उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला पहाड़ी क्षेत्र है, जहां खेती वर्षा पर आधारित है, लेकिन यहां पान की हमेशा कमी बनी रहती है जिससे खेती प्रभावित होती है और यहां के लोगों को आजीविका के दूसरे साधन ढूंढ़ने पर मजबूर करती है। गर्मी के मौसम में तालाब और दूसरे जल के स्रोत सूख जाते हैं जिसका असर लोगों की आजीविका पर पड़ता है। ऐसे में इलाके के लोगों ने वैकल्पिक आय के स्रोत के रुप मछली पालन को चुना, मगर पानी की कमी के कारण इसे भी लंबे समय तक करने में मुश्किलें आने लगीं। इस समस्या के समाधान के लिए इलाके के एक स्वयं सहायता समूह ने मछली पालन की नई तकनीक बायोफ्लोक अपनाई।
क्या है बायोफ्लोक तकनीक?
यह मछली पालन की एक लाभदायक तकनीक है जिसमें खुले टैंक में मछली पालन किया जाता है और यह तकनीक पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस तकनीक में नाइट्रेट, अमोनिया और नाइट्रेट जैसे जहरीले अपशिष्ट पदार्थों को मछली के भोजन के रूप में बदला जाता है। इस तकनीक में बायोफ्लोक टैंक में मौजूद पोषक तत्वों को रिसाइकल किया जाता है।
किसानों के लिए फायदेमंद
बायोफ्लोक मछली पालन तकनीक जिल के किसानों के लिए बहुत फायदेमंद साबित हो रही है, क्योंकि उन्हें एक ऐसी तकनीक की ज़रूरत थी जिससे मछली का उत्पादन अधिक हो, कम जगह और खर्च में व्यवसाय किया जा सके, देखभाल की कम ज़रूरत पड़े और आमदनी अच्छी हो। इस तकनीक में न सिर्फ पानी की कम ज़रूरत होती है, बल्कि छोटी सी जगह में भी मछली पालन शुरू किया जा सकता है। आर्टिफिशियल टैंक में अधिक घनत्व में मछलियां पाली जा सकता हैं। पानी के अंदर के अपशिष्ट पदार्थों को मछली के भोजन के रूप में परिवर्तित किया जाता है जिन्हें मछलियां खाती हैं। सूक्ष्मजीव, कवक, शैवाल आदि मिलकर बायोफ्लोक बनाते हैं जो अकार्बनिक अपशिष्ट को अवशोषित करता है और पानी की गुणवत्ता को बढ़ाता है। इस तरह जल प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है। इसके अलावा मछली के भोजन पर भी किसानों को अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ेगा।
महिला सदस्य उठा रहीं फायदा
सोनभद्र जिले के चतरा ब्लॉक के शिव गुरु आजीविका स्वयं सहायता समूह के सदस्य 1300 स्क्वायर फीट का टैंक इस्तेमाल कर रहे हैं जिसमें लगभग 2000 तक मछलियों का उत्पान हो जाता है और यह 7 महीने में बाज़ार में बेचने के लिए तैयार हो जाती हैं। यह तकनीक अब आसपास के कई जिलों के किसानों द्वारा इस्तेमाल की जा रही है। महिला सदस्या बायोफ्लोक मछली पालन तकनीक से मछली पालन कर और उन्हें बाज़ार में बेचकर अच्छा मुनाफा कमा रही हैं। मछलियों की अधिक मांग को देखते हुए उन्हें आपूर्ति श्रृंखला को बनाए रखने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ रही है। एक महिला सदस्य संगीता देवी का कहना है कि पारंपरिक तरीके से मछली पालन में बहुत नुकसान होता था, लेकिन नई तकनीक न सिर्फ अधिक उत्पादन देती है, बल्कि जगह भी कम लेती है जिससे महिलाएं आसानी से मछली पालन करके अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर सकती हैं और साथ ही घर की देखभाल भी कर लेती हैं।
कितनी आई लागत
स्वयं सहायता समूह द्वारा मछली पालन इकाई स्थापित टैंक स्थापित करने का खर्च 3,50,000 रुपए आया समूह ने यह राशि लोन लेकर जुटाई। उनके पास 4 कृत्रिम टैंक है जिसमें 6,000 मछलियों का उत्पादन किया जाता है। 7 महीने के अंदर ही इन्हें बाज़ार में बेचकर कमाई शुरू हो जाती है। इसके एक चक्र से स्वयं सहायता समूह को 1,00,000 से 2,00,000 रुपए की आमदनी होती है। मछलियों को करीब 4-5 चक्र में बेचा जाता है जिससे समूह को करीब 6-7 लाख रुपए की आमदनी होती है।
पारंपरिक तरीके की जगह ली नई तकनीक ने
अब तक इलाके के लोग तालाब व जलाशयों में पारंपरिक तरीके से मछली पालन करते थे और पानी के कम स्तर के कारण बहुत सी मछलियां मर जाती थीं जिससे कसानों को नुकसान होता था, लेकिन बायोफ्लोक तकनीक ने उन्हें अपने हिसाब से मछली पालन करने की आज़ादी दी और वह घर के आंगन या छत पर आराम से मछली पालन करके अपनी आमदनी में इज़ाफा कर सकते हैं। स्वयं सहायता समूह के सदस्यों को बायोफ्लोक मछली पालन तकनीक पर 3 दिन का प्रशिक्षण दिया गया और मछली पालन के लिए ज़रूरी अन्य सामान भी उपलब्ध कराया गया। अधिक उत्पादन क्षमता के कारण बायोफ्लोक तकनीक किसानों के लिए अधिक मुनाफा कमाने का अच्छा ज़रिया बन गई है।
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