देश के ऐसे किसान जो परम्परागत खेती से आगे निकलकर अधिक कमाई वाली खेती की ओर जाना चाहते हैं उनके लिए जिरेनियम की खेती एक शानदार विकल्प है, क्योंकि सुगन्धित और औषधीय पदार्थों के लिए होने वाली खेती-किसानी की दुनिया में जिरेनियम तेल की पैदावार के लिहाज़ से अब भी भारत बहुत पिछड़ा हुआ है। हम अपनी घरेलू माँग की बमुश्किल 5 फ़ीसदी ज़रूरत को ही देश में उत्पादित जिरेनियम तेल से पूरा कर पाते हैं।
भारत में जिरेनियम तेल की सालाना खपत करीब 200 टन है, जबकि इसका घरेलू उत्पादन बमुश्किल 10 टन है। बाक़ी ज़रूरतों की भरपाई आयात पर ही निर्भर है। जबकि जिरेनियम का तेल एक ऐसा बेशक़ीमती उत्पाद है, जिसका बाज़ार भाव 8-10 हज़ार रुपये प्रति किलोग्राम तक है। ज़ाहिर है, जिरेनियम तेल के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने को लेकर किसानों और कृषि आधारित उद्योगों के पास अपार सम्भावनाएँ हैं।
जिरेनियम एक शाकीय पौधा है। इसकी खेती के लिहाज़ से सुखद ये है कि CSIR-CIMAP (Council of Scientific and Industrial Research – Central Institute of Medicinal & Aromatic Plants, Lucknow) ने इसकी अनेक प्रजातियाँ विकसित की हैं। CSIR-CIMAP की ओर से जिरेनियम की खेती और इसके तेल के उत्पादन से जुड़े हरेक पहलू के बारे में किसानों या अन्य इच्छुक लोगों को तकनीकी प्रशिक्षिण (ट्रेनिंग) भी मुहैया करवाया जाता है।
CSIR-CIMAP अपने क्षेत्र की अग्रणी संस्था है। इसके कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि गेहूँ, धान, गन्ना वग़ैरह की परम्परागत खेती से जहाँ किसानों को बमुश्किल जीवनयापन करने लायक आमदनी ही हो पाती है, वहीं यदि लीक से हटकर खेती की आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए तो खेती-किसानी को बेहद फ़ायदे का पेशा बनाया जा सकता है।
कैसे बनता है जिरेनियम का तेल?
जिरेनियम का तेल बेहद सुगन्धित और उच्च गुणवत्ता का होता है, इसीलिए इसके मामूली से अंश को अन्य तेलों (essential oils) या उत्पादों में डालकर इस्तेमाल करते हैं। जिरेनियम के ताज़ा शाक को अप्रैल-मई में काटा जाता है और फिर जल-आसवन (hydro distillation) विधि से इसका तेल प्राप्त किया जाता है। जिरेनियम की खेती से जुड़ने वाले किसानों को ये जानकारी ज़रूर रखनी चाहिए कि उन्हें उनकी उपज का दाम कैसे, कहाँ और कितना मिल सकता है?
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मेंथा बनाम जिरेनियम
मेंथाल या मिंट या पिपरमिंट की खेती करने वालों को तो फ़ौरन जिरेनियम की खेती में भी अपना हाथ आज़माना चाहिए, क्योंकि दोनों की खेती में काफ़ी समानता है। दोनों ही सुगन्धियों वाली उपज हैं। मेंथाल को जहाँ बहुत अधिक सिंचाई की ज़रूरत होती है, वहीं जिरेनियम को कम सिंचाई की ज़रूरत पड़ती है। इसे बरसात से बचाना पड़ता है। लेकिन दोनों तेल को जल-आसवन (hydro distillation) विधि से ही हासिल किया जाता है। इसके बावजूद, मेंथाल का भारत जहाँ अग्रणी उत्पादक है, वहीं जिरेनियम के तेल के लिहाज़ से हम ख़ासे फिस्सडी पीछे हैं।
मेंथाल की फसल करीब 90 दिन में तैयार होती है। इस दौरान फसल को 8 से 11 बार तक सिंचाई देनी पड़ती है और निराई-गुड़ाई की काफ़ी ज़रुरत पड़ती है। जबकि बाज़ार में मेंथाल के तेल का दाम 900 से लेकर 1000 रुपये प्रति किलो का ही मिलता है। पानी की ज़्यादा खपत को लेकर भी मेंथाल की खेती पर सवाल उठते हैं। इसीलिए CSIR-CIMAP के वैज्ञानिक पानी की कमी वाले इलाकों में मेंथा की जगह जिरेनियम की खेती करने की सलाह देते हैं।
लागत कम, मुनाफ़ा ज़्यादा
CSIR-CIMAP के जिरेनियम विशेषज्ञ डॉ सौदान सिंह बताते हैं कि मेंथा की अपेक्षा जिरेनियम में लागत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा है क्योंकि जिरेनियम को कम सिंचाई की ज़रूरत पड़ती है। यदि मेंथाल के मौसम यानी फरवरी-मार्च में जिरेनियम की खेती करें तो किसानों को मेंथाल से ज़्यादा फ़ायदा होगा, क्योंकि जिरेनियम की खेती में करीब 30 फ़ीसदी तक पानी कम लगता है। इसके पौधे भी ख़ूब तेज़ी से बढ़ते हैं। जिरेनियम की नर्सरी 20-25 दिनों में तैयार हो जाती है। इसे पशु भी नुकसान नहीं पहुँचाते। मेंथाल की खेती में जहाँ प्रति एकड़ 60-70 हज़ार रुपये की आमदनी होती है, वहीं जिरेनियम की पैदावार में एक लाख रुपये तक की शुद्ध बचत हो जाती है।
जिरेनियम का इस्तेमाल
जिरेनियम का वैज्ञानिक नाम ‘पिलारगोनियम ग्रेवियोलेन्स’ है। ये मूलरूप से अफ्रीका का पौधा है। इसका तेल इतना गुणकारी है कि इसका उपयोग पूरी दुनिया में असंख्य हर्बल उत्पादों, जैविक दवाईयों और एरोमा-थेरेपी में किया जाता है। जिरेनियम के तेल की पूरी दुनिया में माँग रहती है। इसे बाज़ार में आसानी से खरीदा जा सकता है।
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जिरेनियम की खेती की नयी तकनीक
CSIR-CIMAP, लखनऊ ने 8-9 साल की मेहनत के बाद 2018 में जिरेनियम की खेती के लिए ऐसी तकनीकी विकसित की, जिससे इसकी लागत में भारी गिरावट आ गयी। आमतौर पर जिरेनियम के पौधों से ही उसकी नयी पौध तैयार की जाती है। बारिश में पौधों के खराब हो जाने की वजह से किसानों को जिरेनियम के पौधे काफ़ी महँगे पड़ते थे। लेकिन नयी तकनीक की बदौलत अब सिर्फ़ दो रुपये में जिरेनियम का नया पौधा तैयार किया जा सकता है, जबकि पहले इसकी लागत करीब 35 रुपये बैठती थी।
पहले जिरेनियम की पौधों को सुरक्षित रखने के लिए एयर कंडीशंड (वातानुकूललित) ग्लास हाउस की ज़रूरत पड़ती थी। लेकिन अब पॉलीहाउस की ‘सुरक्षात्मक शेड तकनीक’ विकसित हो जाने से किसान अपने खेतों पर ही ख़ासी कम लागत में इसे तैयार कर सकते हैं। जिरेनियम की खेती के लिए प्रति एकड़ करीब 16 हज़ार पौधों की ज़रूरत पड़ती है। इसके लिए 50-60 वर्ग मीटर का पॉलीहाउस बनाना होता है। इसमें करीब 8-10 हज़ार रुपये का खर्च आता है।
CSIR-CIMAP भी मुहैया करवाता है पौधे
पॉलीहाउस या पॉलीथीन से बनाये गये ‘सेमी प्रोटेक्टिव शेड’ के ज़रिये जिरेनियम की खेती को बढ़ावा देने के लिए CSIR-CIMAP अपने ‘अरोमा मिशन’ के तहत किसानों को पौधे भी उपलब्ध करवा रहा है, जिससे नये पौधों की नर्सरी यानी ‘प्लांटिंग मैटेरियल’ तैयार होता है। ‘सेमी प्रोटेक्टिव शेड’ ऐसा सुरक्षित आशियाना है, जहाँ बरसात का पानी न तो भर सके और ना ही बारिश की बौछारें सीधे जिरेनियम के पौधों पर पड़े।
‘सेमी प्रोटेक्टिव शेड’ को किसान के पास मौजूद बाँस-बल्ली की मदद से 200 माइक्रोन की पारदर्शी पॉलीथीन से तैयार करते हैं। इसके ऊपर का एक मीटर का हिस्सा खुला रखते हैं ताकि बारिश के पानी से बचाव के साथ ही पौधों के लिए हवा का आवागमन होता रहे। इसे ऊँचे खेत में बनाया जाता है या फिर ज़मीन पर मिट्टी भरकर और ऊँचा चबूतरा बनाकर उस पर बनाते हैं। जिरेनियम के पौधों को खेत में डेढ़ से दो फ़ीट के फ़ासले पर रोपते हैं।
दोमट और बलुई दोमट मिट्टी में जिरेनियम की फसल बढ़िया होती है
जिरेनियम के लिए मिट्टी और मौसम
दोमट और बलुई दोमट मिट्टी में जिरेनियम की फसल बढ़िया होती है। जिरेनियम को सिंचाई की कम ज़रूरत पड़ती है। इसकी खेती का सबसे उपयुक्त समय नवम्बर से जून माना जाता है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. सौदान सिंह के मुताबिक, CSIR-CIMAP में सुगन्धित फसलों के तहत मेंथाल के विकल्प के रूप में जिरेनियम को भी बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है।
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फसल तैयार होने में करीब 4 महीने लगते हैं। एक एकड़ की उपज से 8 से 10 लीटर जिरेनियम का तेल निकलता है। इसका दाम 80 से 90 हज़ार रुपये मिल जाता है। जिरेनियम के पौधों को बरसात से बचाना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि बरसात से बचाये गये पौधों से ही अक्टूबर से नर्सरी तैयार करना शुरू करते हैं। जिरेनियम की खेती के लिए नर्सरी में विकसित पौधों की रोपाई नवम्बर से फरवरी के दौरान की जा सकती है। लेकिन वैज्ञानिक फसल चक्र के हिसाब से फरवरी को ही मुफ़ीद वक़्त मानते हैं।
जिरेनियम की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, हिमाचल प्रदेश और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में की जा सकती है। उत्तर प्रदेश के सम्भल, बदायूँ, कासगंज जैसे कई ज़िलों में CSIR-CIMAP की ओर से विकसित नयी विधि से जिरेनियम की सफल खेती की जा रही है। इसकी वजह से पहले जहाँ जिरेनियम के एक पौधे की लागत 30-35 रुपये बैठती थी, वहीं अब ये घटकर 2 रुपये पर आ गयी है। इसीलिए आम किसानों में भी अब जिरेनियम की खेती के प्रति रुझान बढ़ रहा है। पुरानी विधि में लागत इसलिए भी बहुत थी क्योंकि पहले नर्सरी में जहाँ 85 फ़ीसदी पौधे ही पनप पाते थे, वहीं नयी विधि में यही अनुपात 95 फ़ीसदी तक का होने लगा है।