ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) यानी जलवायु परिवर्तन आज के समय की सबसे बड़ी वैश्विक समस्या बनती जा रही है। जिसका असर कृषि पर भी हो रहा है। कहीं ज़रूरत से ज़्यादा बारिश तो कहीं बहुत अधिक गर्मी के कारण फसलें खराब हो जाती है या उनकी उत्पादकता कम हो जाती है। ऐसे में किसानों के लिए खेती करना बहुत चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग की समस्या दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है, ऐसे में ज़रूरी है कि खेती में कुछ ऐसे बदलाव किए जाए, जिससे कुछ हद तक इस समस्या के दुष्परिणामों को रोका जा सके और साथ ही पानी की कमी की समस्या से भी निपटा जा सके। इसके लिए लघु धान्य फसलों की खेती (Small Grain Crops Farming) बेहतरीन विकल्प हैं। हमारी ये पारंपरिक फसलें जो मुख्यधार से गायब हो चुकी है, उन्हें दोबारा अपनी थाली में जगह देने की ज़रूरत है।
वैश्विक समस्या
ग्लोबल वार्मिंग पूरे विश्व के लिए एक बड़ा मुद्दा बन चुका है और इसके प्रभावों से शायद ही कुछ अछूता रहेगा। जानकारों का मानना है कि इसका भारतीय कृषि पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा से जुड़ी समस्या उत्पन्न हो सकती है। अध्ययन बताते हैं कि आने वाले समय में पृथ्वी का तापमान और बढ़ेगा, साथ ही ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ रहा है, जिससे 21वीं सदी के आखिर तक वैश्विक तापमान 2.5 से 4.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। ऐसे में इसके दुष्प्रभावों को रोकने के लिए ठोस उपाय करने की ज़रूरत है।
लघु धान्य फसलें हैं बेहतरीन विकल्प
लघु धान्य फसलों में गेहूं, मक्का और धान के अलावा अन्य अनाज आते हैं जैसे- ज्वारा, बाजरा, रागी, सांवा, कुटकी, कोदो, कंगनी आदि। ये फसलें जलवायु परिवर्तन के असर जैसे अधिक गर्मी को सहन करने की क्षमता रखती है और कम पानी में भी अच्छी पैदावार देती है। इनकी उत्पादन अवधि भी कम होती है, जो आमतौर पर इनकी किस्मों पर निर्भर करता है ये 60-100 दिन हो सकती है। सूखे की स्थिति में भी ये फसलें ज़िंदा रह सकती हैं, क्योंकि इनमें कम वाष्पोत्सर्जन होता है। साथ ही ये ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम करती हैं, जिससे ग्लोबल वार्मिंग में कृषि क्षेत्र के योगदान को कम किया जा सकता है।
पोषण और पानी की समस्या से निपटने में कारगर
लघु धान्य फसलें गेहूं, धान और मक्का की तुलना में कहीं अधिक पौष्टिक होती हैं। इनमें फाइबर, आयरन, कैल्शियम, प्रोटीन आदि भरपूर मात्रा में होता है। ऐसे में ये पोषण की समस्या आसानी से दूर कर सकता है। साथ ही क्योंकि इसकी खेती में अधिक पानी की ज़रूरत भी नहीं पड़ती और ये सूखा प्रभावित क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है।
इन फसलों की ख़ासियत है कि इन्हें बहुत अधिक गुणवत्तापूर्ण मिट्टी की भी ज़रूरत नहीं होती है। ये रेतीली, लवणीय, क्षारीय और अम्लीय मिट्टी में भी उगाई जा सकता है। इनके लिए ज़्यादा उर्वरकों की भी ज़रूरत नहीं होती है। अधिकांश लघु धान्य फसलों की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अच्छी होती है जिससे कीटनाशकों के इस्तेमाल की ज़रूरत नहीं पड़ती। यानी कीटनाशकों के हानिकारक प्रभाव से पर्यावरण सुरक्षित रहता है। ये फसलें कार्बन का उत्सर्जन भी कम करती हैं।
लघु धान्य फसलों की जड़ प्रणाली बहुत मज़बूत होती है, इसलिए ये सूखे को भी सहने की क्षमता रखती है। साथ ही पहाड़ी इलाकों में भी इनकी खेती की जा सकती है। इन फसलों के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय लाभ को देखते हुए ही पिछले कुछ समय से सरकार मिलेट्स यानी मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठा रही है। इनकी खेती से जहां पर्यावरण और लोगों की सेहत दुरुस्त रहेगी, वहीं किसानों को भी इससे अच्छी कमाई होगी, क्योंकि धीरे-धीरे ज्वार, बाजरा, रागी जैसी फसलों की मांग बढ़ रही है।
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