुंघराले गोदीदार खरपतवार (रुमेक्स साइप्रस), कुल्फा का शाक (पोर्तुलाका ओलेरेसिया), छोटी मकोय (सोलेनम नाइग्रम), रेंगने वाले बैंटग्रास (एग्रोसटिस प्लुस्ट्रिस) और लालजड़ पिगवीड बथुआ (अमरेन्थुस रेट्रोफ्लेक्सस) जैसे खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। फ़सल की रोपाई से पहले खेत में 100 से 400 ग्राम कॉर्न ग्लूटन मील (सीजीएम) प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करने से 50 से लेकर 80 प्रतिशत तक खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है। ये खरपतवारों के अंकुरण के वक़्त उनकी जड़ों के विकास को दबाने में सक्षम साबित होता है और मुख्य फ़सल पर कोई प्रभाव नहीं डालता।
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