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जौ, रबी की ऐसी अहम फ़सल है जिसकी अनाज और पशु चारा के अलावा देश में औद्योगिक मांग भी ज़बरदस्त है। इसकी औद्योगिक मांग क़रीब 5 लाख टन सालाना है जो 10 प्रतिशत की दर से बढ़ भी रही है। अभी देश के 30 प्रतिशत जौ का इस्तेमाल माल्ट बनाने में हो रहा है। जौ की उपज की बढ़ती मांग को देखते हुए करनाल स्थित भारतीय गेहूं और जौ अनुसन्धान संस्थान ने इसकी एक ऐसी उन्नत किस्म विकसित की है, जिसकी पैदावार परम्परागत किस्मों के मुक़ाबले दोगुनी है। इस नयी किस्म का नाम है- DWRB-219. इसकी माल्टिंग वाली गुणवत्ता भी उत्तम कोटि की है।
2022-23 में 6.2 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर जौ की खेती हुई और 16.9 लाख टन पैदावार हुई। ये उत्पादकता महज 27.33 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रही। जबकि उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र की सिंचित और समय से हुई बीजाई की दशा में हुए 30 परीक्षणों में DWRB-219 किस्म से प्रति हेक्टेयर 54.49 क्विंटल औसत उपज मिली जबकि इसकी आनुवंशिक उपज क्षमता 92.96 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दर्ज हुई। ज़ाहिर है, नयी किस्म DWRB-219 इतनी उन्नत है कि इसमें जौ के राष्ट्रीय उत्पादन को दोगुना करने की क्षमता है।
जौ की चार जलवायु (4 Climates Of Barley)
कृषि जलवायु के आधार पर जौ की खेती के लिए देश को चार भागों में बांटा गया है। इनमें उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र और मध्य क्षेत्र शामिल हैं। पैदावार के लिहाज़ से उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र सबसे बेहतर है। इस क्षेत्र में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान (कोटा और उदयपुर सम्भाग को छोड़कर), पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड का तराई क्षेत्र, जम्मू-कश्मीर का जम्मू और कठुआ ज़िला और हिमाचल प्रदेश का ऊना ज़िला और पोंटा घाटी का क्षेत्र शामिल है।
जौ को मानव सभ्यता का सबसे प्राचीन अनाज माना गया है। ये बेहद सुपाच्य और औषधीय गुणों से सम्पन्न अनाज है। प्राचीन काल से ही इसका उपयोग इन्सान के खाद्य पदार्थों जैसे आटा, दलिया, सूजी, सत्तू और पेय पदार्थ के अलावा पशु आहार के रूप में होता रहा है। जौ के अर्क और सीरप का प्रयोग भी व्यावसायिक रूप से तैयार खाद्य और मादक पेय पदार्थों में स्वाद, रंग या मिठास को जोड़ने के लिए किया जाता है।
जौ की उन्नत किस्म DWRB-219 (Barley Variety DWRB-219)
जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के मद्देनज़र जौ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए जौ प्रजनक मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार नयी-नयी किस्में विकसित करते हैं। इसी प्रक्रिया का सुखद नतीज़ा है DWRB-219 नामक नयी किस्म। माल्ट जौ की ये किस्म सिंचित खेतों में समय से बीजाई के लिए बेहद उपयुक्त है। इसकी बालियां हरी, सीधी, सघन और ग़ैर-वैक्सी होती हैं। इसकी औसत ऊंचाई 96 सेंटीमीटर है। इसके दाने अत्यधिक मोटे और हल्के पीले रंग के होते हैं। यह किस्म क़रीब 132 दिनों में पक जाती है।
DWRB-219 किस्म में पीला रतुआ समेत अनेक रोगों और कीटों के प्रति उच्चस्तरीय प्रतिरोधकता क्षमता मौजूद है। इसकी माल्टिंग गुणवत्ता भी शानदार है। इस प्रजाति को ICAR की ओर से 2020 में ही व्यावसायीकरण के लिए अनुमोदित किया जा चुका है। बीते तीन साल में हुए परीक्षणों में पाया गया है कि पोषण उत्थान और समृद्धि, दोनों के लिए ये सर्वोत्तम किस्म है। इसके दानों में प्रोटीन की औसत मात्रा सबसे अधिक 11.4 प्रतिशत और वर्ट बी-ग्लूकन की मात्रा 619.8 पीपीएम पायी गयी है।
क्षेत्र, भूमि और बीजाई (Area, Land and Seeding Of Barley)
जौ की किस्म DWRB-219 उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में सिंचित और समय से बीजाई (10-25 नवम्बर) के लिए उपयुक्त है। इसके लिए अच्छे जल निकास वाली समतल और हल्की दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है। इसकी बीजाई के लिए खाद और बीज ड्रिल सबसे उपयुक्त और वैज्ञानिक विधि है। इसकी बीजाई के लिए 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज डालने की सिफ़ारिश की गयी है। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 18 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 2-3 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।
बीजोपचार और उर्वरक (Seed Treatment & Fertilizer)
बीजजनित रोगों के सफल प्रबन्धन के लिए बीज को कवकनाशी कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत+ थीरम 37.5 प्रतिशत और डब्ल्यूएस की 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज अथवा टैबुकोनाजोल 2डीएस की एक ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए। माल्ट के उद्देश्य से होने वाली फ़सल की बीजाई में नाइट्रोजन की मात्रा 90 किलोग्राम, फॉस्फोरस 40 किलोग्राम और पोटाश 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा का उपयोग बीजाई के समय ही करें तथा नाइट्रोजन की शेष मात्रा पहली सिंचाई पर डालें।
सिंचाई प्रबन्धन (Irrigation Management)
जौ की अच्छी फ़सल लेने के लिए सामान्यतः 2-3 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई 30-35 दिन बाद कल्ले निकलते समय, दूसरी सिंचाई बीजाई के 60-65 दिन बाद और तीसरी सिंचाई 80-85 दिन बाद जब दानों में दूध पड़ने लगे तब करनी आवश्यक है।
खरपतवार प्रबन्धन (Weed Management)
जौ की फ़सल में संकरी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए आइसोप्रोटुरान (75 डब्ल्यूपी) 1333 ग्राम या पिनोक्साडेन (5 ईसी) 700-800 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। सभी खरपतवारनाशी का छिड़काव बीजाई के 30-35 दिनों बाद 400-500 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लैट फैन नॉजल से करें। बहुशाकनाशी प्रतिरोधी कनकी के नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथालिन (30 ई.सी.) 3333-4950 ग्राम को 400-500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बीजाई के 2-3 दिन बाद प्रयोग करें।
कटाई, मड़ाई और भंडारण (Harvesting, Threshing & Storage)
जौ की फ़सल मार्च के अन्त से अप्रैल के पहले पखवाड़े तक पक जाती है। तब कंबाइन हार्वेस्टर से कटाई करना चाहिए। भंडारण से पहले दानों को अच्छी तरह से सुखा लें, ताकि औसत नमी 10-12 प्रतिशत के सुरक्षित स्तर पर आ जाए। अनाज भंडारण के लिए साफ़-सुथरे जीआई शीट के बने बिन्स या साइलो या कोठिला का प्रयोग करना चाहिए। भंडारण के समय कीटों से बचाव के लिए क़रीब 10 क्विंटल अनाज में एल्युमिनियम फॉस्फाइड की एक टिकिया रखनी चाहिए।
जौ की खेती पर अक्सर पूछे जाने वाले सवाल
सवाल: जौ की खेती के लिए सबसे उपयुक्त मौसम क्या है?
जवाब: जौ की बुवाई के लिए सबसे उपयुक्त समय अक्टूबर-नवंबर होता है। इसे रबी फसल माना जाता है, इसलिए सर्दियों के मौसम में इसकी खेती की जाती है।
सवाल: जौ की खेती के लिए कौन सी मिट्टी उपयुक्त होती है?
जवाब: जौ की खेती के लिए हल्की दोमट और जलोढ़ मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। मिट्टी का पीएच मान 6 से 7 के बीच होना चाहिए।
सवाल: जौ की खेती के लिए कितनी सिंचाई आवश्यक होती है?
जवाब: जौ की फसल के लिए आमतौर पर 2 से 3 बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुवाई के 20-25 दिन बाद और दूसरी सिंचाई फसल के फूल आने पर की जाती है।
सवाल: जौ की बुवाई की विधि क्या होती है?
जवाब: जौ की बुवाई सीधी बुवाई की विधि से की जाती है। बुवाई के समय बीजों को 20-25 सेमी की दूरी पर 3-4 सेमी गहराई में बोया जाता है।
सवाल: जौ की खेती से क्या लाभ होते हैं?
जवाब: जौ की खेती से आर्थिक लाभ के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है, पशुओं के लिए पौष्टिक चारा मिलता है, और बीयर उद्योग को कच्चा माल उपलब्ध होता है।
सवाल: जौ की फसल को कौन-कौन सी बीमारियां और कीट प्रभावित करते हैं?
जवाब: जौ की फसल को प्रमुख रूप से पत्तियों की झुलसा, रतुआ और मोजेक वायरस जैसी बीमारियां प्रभावित करती हैं। कीटों में सफेद मक्खी और थ्रिप्स का प्रकोप होता है। इनके नियंत्रण के लिए उचित कीटनाशक और रोगनाशक का उपयोग करें।
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