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सोयाबीन खरीफ़ सीज़न की प्रमुख तिलहनी फ़सल है। सोयाबीन में प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है। इससे सोयावड़ी, दूध और पनीर बनाने के साथ ही तेल भी निकाला जाता है। इसलिए इसकी मांग हमेशा बनी रहती है।
भारत में करीब 12 मिलियन टन सोयाबीन का उत्पादन होता है। इसका सबसे ज़्यादा उत्पादन मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में होता है। कुल उत्पादन का 45 प्रतिशत अकेले मध्यप्रदेश में होता है, जबकि महाराष्ट्र में 40 प्रतिशत उत्पादन होता है। इसकी खेती के लिए गर्म और नम जलवायु होनी चाहिए। पौधों के अच्छे विकास के लिए तापमान 26-32 डिग्री होना चाहिए। दोमट मिट्टी में भी इसका उत्पादन अच्छा होता है, जल निकासी की भी उचित व्यवस्था होना ज़रूरी है। सोयाबीन की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए उर्वरकों का सही इस्तेमाल भी ज़रूरी है।
तस्वीर साभार: ICAR
सोयाबीन का महत्व
सोयाबीन एक प्रमुख तिलहनी फसल है जो विशेष रूप से प्रोटीन से भरपूर होती है। इसकी विशेषता यह है कि इसका उपयोग कई खाद्य उत्पादों में किया जाता है, जैसे सोयावड़ी, दूध, और पनीर, इसके अलावा सोयाबीन से तेल भी निकाला जाता है। इस फसल की मांग हमेशा बनी रहती है, क्योंकि यह न केवल मानव आहार का हिस्सा है, बल्कि पशुधन के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, सोयाबीन खेती से किसानों को आर्थिक लाभ होता है, जिससे वे अपनी आय को बढ़ा सकते हैं।
सोयाबीन के उत्पादन का इतिहास
सोयाबीन के उत्पादन का इतिहास बहुत पुराना है। 11वीं सदी ईसा पूर्व में चीन में इसकी खेती का पता चला था, लेकिन अमेरिका में इसका नाम 1804 में आया। 1765 में अमेरिकी उपनिवेशों में “चीनी वेट्च” के रूप में इसे पेश किया गया था। और फिर 1879 में न्यू जर्सी के एक कॉलेज में इसकी खेती की कोशिश की गई। उस समय लोग इसे खाने के लिए नहीं, बल्कि जानवरों के चारे के लिए उगाते थे। सोयाबीन की असली कहानी दूसरे विश्व युद्ध के समय शुरू हुई, जब खाने के तेल की कमी थी। लोगों ने देखा कि सोयाबीन से अच्छा तेल मिलता है, साथ ही इसमें खाने लायक प्रोटीन भी होता है, इसलिए इसकी खेती तेजी से बढ़ी।
सोयाबीन की खेती करना आसान था क्योंकि यह मक्का जैसी ही फसल थी और दूसरी फसलों के साथ अच्छी तरह उगाई जा सकती थी। युद्ध के बाद, अमेरिका के मक्का वाले इलाकों में इसकी खेती खूब होने लगी। 1950 से 1970 के बीच अमेरिका में सोयाबीन की खेती में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई, इतनी कि दुनिया की 75 प्रतिशत से ज्यादा सोयाबीन सिर्फ अमेरिका में ही उगने लगी। इस तरह, सोयाबीन धीरे-धीरे एक महत्वपूर्ण फसल बन गई, और आज यह दुनिया भर में खाई और इस्तेमाल की जाती है।
सोयाबीन की विशेषताएँ
सोयाबीन पौधे की विशेषताएँ नीचे दी गईं हैं :
पौधे की विशेषताएँ :
- पत्तियाँ: सोयाबीन के पौधे पर तिपतिया पत्तियाँ होती हैं। ये हरी और अंडाकार होती हैं। इनसे पौधा सूरज की रोशनी लेकर अपना खाना बनाता है और बढ़ता है।
- फलियाँ: सोयाबीन की फलियाँ छोटी और रोएँदार होती हैं। हर फली में आमतौर पर 2-4 दाने होते हैं। जब पौधा पूरी तरह बड़ा हो जाता है, तो फलियाँ भूरी हो जाती हैं और काटने के लिए तैयार हो जाती हैं।
- जड़ों पर गाँठें: सोयाबीन की जड़ों पर छोटी-छोटी गाँठें होती हैं। इन गाँठों में ऐसे जीवाणु होते हैं जो हवा से नाइट्रोजन लेकर पौधे के लिए खाना बना देते हैं।
- ऊँचाई: सोयाबीन का पौधा आमतौर पर 2-4 फीट तक ऊँचा होता है। इसका तना मजबूत होता है, इसलिए यह खेत में बिना किसी सहारे के सीधा खड़ा रह सकता है।
- फूल: सोयाबीन के पौधे पर छोटे-छोटे नाजुक फूल आते हैं। ये फूल आमतौर पर सफेद या बैंगनी रंग के होते हैं और तने पर गुच्छों में दिखाई देते हैं। इन्हीं फूलों से बाद में सोयाबीन की फलियाँ बनती हैं।
फसल की विशिष्टताएँ:
- जीवन चक्र: सोयाबीन एक सालाना फसल है। इसका पूरा जीवन एक ही मौसम में खत्म हो जाता है। यह अंकुरित होती है, बढ़ती है, दाने देती है और फिर मर जाती है। यह सब कुछ महज कुछ महीनों में होता है।
- तेजी से बढ़ने वाली फसल: सोयाबीन बहुत जल्दी बड़ी हो जाती है और थोड़े ही समय में फलियाँ दे देती है।
- मौसम के प्रति संवेदनशील: सोयाबीन को अच्छी पैदावार के लिए सही मात्रा में पानी और धूप की जरूरत होती है।
- बहुउपयोगी फसल: सोयाबीन से तेल, खाना, पशु आहार और कई औद्योगिक उत्पाद बनाए जाते हैं।
सोयाबीन की खेती के लिए आदर्श जलवायु और मिट्टी
जलवायु की आवश्यकताएँ: सोयाबीन की खेती गर्म और नम जलवायु में अच्छी तरह की जा सकती है। सोयाबीन के अंकुरण 15-32 सेल्सियस तथा वृद्धि और विकास के लिए 30-33 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूल होता है।
मिट्टी के प्रकार और तैयारी: इसकी खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है। मिट्टी में बीज कितनी गहराई में डाले जाने चाहिए। यह अलग-अलग फसलों के लिए अलग-अलग होता है। सही गहराई बीजों को ठीक से अंकुरित होने और मजबूत जड़ें विकसित करने में मदद करती है।
pH स्तर की आवश्यकता: मिट्टी का पीएच मान 6.0 से 7.5 सेल्सियस होना चाहिए। मिट्टी की अम्लता या क्षारीयता, जिसे 0-14 के पैमाने पर मापा जाता है। अलग-अलग फसलें अलग-अलग पीएच स्तर पसंद करती हैं। किसान अपनी फसलों को बेहतर तरीके से उगाने में मदद करने के लिए मिट्टी के पीएच को समायोजित करते हैं।
बुवाई की विधियाँ
बुवाई का सही समय : इसकी बुवाई का सर्वोतम समय जून से जुलाई मध्य तक माना जाता है। बुवाई के 20-40 दिनों के अंदर निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को नियंत्रित करना ज़रूरी है। खरपतवार खत्म करने के लिए कई तरह के केमिकल भी आते हैं, जिनका उपयोग किसान कर सकते हैं।
बुवाई की विधियाँ (मशीन द्वारा, हाथ से) :
पंक्तियों में बुवाई: किसानों को सोयाबीन को पंक्तियों में बोना चाहिए। इससे खरपतवार निकालना आसान हो जाता है। बुवाई के लिए सीड ड्रिल का इस्तेमाल करना चाहिए। इससे बीज और खाद एक साथ डाले जा सकते हैं।
विशेष बुवाई पद्धति: फरो इरिगेटेड रेज्ड बैड या ब्राड बैड पद्धति (बी.बी.एफ) से बुवाई करनी चाहिए। यह तरीका थोड़ा महंगा है, लेकिन इससे ज्यादा फायदा होता है।
मौसम से बचाव: इस तरीके से बोई गई फसल ज्यादा या कम बारिश में भी अच्छी रहती है। हर दो पंक्तियों के बीच एक गहरी और चौड़ी नाली बनाई जाती है। ज्यादा बारिश में पानी इन नालियों से बह जाता है और फसल ऊंची क्यारी पर सुरक्षित रहती है। कम बारिश में ये नालियां पानी जमा करके रखती हैं, जिससे पौधों को पानी मिलता रहता है।
पौधों का विकास: चौड़ी नालियों की वजह से हर पंक्ति को अच्छी धूप और हवा मिलती है। पौधों को फैलने के लिए ज्यादा जगह मिलती है। इससे ज्यादा शाखाएं, फूल और फलियां बनती हैं। नतीजतन, फसल की पैदावार बढ़ जाती है।
सुरक्षा: समतल खेत में ज्यादा बारिश होने पर पानी भर जाता है और फसल खराब हो जाती है। लेकिन इस तरीके से ऐसा नहीं होता।
इस तरह, यह बुवाई का तरीका सोयाबीन की फसल को कई तरह से फायदा पहुंचाता है और किसानों को अच्छी पैदावार देता है।
बीज की गुणवत्ता और चयन
सोयाबीन की अच्छी फसल के लिए सही बीज चुनना बहुत जरूरी है। हमेशा प्रमाणित बीज का इस्तेमाल करें। अगर आप अपने पिछले साल के बीज का उपयोग कर रहे हैं, तो उसे पहले अच्छी तरह से साफ और उपचारित कर लें। बाजार से बीज खरीदते समय सहकारी बीज भंडार से ही खरीदें और रसीद जरूर लें। इससे आपको पक्का प्रमाणित बीज मिलेगा।
बीज की मात्रा दानों के आकार पर निर्भर करती है। आम तौर पर, एक हेक्टेयर में 4 से 4.5 लाख पौधे होने चाहिए। छोटे दाने वाली किस्मों के लिए 60-70 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर काफी होता है। बड़े दाने वाली किस्मों के लिए 80-90 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है। याद रखें, अच्छी गुणवत्ता का बीज आपकी फसल की नींव है। इसलिए बीज चुनते समय सावधानी बरतें और सही मात्रा में बोएं। इससे आपको स्वस्थ पौधे मिलेंगे और अच्छी पैदावार होगी।
पोषण और खाद प्रबंधन :
सोयाबीन के लिए पोषक तत्व और खाद व प्राकृतिक और रासायनिक उर्वरक
- सोयाबीन की अच्छी फसल के लिए सही पोषण बहुत जरूरी है। इसमें प्राकृतिक और रासायनिक दोनों तरह के उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है। पर ध्यान रहे, रासायनिक उर्वरक हमेशा मिट्टी की जांच के बाद ही डालें।
- प्राकृतिक खाद में नाडेप खाद, गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट का इस्तेमाल करें। एक हेक्टेयर में 10-20 टन नाडेप या गोबर की खाद, या 5 टन वर्मी कम्पोस्ट डाल सकते हैं।
- रासायनिक उर्वरकों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश और सल्फर की जरूरत होती है। इनका संतुलित अनुपात 20:60-80:40:20 रखें। यानी, 20 किलो नाइट्रोजन, 60-80 किलो फॉस्फोरस, 40 किलो पोटाश और 20 किलो सल्फर प्रति हेक्टेयर। इन्हें आखिरी जुताई से पहले खेत में अच्छी तरह मिला दें।
- बीज बोने के 7 दिन बाद 50 किलो यूरिया प्रति हेक्टेयर डालें। इससे पौधों को नाइट्रोजन मिलेगा। अगर मिट्टी में जिंक की कमी है, तो 25 किलो जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर डालें।
याद रखें, हर खेत की मिट्टी अलग होती है। इसलिए अपने खेत की मिट्टी की जांच करवाकर ही सही मात्रा में खाद और उर्वरक डालें। इससे आपकी फसल स्वस्थ रहेगी और अच्छी पैदावार देगी।
सिंचाई प्रबंधन
सोयाबीन खरीफ की फसल है, यानी बरसात के मौसम में उगाई जाती है। इसलिए इसे ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती। लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है:
- सामान्य स्थिति:
– आमतौर पर बारिश का पानी ही काफी होता है।
– अगर फलियां बनते समय लंबा सूखा पड़ जाए, तो एक बार सिंचाई करनी पड़ सकती है।
– ध्यान रहे, खेत में पानी भरने न दें। यह फसल के लिए नुकसानदायक हो सकता है।
- आधुनिक सिंचाई तकनीक:
– आजकल किसान ड्रिप इरिगेशन या टपक सिंचाई का इस्तेमाल कर रहे हैं।
– यह तकनीक पानी, समय और पैसे की बचत करती है।
– खासकर जहां पानी की कमी है, वहां यह बहुत फायदेमंद है।
– इसे खेतों और बागों दोनों में आसानी से लगाया जा सकता है।
- सिंचाई का समय:
– बीज बोने के बाद अगर जरूरत हो तो हल्की सिंचाई करें।
– फूल आने और फलियां बनने के समय पौधों को पानी की ज्यादा जरूरत होती है। अगर बारिश न हो तो इस समय सिंचाई करें।
- सावधानियां:
– ज्यादा पानी देने से बचें। इससे जड़ें सड़ सकती हैं।
– अगर खेत में पानी भर जाए तो उसे निकालने का इंतजाम करें।
याद रखें, हर खेत की मिट्टी और जलवायु अलग होती है। अपने इलाके के कृषि विशेषज्ञ से सलाह लेकर सिंचाई का सही तरीका अपनाएं। सही समय पर सही मात्रा में पानी देने से आपकी सोयाबीन की फसल खूब फलेगी-फूलेगी।
खरपतवार, कीट और रोग प्रबंधन
सामान्य खरपतवार और उनके नियंत्रण के तरीके
सोयाबीन की खेती में इसके पौधों के बीच उगने वाले खरपतवार से सोयाबीन की फसल को नुकसान पहुंचता है। इसलिए बुवाई के 20-45 दिनों के भीतर इनका सही प्रबंधन ज़रूरी है।
खरपतवार के प्रकार :
चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार: इन खरपतवारों की पत्तियां चौड़ी होती हैं। यह मुख्य दो बीजपत्रीय पौधे होते हैं जैसे महकुंआ (अजेरेटम कोनीजाइडस), जंगली चौलाई (अमरेन्थस बिरिडिस), सफेद मुर्ग (सिलोसिया अजरेन्सिया), जंगली जूट (कोरकोरस एकुटैंन्गुलस), बन मकोय (फाइ जेलिस मिनिगा), ह्जारदाना (फाइलेन्थस निरुरी) तथा कालादाना (आइपोमिया स्पीसीज) आदि।
सकरी पत्ती वाले खरपतवार: इस घास की प्रजाति के खरपतवारों की पत्तियां पतली व लंबी होती हैं। इन पत्तियों के अंदर समांतर धारियां पाई जाती हैं। ये एक बीज पत्री पौधे होते हैं जैसे सांवक (इकाईनोक्लोआ कोलोना), कोदों (इल्यूसिन इंडिका) आदि।
मोथा परिवार के खरपतवार: इस प्रकार के खरपतवारों की पत्तियां लंबी और तना तीन किनारों वाला व सख्त होता है। जड़ों में गांठे होती हैं, जो भोजन एकत्र करके नए पौधों को जन्म देने में मदद करता है- जैसे मोथा (साइपेरस रोटन्ड्स, साइपेरस) आदि।
नियंत्रण के तरीके
साफ़-सफ़ाई और अच्छे बीज: खरपतवारों को रोकने के लिए बुवाई से पहले खेत को अच्छी तरह से साफ़ करें और सड़ी कंपोस्ट गोबर की खाद डालें। साथ ही प्रमाणित बीज़ों का ही इस्तेमाल करें।
निराई-गुड़ाई: सोयाबीन की फसल की बुवाई के 20-45 दिन के भीतर खरपतवारों की वृद्धि अधिक होती है। ऐसे में उन्हें रोकने के लिए पहली निराई-गुड़ाई 20-25 दिन बाद और दूसरी 40-45 दिन बाद करनी चाहिए। निराई-गुराई के लिए व्हील हो या ट्रिवन व्हील हो जैसे प्रयोग किया जा सकता है।
केमिकल: खरपतवारों को रोकने के लिए जिन केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है उसे खरपतवारनाशी (हरबीसाइड) कहते हैं। साथ ही सोयाबीन की चारामार (खरपतवार नाशक) दवा भी कहा जाता है। इन केमिकल के इस्तेमाल से प्रति हेक्टेयर लागत कम आती है और समय की भी बचत होती है, लेकिन इनका इस्तेमाल करते समय मात्रा को लेकर सावधानी बरतें, वरना नुकसान भी हो सकता है। सोयाबीन की चारामार दवा यानी कि खरपतवारनाशी कई प्रकार के होते हैं। इसकी मात्रा और किसी तरह से इस्तेमाल करना है, इसके संबंध में आप किसी कृषि विशेषज्ञ से सलाह ले सकते हैं।
खरपतवारनाशी केमिकल का इस्तेमाल करते समय बरतें ये सावधानियां
- सभी खरपतवारनाशी केमकिल के डिब्बों पर दिशा-निर्देश लिखे होते हैं। उन्हें ध्यान से पढ़ने के बाद ही इसका इस्तेमाल करें।
- समय पर छिड़काव करना ज़रूरी है। समय से पहले या बाद में छिड़काव करने पर फ़ायदे की बजाय नुकसान हो सकता है।
- इनका पूरे खेत में एक समान छिड़काव करना चाहिए।
- इनका छिड़काव तेज़ हवा के बीच नहीं करना चाहिए।
- छिड़काव करते समय शरीर, चेहरे व आंखों को पूरी तरह से ढंक लें। केमिकल शरीर के संपर्क में नहीं आना चाहिए।
- छिड़काव करने के बाद हाथ और मुंह अच्छी तरह से साबुन से धो लें।
सोयाबीन की फसल को हानिकारक कीटों से कैसे बचाएं? जानें पौध सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. प्रदीप कुमार द्विवेदी से
डॉ. प्रदीप कुमार द्विवेदी ने बताया कि सोयाबीन की फसल पर लगभग सभी राज्यों में कीटों का प्रकोप देखा जाता है। किसान अक्सर कीटों की सही समय पर पहचान नहीं कर पाते हैं, जिससे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में अगर सही समय पर कीटों की पहचान कर, रोकथाम के सही उपाय किए जाए तो सोयाबीन की फसल को नुकसान से बचाया जा सकता है।
प्रमुख कीट और उनकी पहचान व रोग और उनके उपचार
- सोयाबीन में लगने हानिकारक कीटों में से एक गर्डल बीटल है। ये पीले रंग की इल्ली होती है, जो सोयाबीन की पत्तियां और तने को काफ़ी नुकसान पहुंचाती हैं। इस कीट की इल्ली अंडे से निकलकर तने के अंदर रहकर पौधों को खाती रहती है। इससे पौधे की ऊपरी पत्तियां सूखने लगती हैं और तना व टहनियां मुरझाने लगती हैं। इसका प्रकोप जुलाई से लेकर अक्टूबर तक रहता है। इसके नियंत्रण के लिए थायोक्लोरोपिड 21.7 एस एस की 750 मिलीलीटर दवा या प्रोपोकोनोफास 50 ईसी की 1.25 लीटर दवा का प्रति हेक्टेयर में छिडकाव करना चाहिए।
- सोयाबीन की फसल के सबसे हानिकारक कीटों में सेमीलूपर कीट भी आता है। इनकी इल्लियां सोयाबीन की पत्तियां खाती हैं। शुरू में इल्लियां पत्तियों पर छोटे-छोटे छेद बनाकर खाती हैं और बड़ी होने पर पत्तियों में बड़े-बड़े अनियमित आकार के छेद कर देती हैं। इसके बाद, इनका प्रकोप कलियों, फूलों व नव-विकसित कलियों पर पड़ता है। इससे फसल को भारी क्षति होती है। इस कीट का प्रकोप फूल आने से पहले और फली लगने की अवस्था में ज़्यादा होता है। अगर किसान को प्रति मीटर में चार इल्लियां दिखाई दें तो नियंत्रण के लिए केमिकल दवा इमामेक्टिन बेंजोएट 1.9 ई.सी. की 450 मिली लीटर दवा या स्पायनेटोरम 11.7 एस.एसी की 450 मिलीलीटर दवा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
- सोयाबीन की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों में तना मक्खी यानी स्टेम फ़्लाई एक प्रमुख कीट है। ये साधारण चमकीले काले रंग की होती है। पूर्ण विकसित इल्ली हल्के पीले रंग की होती है। यह इल्ली तने में पहुंचकर टेढ़ी-मेढ़ी सुरंग बनाकर तने को खाती है। इस प्रकार के प्रकोप से सबसे अधिक नुकसान अंकुरण के 7 से 10 दिनों में होता है। इस रोग से ग्रसित पौधे पूरे के पूरे सूख जाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए केमिकल दवा बीटासायफ्लुथ्रिन 8.49 + इमिडोक्लोप्रिड 19.81 फ़ीसदी ओडी की 350 मिली लीटर दवा का प्रति हेक्टेयर में प्रयोग करना चाहिए।
- टोबैको कैटरपिलर छोटे मटमैले रंग के कीट होते हैं। ये सोयाबीन की फसल में पत्तियों पर रहकर हरे भाग को कुतर-कुतर के खाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां एकदम जाली दार हो जाती हैं। इसके कीट का अटैक फूल बनने के पहले और फली लगने के समय ज़्यादा होता है। अगर प्रति वर्गमीटर तीन इल्ली दिखाई दें तो इसके नियंत्रण के लिए रासायनिक दवा इमामेक्टिन बेन्जोएट 5 एस जी की 200 ग्राम दवा या फ्लूबेनडामाइड 39.35 एससी की 150 मिली लीटर दवा को पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
जैविक कीटनाशकों से करे नियंत्रण
डॉ. प्रदीप कुमार द्विवेदी ने कहा कि कीटों की इल्लियों के नियंत्रण के लिए जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए। जब कीटों की इल्लियां छोटी अवस्था में होती है, तब जैविक कीटनाशकों के प्रयोग से बेहतर परिणाम मिलते हैं। बीटी नामक जैविक कीटनाशक को एक लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए। इससे इल्लियां सुस्त होकर दो से तीन दिन में मर जाती हैं।
फफूंद से बनाए गए जैविक कीटनाशक ब्यूबेरिया वैसियाना की एक किलों ग्राम मात्रा का प्रति हेक्टयर में छिड़काव करना चाहिए। इस दवा के प्रयोग से इल्लियों के सारे अंग नष्ट हो जाते हैं। वायरस से बनाई गई जैविक दवा एनपीबी 250 ग्राम का छिड़काव करने से इल्लियां मरने लगती हैं। इस तरह इन जैविक कीटनाशकों का प्रयोग कर कम लागत में कीटों का नियंत्रण किया जा सकता है।
हानिकारक कीटों के नियंत्रण के लिए कृषि यंत्रों का इस्तेमाल
पौध सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. द्विवेदी ने कहा कि फेरोमोन ट्रेप या प्रकाश प्रपंच यानी कि लाइट ट्रैप के इस्तेमाल से भी कीटों के प्रकोप को कम किया जा सकता है। लाइट ट्रैप के पास कीट प्रकाश की तरफ़ आकर्षित होकर आते हैं। फिर नीचे पानी भरे टब या जाल में फंस जाते हैं।यह सोयाबीन की फसल में कीटों के प्रकोप को कम करने के लिए एक प्रमुख यंत्र है। इससे सोयाबीन पर आक्रमण करने वाले कीटों की जानकारी भी मिल जाती है।
सेमीलूपर की इल्ली व तम्बाकू की इल्ली के लिए प्रति हेक्टेयर 10-12 फेरोमोन ट्रैप (Pheromone Trap) प्रभावी होते हैं। उन्होंने बताया कि कई प्रकार के भक्षी पक्षियों का प्रमुख भोजन इल्लियां होती हैं। ये पक्षी फसल में से इल्लियों को खाते रहते हैं। इन पक्षियों के बैठने के लिये अगर खेत में 15–20 खूटियाँ या सूखी झाड़ियां प्रति हेक्टेयर लगा दी जाएं तो इन पक्षियों की गतिविधियां बढ़ जाती हैं। ये पक्षी इल्लियों को खाकर सोयाबीन की फसल को कीटों से सुरक्षित रखती हैं।
फसल की देखभाल
सोयाबीन की फसल की सही देखभाल करना बहुत जरूरी है। इससे फसल की गुणवत्ता और पैदावार दोनों में सुधार होता है। नियमित रूप से मिट्टी की नमी और पोषण स्तर की जांच करें।
पर्णधारक देखभाल : पौधों के पत्तों की सही देखभाल से फसल स्वस्थ रहती है। पत्तों की सफाई और कीटों से सुरक्षा पर ध्यान दें।
पौधों की छंटाई और समर्थन : पौधों की छंटाई से उनके विकास को बढ़ावा मिलता है। कमजोर या सूखे भागों को हटाएं और पौधों को सहारा देने के लिए सही समर्थन प्रणाली का उपयोग करें। इससे फसल मजबूत और उपजाऊ बनेगी।
फसल की कटाई और प्रसंस्करण
सोयाबीन की कटाई और उसके बाद का प्रबंधन बेहद जरूरी है। इससे आपकी मेहनत का पूरा फल मिलता है। आइए जानें कैसे करें सही कटाई और प्रसंस्करण:
- कटाई का सही समय:
– सोयाबीन की फसल को पकने में 50 से 145 दिन लगते हैं। यह समय किस्म पर निर्भर करता है।
– फसल पकने पर पत्तियां पीली हो जाती हैं और फलियां सूख जाती हैं।
– कटाई के समय बीजों में नमी 15% के आसपास होनी चाहिए।
- कटाई की विधियाँ:
– छोटे खेतों में हाथ से कटाई की जा सकती है।
– बड़े खेतों के लिए कंबाइन हार्वेस्टर का उपयोग किया जाता है।
– सुबह की ओस सूखने के बाद ही कटाई शुरू करें।
- कटाई के बाद का प्रसंस्करण:
– कटी हुई फसल को 2-3 दिन खेत में सुखाएं।
– थ्रेशिंग (दाने निकालना) मशीन से या हाथ से की जा सकती है।
– दानों को अच्छी तरह साफ करें और छांट लें।
- भंडारण:
– दानों को अच्छी तरह सुखाकर ही भंडारित करें।
– साफ और कीट-मुक्त बोरों या कंटेनरों में रखें।
– भंडारण स्थान सूखा और हवादार होना चाहिए।
- सावधानियां:
– देर से कटाई करने पर दाने झड़ सकते हैं।
– बारिश के मौसम में कटाई से बचें। इससे दानों की गुणवत्ता खराब हो सकती है।
याद रखें, सही समय पर की गई कटाई और अच्छा प्रसंस्करण आपकी फसल की गुणवत्ता और मूल्य बढ़ाता है। अपने स्थानीय कृषि विशेषज्ञ से सलाह लेकर अपनी किस्म और क्षेत्र के हिसाब से सबसे अच्छी विधि अपनाएं।
सोयाबीन की स्वर्ण वसुंधरा किस्म के बारे में जानकारी
सोयाबीन की पारंपरिक खेती देश के कुछ ही इलाकों में होती है, लेकिन बढ़ती मांग और ज़रूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से कृषि वैज्ञानिक इसकी अन्य किस्मों को भी ईज़ाद कर रहे हैं। ऐसी ही एक उन्नत किस्म का नाम स्वर्ण वसुंधरा है। सोयाबीन की ये उन्नत किस्म रांची स्थित कृषि प्रणाली अनुसंधान केंद्र में विकसित की गई है।
सोयाबीन की ये किस्म जल्द तैयार हो जाती है। इसकी फसल हरी फली बुवाई के बाद 70 से 75 दिनों में पहली कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इनके पौधे भी कीट प्रतिरोधी क्षमता वाले होते हैं। यह किस्म प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड, आवश्यक फैटी एसिड, फास्फोरस, लोहा, कैल्शियम, जस्ता, थियामिन, राइबोफ्लेविन, विटामिन-ई, आहार फाइबर और चीनी का एक बहतरीं स्रोत है। गोले वाली हरी फली का इस्तेमाल स्वादिष्ट पकी हुई सब्जियों के रूप में किया जाता है और परिपक्व सूखे बीजों का उपयोग प्रोसेस्ड खाद्य उत्पादों को बनाने में किया जाता है।
कम लागत में कई गुना मुनाफ़ा
स्वर्ण वसुंधरा सोयाबीन की एक एकड़ खेती की लागत 30 हज़ार रुपये है जबकि लाभ 2 लाख 70 हज़ार रुपये है। महाराष्ट्र के रहने वाले किसान चंद्रकांत देशमुख स्वर्ण वसुंधरा सोयाबीन की ही खेती करते हैं। इस नए बीज की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने सबसे पहले 10 एकड़ में इसकी खेती शुरू की, जिसमें उन्हें प्रति एकड़ 30 हज़ार की लागत आई। लागत में भूमि का पट्टा मूल्य, भूमि की तैयारी, खाद एवं उर्वरक, सिंचाई, परस्पर संचालन, कीटनाशक, कटाई, आदि सम्मिलित है। फसल तैयार होने के बाद उन्हें प्रति एकड़ 15 क्विंटल की उपज मिली।
इस तरह उन्हें प्रति एकड़ से ही तीन लाख रुपये की आय अर्जित हुई और एक एकड़ में उन्हें 2 लाख 70 हज़ार का सीधा मुनाफ़ा मिला। वहीं स्वर्ण वसुंधरा की एक क्विंटल फसल से 225 किलो सोया पनीर तैयार किया जा सकता है, जिसे बनाने का खर्च 13 हज़ार तक पड़ता है। इसी 225 किलो सोया पनीर को जब बाज़ार में बेचते हैं तो सीधा 54,500 का मुनाफ़ा होता है। स्वर्ण वसुंधरा की फसल से कई अन्य उत्पाद दही, छेना, गुलाब जामुन, आइसक्रीम आदि भी तैयार किए जाते हैं। इस तरह से सोयाबीन की यह किस्म कम लागत में अधिक आय अर्जित करने का बेहतरीन विकल्प है।
आर्थिक पहलू और बाजार विश्लेषण
सोयाबीन की खेती में आर्थिक पहलू समझना बहुत जरूरी होता है। सही बाजार विश्लेषण से किसान अपनी फसल का सही मूल्य जान सकते हैं और बेहतर लाभ कमा सकते हैं।
उत्पादन लागत : सोयाबीन की उत्पादन लागत को कम करने से लाभ बढ़ता है। सही तकनीक और साधनों का उपयोग करके किसान अपनी लागत को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सकते हैं।
बाजार में कीमतें और बिक्री की रणनीतियाँ : बाजार में सोयाबीन की कीमतों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। सही बिक्री रणनीतियों से किसान फसल को बेहतर दाम पर बेच सकते हैं और अपने मुनाफे को बढ़ा सकते हैं।
भविष्य की संभावनाएँ और अनुसंधान
सोयाबीन की खेती का भविष्य बहुत आशाजनक है। नई तकनीकें और शोध इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव ला रहे हैं। बेहतर फसल के लिए नई तकनीकों से उत्पादन बढ़ेगा, और रोग प्रतिरोधी किस्में विकसित की जा रही हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के अनुकूल प्रजातियाँ भी आ रही हैं, जो किसानों की मदद करेंगी। पोषण और गुणवत्ता में सुधार के लिए वैज्ञानिक बेहतर पोषण वाली सोयाबीन पर काम कर रहे हैं, जिससे बाजार में मांग बढ़ेगी और किसानों को अधिक लाभ मिलेगा।
सोयाबीन की खेती में नवाचार :
सोयाबीन की खेती में नए विचार और तकनीकें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। आधुनिक तरीकों में जैविक खेती शामिल है, जो पर्यावरण को फायदा पहुंचाती है, और स्मार्ट सिंचाई से पानी की बचत होती है। नई बीज प्रजातियाँ भी बेहतर उपज दे रही हैं। इन नवाचारों से किसानों को उत्पादन में वृद्धि, बेहतर गुणवत्ता, और पर्यावरण अनुकूल तरीके अपनाने का मौका मिल रहा है। किसानों को इन नई तकनीकों को अपनाकर सोयाबीन की खेती को और अधिक लाभदायक बनाना चाहिए, जिससे उनकी आय बढ़ेगी और पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिलेगी।
सोयाबीन की खेती में सफलता की कहानियाँ (Success Stories in Ginger Farming)
कहानी 1
सोयाबीन की उन्नत किस्मों के साथ ही अगर मिट्टी की जांच के बाद ऊर्वरकों का इस्तेमाल किय जाए तो सोयाबीन की फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। सोयाबीन की फसल में सल्फर के उपयोग के बाद न सिर्फ़ उत्पादन में बढ़ोतरी हुई, बल्कि बीजों में तेल की मात्रा भी बढ़ी।
देवास ज़िले के कुलाला गांव की रहने वाली महिला किसान चंद्रकला यादव ने यही किया। उन्होंने सबसे पहले खेत की मिट्टी की जांच करवाई। उसके बाद सल्फर का इस्तेमाल किया। चंद्रकला यादव ने सोयाबीन की किस्म जेएस- 2034 पर द्वितीय पोषक तत्व सल्फर का प्रयोग किया।
फ़्रंट लाइन डेमोंस्ट्रेशन में सल्फर के इस्तेमाल से प्रति हेक्टेयर 20.78 क्विंटल फसल प्राप्त हुई, जबकि सामान्य तरीके से उत्पादन में 17.36 क्विंटल की फसल प्राप्त हुई। सोयाबीन में 40 प्रतिशत प्रोटीन और 20 प्रतिशत तेल होता है। हमारे देश में इसका सबसे अधिक उत्पादन मध्यप्रदेश में होता है, तभी तो इसे सोया स्टेट के नाम से जाना जाता है।
सल्फर से बढ़ा उत्पादन
सोयाबीन से ज़्यादा उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसानों को मिट्टी की जांच के आधार पर मुख्य, द्वितीय और सूक्ष्म तत्वों के इस्तेमाल की सलाह दी गई। कृषि विज्ञान केन्द्र, देवास ने सोयाबीन की फसल में सल्फर के उपयोग के लिए फ्रंट लाइन डेमोंस्ट्रेशन की योजना बनाई। इसके तहत महिला किसान चंद्रकला यादव को ट्रेनिंग दी। साथ ही पोषक तत्वों की अहमियत भी समझाई। फिर उनके खेत की मिट्टी की जांच की गई, जिससे पता चला की उसमें सल्फर की कमी है।
फिर फ्रन्ट लाइन डेमोंस्ट्रेशन के लिए उनके खेत का चुनाव किया गया और सल्फर का इस्तेमाल किया गया। इस बीच कृषि विज्ञान केन्द्र के अधिकारी समय-समय पर उनके खेत का दौरा करते और उन्हें ज़रूरी सलाह देते। सल्फर के इस्तेमाल से फसल में बढ़ोतरी देखी गई। परंपरागत खेती की तुलना में इससे 28.77 प्रतिशत अधिक उत्पादन प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं, रिसर्च में ये भी सामने आया कि बुवाई के समय सल्फर के इस्तेमाल से दानों में तेल की मात्रा भी बढ़ी।
तिलहनी फसलों के लिए फ़ायदेमंद है सल्फर
चंद्रकला के खेत में 2018 में हुए फ्रंट लाइन डेमोंस्ट्रेशन में प्रति हेक्टेयर 20 किलो के हिसाब से सल्फर का इस्तेमाल किया गया। चंद्रकला सोयाबीन के साथ ही चना और गेहूं की भी खेती करती हैं। पहले वो सिर्फ़ नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश का ही इस्तेमाल करती थीं, जिससे उत्पादन अच्छा नहीं होता था, लेकिन सल्फर के उपयोग के बाद उनके उत्पादन में अच्छा सुधार हुआ। इससे साबित होता है कि द्वितिय पोषक तत्वों का उत्पादन बढ़ाने में अहम भूमिका है।
कहानी 2
मिट्टी में अधिक नमी की वजह से फंगस लगने या एक साथ अधिक बीज होने की वजह से भी सोयाबीन के बीजों को नुकसान पहुंचता है। ऐसे में मध्य प्रदेश रीवा स्थित कृषि विज्ञान केंद्र ने ख़ास तरीके से सोयाबीन के बीज को उपचारित करने की तकनीक के बारे में किसानों को जागरूक किया।
दरअसल, बिना उपचारित बीज बोने से फसल की उत्पादकता भी कम होती है और गुणवत्ता भी अच्छी नहीं होती। ऐसे में कृषि विज्ञान केंद्र ने अधिक फसल प्राप्त करने और बीजों को खराब होने से बचाने के लिए बुवाई से पहले सोयाबीन के बीज प्रबंधन के लिए एक कार्यक्रम का खाका तैयार किया।
बुवाई से पहले सोयाबीन का बीज प्रबंधन
कृषि विज्ञान केंद्र ने ‘सोयाबीन में बुवाई के पूर्व बीज प्रबंधन’ पर एक कार्यक्रम चलाया। इसके अंतर्गत किसानों को बीज प्रबंधन पर ट्रेनिंग दी गई। इसके लिए बाकायदा मॉडल लगाया गया और किसानों से सीधे संपर्क किया गया।
बीजों को किया उपचारित
कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा गोद लिए गए गाँव लक्ष्मणपुर की महिला किसान कलावती पटेल ने बताया कि बीजों के अंकुरण का परीक्षण लेने के के लिए 100 बीज लिए गए। इसमें से 99 बीज अंकुरति हुए। इस नतीजे को देखकर वो उत्साहित हुई। फिर प्रति एकड़ 32 किलो बीज की बुवाई की।
कलावती ने बुवाई से पहले बीजों को 96 ग्राम बाविस्टिन फंगीसाइड और 200 ग्राम राइजोबियम और 600 ग्राम पीएसबी कल्चर से उपचारित किया। ऐसा उन्होंने पहले कभी नहीं किया था। इसके अलावा, उन्होंने पंक्ति से पंक्ति की दूरी 14 इंच रखी।बीजों को उपचारित करने और पंक्तियों के बीच दूरी के अलावा, बाकी फसल का प्रबंधन पहले की ही तरह किया गया। जब इस तरीके से बीज प्रबंधन के नतीजे फसल के रूप में सामने आए तो हर कोई हैरान रह गया।
बढ़ी उत्पादकता
पौधों में तनों का फैलाव, तनों की संख्या और फलियों की संख्या और चमक बेहतरीन आई। कलावती ने प्रति एकड़ 9.5 हेक्टेयर सोयाबीन की फसल प्राप्त की, जबकि अन्य किसानों को मात्र 4.5 क्विंटल प्रति एकड़ फसल प्राप्त हुई। जिन किसानों ने पहले की तरह ही पंक्ति से पंक्ति की दूरी 9 इंच रखी थी, उनके पौधों का विकास अच्छा नहीं रहा।
कलावती और उनके पति इस नई तकनीक से सोयाबीन की खेती करके बहुत खुश हैं। उनके फ़ार्म पर कई किसान दौरा करने आते हैं। मीटिंग और ट्रेनिंग के ज़रिए भी किसानों की मदद करते हैं ताकि किसान बीजों से होने वाले नुकसान से बच जाए और अपनी फसल से अधिक मुनाफ़ा प्राप्त कर सकें।
कहानी 3
पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर रहे योगेंद्र सिंह पवार किसान परिवार से ही आते हैं। योगेंद्र सिंह बताते हैं कि उन्होंने अपने परिवार को शुरू से खेती-किसानी के कार्य करते देखा है, तो लिहाज़ा इस क्षेत्र की तरफ़ रुझान भी स्वाभाविक रहा। कहीं और नौकरी करने के बजाय, उन्होंने सोचा क्यों न अपने परिवार के ही पुश्तैनी काम को आगे बढ़ाया जाए। 50 साल के योगेंद्र यादव पवार करीबन पिछले 28 साल से खेती कर रहे हैं।
सोयाबीन अनुसंधान केंद्र और कृषि वैज्ञानिकों का पूरा सहयोग मिला
योगेंद्र सिंह पवार बताते हैं कि जब उन्होंने 1992 में खेती को ही अपना व्यवसाय चुनने का फैसला किया, उस दौरान सोयाबीन अनुसंधान केंद्र और कृषि वैज्ञानिकों का पूरा सहयोग मिला। वह उनके संपर्क में रहे और खेती की उन्नत तकनीकों के बारे में जाना। दिल्ली, गांधीनगर से लेकर पुणे तक कृषि से जुड़ी गतिविधियों में हिस्सा लेने का अवसर मिला।
सोयाबीन की उन्नत किस्मों की खेती
योगेंद्र सिंह पवार 22 हेक्टेयर क्षेत्र में सोयाबीन की खेती कर रहे हैं। जेएस 21-72 (JS-21-72), आरवीएसएम 1135 (RVSM 1135), आरवीएस 2024 (RVS 2024) और एनआरसी 142 (NRC 142) सहित सोयाबीन की कुल 6 किस्मों का वो उत्पादन लेते हैं।
सोयाबीन की खेती में लागत और उत्पादन
योगेंद्र सिंह पवार ने बताया कि सोयाबीन की खेती में प्रति हेक्टेयर करीबन 50 हज़ार की लागत आती है। जलवायु अनुकूल रहा तो प्रति हेक्टेयर 15 से 20 क्विंटल का उत्पादन रहता है। प्रति हेक्टेयर करीबन 25 से 30 हज़ार रुपये का मुनाफ़ा रहता है।
क्या हैं चुनौतियां?
योगेंद्र सिंह पवार कहते हैं कि पिछले तीन साल में पर्यावरण और जलवायु की बदलती परिस्थियों का नकारात्मक असर सोयाबीन की फसल पर पड़ा है। मध्य प्रदेश में कई किस्मों में बीमारियों के प्रकोप से फसलों को नुकसान पहुंचा है। हालात ये रहे कि पिछले साल प्रति हेक्टेयर 7 से 8 क्विंटल का ही उत्पादन रहा। योगेंद्र सिंह पवार ने बताया कि बोने के एक महीने तक बरसात ही नहीं पड़ी। इससे भारी नुकसान पहुंचा।
योगेंद्र सिंह आगे कहते हैं कि मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में 90 फ़ीसदी से ज़्यादा फसल सोयाबीन की ही लगी है। वहीं उनके क्षेत्र में तो लगभग 100 फ़ीसदी किसान सोयाबीन की ही खेती से जुड़े हैं। फसल चक्र अपनाने में कई दिक्कतें आती हैं।
क्या हो सकता है समस्या का समाधान?
योगेंद्र सिंह कहते हैं कि इस तरह की किस्में विकसित की जाए, जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अच्छी हो। जलवायु परिवर्तन हो रहा है, लेकिन किसान अभी भी 15 से 20 साल पुरानी किस्में लगा रहे हैं। किसानों तक उन्नत किस्मों के बीज पहुंच नहीं पाते। किस्में रिलीज़ तो हो जाती हैं, लेकिन किसान तक पहुंचने में उसे या तो देर हो जाती है या बीज उपलब्ध ही नहीं रहते। समय सीमा और उत्पादन क्षमता का तालमेल सही होगा तभी किसान सोयाबीन की अच्छी फसल ले सकते हैं। इस चुनौती पर चिंतन से काम करना ज़रूरी है।
सोयाबीन की खेती में इन बातों का रखें ध्यान
- सोयाबीन के बीजों का रखरखाव अच्छे से करें। उनका अंकुरण अच्छे से होना चाहिए।
- नुकसान की आशंका को कम करने के लिए बीजों का जर्मिनेशन टेस्ट करें।
- बिना बीज उपचारित किए सोयाबीन की फसल न लगाएं।
- सलाह लेकर आवश्यकतानुसार दवाइयों का छिड़काव करें।
- खरपतवार को सोयाबीन की फसल के पास न पनपने दें। बचाव के लिए खरपतवार नाशकों का प्रयोग कर सकते हैं।
सोयाबीन की खेती में पंक्ति से पंक्ति की दूरी तकरीबन 35 सेंटीमीटर रखी जाती है। जो किस्म लंबे समय वाली होती हैं यानी कि 100 दिन से ज़्यादा दिनों में तैयार होती है, उनमें पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेंटीमीटर रखी जाती है। वहीं पौधे से पौधे की दूरी 3 से 4 इंच के आसपास होती है।
सही और पूरी जानकारी के बाद ही शुरू करें सोयाबीन की खेती
योगेंद्र सिंह पवार गेहूं और चने की भी खेती करते हैं। उन्होंने बताया कि गेहूं की उन्नत किस्मों के चुनाव से उनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 90 क्विंटल तक भी गया है।
योगेंद्र सिंह पवार भावी किसानों को सलाह देते हैं कि अधूरे ज्ञान के साथ सोयाबीन की खेती न करें। उन्नत तकनीक से लेकर उन्नत बीज और सावधानियां क्या बरतनी चाहिए, उसकी पूरी जानकारी जुटाएं। बता दें कि योगेंद्र सिंह पवार को उनके कृषि कार्यों के लिए कई सम्मानों से भी नवाज़ा जा चुका है।
निष्कर्ष
सोयाबीन की खेती के लाभ :
सोयाबीन की खेती कई तरह से फायदेमंद है। सबसे पहले, यह किसानों को अच्छा मुनाफा देती है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होती है। सोयाबीन की मांग बढ़ रही है, इसलिए इसकी कीमतें भी अच्छी रहती हैं।
सोयाबीन प्रोटीन से भरपूर होती है, जो पशुओं के लिए अच्छा चारा है। इससे दूध उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है। इसके अलावा, सोयाबीन की खेती से मिट्टी की सेहत में सुधार होता है। यह मिट्टी में नाइट्रोजन जोड़ती है, जिससे अन्य फसलों के लिए जमीन उपजाऊ रहती है। आखिर में, सोयाबीन की खेती का पर्यावरण पर भी सकारात्मक असर होता है। यह जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद करती है और कृषि में विविधता लाती है। इसलिए, सोयाबीन की खेती सिर्फ पैसे कमाने का तरीका नहीं, बल्कि यह पर्यावरण और कृषि के लिए भी बहुत जरूरी है।
सोयाबीन की खेती (Soyabean ki Kheti) पर अक्सर पूछे जाने वाले सवाल
सवाल : 1 एकड़ में कितना सोयाबीन बोना चाहिए?
जवाब: सोयाबीन की बुवाई के लिए, बीजों के आकार के आधार पर प्रति एकड़ 30-40 किलोग्राम बीज या प्रति बीघा 15-20 किलोग्राम बीज का उपयोग करना सही रहता है। इससे फसल की अच्छी पैदावार सुनिश्चित होती है।
सवाल : सोयाबीन की फसल कितने दिन की होती है?
जवाब: सोयाबीन की फसल को पकने में 50 से 145 दिन लगते हैं, और यह मुख्यतः किस्म पर निर्भर करता है। जब फसल पूरी तरह तैयार हो जाती है, तो उसकी पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और फली जल्दी सूख जाती है। कटाई के समय बीजों में नमी की मात्रा लगभग 15 प्रतिशत होनी चाहिए, ताकि फसल की गुणवत्ता बनी रहे।
सवाल : सोयाबीन की बुवाई का सही समय क्या है?
जवाब: सोयाबीन की बुवाई मुख्यतः खरीफ सीजन में की जाती है, और यह जून के पहले सप्ताह से शुरू होती है। हालाँकि, सर्वोत्तम बुवाई का समय जून के तीसरे सप्ताह से लेकर जुलाई के मध्य तक होता है। इस समय पर बुवाई करने से फसल की वृद्धि में सुधार होता है।
सवाल : 15 16 सोयाबीन कितने दिन में पकती है?
जवाब: यह सोयाबीन की किस्म 90 से 95 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इस अवधि में सही देखभाल और मौसम की स्थिति जरूरी होती है।
सवाल : 1135 सोयाबीन की कितने दिन की उम्र है?
जवाब: 1135 सोयाबीन एक अनुसंधान किस्म है, जो लगभग 95 से 100 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म की विशेषताएँ इसे अन्य किस्मों से अलग बनाती हैं।
सवाल : 9560 सोयाबीन की उम्र कितनी है?
जवाब: 9560 किस्म की सोयाबीन 85 से 90 दिनों के भीतर पककर तैयार होती है। यह फसल जल्दी तैयार हो जाती है, जिससे किसान जल्दी मुनाफा कमा सकते हैं।
सवाल : सोयाबीन में यूरिया कब डालें?
जवाब: यूरिया को अंतिम जुताई से पहले डालकर मिट्टी में अच्छे से मिलाना चाहिए। इसके अलावा, अंकुरण के सात दिन बाद 50 किलोग्राम यूरिया डोरे के साथ डालना जरूरी है। इससे नाइट्रोजन की पूर्ति होती है, जो फसल की वृद्धि के लिए जरूरी होता है।
सवाल : एक बीघा में कितनी सोयाबीन बोई जाती है?
जवाब: सोयाबीन की बुवाई की मात्रा क्षेत्र के अनुसार भिन्न होती है। इसलिए, यदि आप सोयाबीन की खेती कर रहे हैं, तो अपने क्षेत्र की विशेषताओं को ध्यान में रखें, ताकि आप सही मात्रा में बुवाई कर सकें।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।
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