हमारे देश में बसंत के मौसम में पके बेर बाज़ार में खूब मिलते हैं। पके बेर को फल के रूप में खाने के अलावा बेर से पेय पदार्थ, कैंडी आदि भी बनाई जाती है। बेर में मैग्नीशियम, जस्ता, विटामिन ए, सी, और कैल्शियम होता है। क्या आप जानते हैं कि भारत के अलावा चीन में भी बड़े पैमाने पर बेर की खेती की जाती है। भारत में बेर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र में उगाया जाता है।
बेर की खेती को कम पानी की ज़रूरत होती है। इसलिए बेर की खेती कम बारिश वाले इलाक़ों में और शुष्क जलवायु में की जाती है। बेर की खेती करने में ज़्यादा खर्च नहीं होता है और किसानों को मुनाफा अच्छा मिलता है। इसलिए किसानों के लिए ये फायदेमंद है। बेर की खेती सीधे बीज बोकर या कलम से पौधे उगाकर की जाती है।
बीज वाली खेती में पैदावार देरी से होती है, इसलिए जल्दी और अधिक पैदावार के लिए कलम लगाकर खेती करना फायदेमंद होता है। साथ ही इसकी खेती में कलिकायन तकनीक अपनाने से ज़्यादा और अच्छे फल मिलते हैं।
मिट्टी और जलवायु
बेर की खेती बंजर भूमि में भी की जा सकती है, क्योंकि इसे बहुत ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती है। शुष्क और अर्ध-शुष्क इलाकों के लिए इसकी खेती बेहतरीन है। व्यवसायिक स्तर पर इसकी खेती करने की सोच रहे हैं, तो बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त है और मिट्टी का pH मान 5.5 से 8.00 तक होना चाहिए। पौधों की रोपाई के समय तापमान 20 से 22 डिग्री सेल्सियस और विकास के समय 25 से 35 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। बेर का पौधा अधिकतम 45 डिग्री तक का तापमान सहन कर सकता है।
बेर की कुछ उन्न किस्में इस प्रकार हैं
गोला, थाई आर जे, काला गोरा, जेडीजी 2, सनौर 2, बनारसी कड़ाका, सेव, उमरान, कैथली आदि। बेर का पौधा एक बार अच्छी तरह से लग जाए तो 50-60 साल तक पैदावार होती है। इसलिए ज़रूरी है कि पौधों की रोपाई से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लिया जाए। पौधों को खेत में गड्डा बनाकर लगाया जाता है। खेत की अच्छी तरह जुताई के बाद कुछ समय धूप लगने के लिए छोड़ दिया जाता है। बेर के फल बरसात और गर्मी के मौसम में ही लगते हैं।
कलिकायन तकनीक से खेती
बेर की खेती सीधे खेतों में बीज बोने की बजाय नर्सरी में कलिकायन तकनीक से पौधे तैयार करके की जानी चाहिए। कलिकायन के लिए बेर की उन्नत किस्मों का चयन किया जाता है, यानी उनकी कली लेकर मूलवृंत में लगाई जाती है। कलिकायन तकनीक से बेर को उन्नत किस्मों में बदला जाता है। एक ही पौधें पर कई तरह की किस्मों की कोंपलें चढ़ाकर उन्नत किस्म के पौधे तैयार किए जा सकते हैं, जिससे अधिक फल प्राप्त होता है।
कलिका लगाने का तरीका
– सबसे पहले देसी बेर के पौधों का चुनाव किया जाता है।
– इसे मई के महीने में ज़मीन के बराबर काट दिया जाता है।
– मॉनसून होने पर इसमें नए अंकुर निकलने लगते हैं, जो 20-25 दिन बाद कलिकायन खेती के योग्य हो जाते हैं।
– नए निकले अंकुरों में से 2-3 को छोड़कर बाकी को काट देना चाहिए।
– बचे हुए अंकुरित पौध को 25-30 सें.मी. की ऊंचाई पर काट दें और उसपर से पत्तियां और कांटे भी हटा देना चाहिए।
– कलिकायन तकनीक के लिए ज़मीन से 15-20 सें.मी. ऊपर चाकू की मदद से टी (T), आई (I), उल्टे टी (T) आकार में 2-3 सें.मी. की लंबाई में चीरा लगाना चाहिए।
– फिर चुनी हुई किस्मों के बेर की कलियों को चीरे वाले स्थान पर लगाएं और प्लास्टिक की पट्टी से बांध देना चाहिए।
– प्लास्टिक की पट्टी कली यानी बड वाले स्थान को छोड़कर बांधनी चाहिए।
– 15-20 दिनों बाद उस जगह से नए पौधे अंकुरित होने लगते हैं।
– अंकुरित होने के बाद पौधे तेज़ी से बढ़ने लगते है, इस समय प्लास्टिक हटा देना चाहिए।
– ये अंकुरित पौधे ही आगे चलकर पेड़ बनेंगे और उन्नत किस्म के फल देंगे।
– अधिक पैदावार के लिए कलिकायन तकनीक से जुलाई से अगस्त के बीच खेती करनी चाहिए।
बेर का पौधा बहुत काम का होता है। मीठे फल देने के साथ ही इसकी पत्तियां पशुओं के लिए पौष्टिक चारे का काम करती है। आमतौर पर एक हेक्टेयर में बेर की उन्नत किस्म उगाकर किसान सालाना 9,56,000 का मुनाफा कमा सकता है। यानी बेर की खेती हर लिहाज़ से उपयोगी है। कलिकायन तकनीक से किए जाने पर ये खेती और भी फ़ायदेमंद साबित हो सकती है।
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