पेट्रोल में एथनॉल (Ethanol) को जैविक ईंधन के रूप में मिलाया जा सकता है। इसीलिए पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2003 में ही एथनॉल ब्लेंडिग पॉलिसी बनायी थी। ये नीति अब भी जारी है। अलबत्ता, कालान्तर में सरकार ने 2022 तक पेट्रोल में 10% ईंधन ग्रेड एथनॉल मिलाने और 2025 तक इसे 20% तक पहुँचाने का लक्ष्य निर्धारित किया। लेकिन कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में जिस ढंग से अभी एथनॉल उत्पादन होता है यदि वही तरीका भविष्य में जारी रहा तो ज़्यादा एथनॉल उत्पादन की लालसा से देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।
क्यों है एथनॉल उत्पादन पर ज़ोर? (Ethanol Production In India)
एथनॉल एक तरह का अल्कोहल है। इसे जैविक ईंधन का दर्ज़ा हासिल है। एथनॉल उत्पादन को गन्ने और चीनी के अतिशय पैदावार (Surplus production) की समस्या का टिकाऊ समाधान भी माना गया है। इसीलिए सरकार की ओर से गन्ने को एथनॉल में बदलने के लिए चीनी मिलों को ख़ूब प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। सरकार का मानना है कि एथनॉल उत्पादन बढ़ने से जहाँ एक ओर किसानों के लिए कमाई का नया ज़रिया फलेगा-फूलेगा और चीनी उद्योग मज़बूत बनेगा, वहीं जितना ज़्यादा एथनॉल का इस्तेमाल बढ़ेगा उतना ज़्यादा कच्चे तेल के आयात पर हमारी निर्भरता घटेगी और विदेशी मुद्रा भंडार को राहत मिलेगी।
गन्ने का रक़बा 3%, उपज 25% ज़्यादा
फ़िलहाल, देश का एथनॉल उत्पादन उद्योग मुख्य रूप से गन्ने की पैदावार पर ही निर्भर है। हालाँकि, चावल, मक्का तथा अनेक फसल अवशेषों से ही एथनॉल बनाया जा सकता है। लेकिन कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि यदि गन्ना आधारित एथनॉल उत्पादन इकाइयों की क्षमता बढ़ती रही तो सिंचाई से जुड़ी चुनौतियाँ पेंचीदा हो जाएँगी, क्योंकि जितने गन्ने से एक लीटर एथनॉल पैदा होता है, उसके उत्पादन के लिए 2,750 लीटर पानी की ज़रूरत पड़ती है। अभी देश में खेतीहर ज़मीन के कुल रक़बे में गन्ने की फसल की हिस्सेदारी 3 प्रतिशत है। इसके बावजूद देश में गन्ने की माँग से करीब 25 फ़ीसदी ज़्यादा पैदावार हो रही है।
गन्ने का रक़बा बढ़ा तो खाद्यान्न का घटेगा
अब यदि भविष्य में गन्ना आधारित एथनॉल उत्पादन और बढ़ा तो ज़ाहिर है इसकी बुआई का रक़बा भी बढ़ेगा। गन्ने का रक़बा बढ़ा तो अन्य खाद्यानों का रक़बा घट सकता है और यदि ऐसा होने लगा तो देश का खाद्यान्न उत्पादन और हमारी खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, साल 2025 की जगह यदि हम 2030 तक भी 20 प्रतिशत जैविक ईंधन यानी एथनॉल के उत्पादन का लक्ष्य रखना चाहें तो इसके लिए हमें गन्ने की खेती के रक़बे को मौजूदा 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत तक पहुँचाना होगा। दूसरी ओर, अनुमान है कि 2030 तक देश की आबादी 1.5 अरब तक पहुँच जाएगी।
इसका मतलब ये है कि यदि हमें 20 प्रतिशत जैविक ईंधन एथनॉल के उत्पादन का लक्ष्य हासिल करना है तो गन्ने की पैदावार को बेहताशा बढ़ाना पड़ेगा। ऐसा तभी सम्भव होगा जब हम खाद्यानों के उत्पादन की कीमत पर गन्ना पैदा करने की दिशा में आगे बढ़ें। हमारे लिए ऐसा कर पाना बेहद मुश्किल होगा क्योंकि 2030 तक हमारी खाद्यान्न की माँग भी आबादी के अनुपात से देखें तो 10 से 15 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। खाद्यान्न की ऐसी माँग की भरपाई उसकी खेती की ज़मीन का रक़बा घटाकर और सिर्फ़ फसल की उत्पादकता बढ़ाने से हासिल नहीं हो सकती। इसलिए या तो देश खाद्यान्न संकट के दलदल में फँसेगा या फिर एथनॉल उत्पादन का लक्ष्य हासिल नहीं होगा।
धान और मक्का से भी बनता है एथनॉल
भले ही एथनॉल उत्पादन के लिए सबसे प्रचलित कच्चा माल गन्ना हो, लेकिन सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि गन्ना किसानों और चीनी उद्योग को Surplus production की मार से बचाने के लिए हमें गन्ने का रक़बा घटाने की ज़रूरत है। हालाँकि, गन्ने के शीरे के अलावा धान और मक्के को सड़ाकर भी एथनॉल का उत्पादन किया जाता है। अन्य फसल अवशेषों से भी एथनॉल पैदा हो सकता है। तमाम सरकारी प्रोत्साहन की बदौलत अभी शीरा आधारित आसवन भट्टियों (molasses based ethanol distillation plants) की एथनॉल उत्पादन क्षमता सालाना 464 करोड़ लीटर की ही है, जबकि मक्का और धान आधारित भट्टियों की क्षमता धीरे-धीरे बढ़कर 258 करोड़ लीटर हो चुकी है।
Surplus गन्ने से ज़्यादा से ज़्यादा एथनॉल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार की ओर से चीनी उद्योग के लिए C-heavy और B-heavy श्रेणी के शीरा (molasses) के अलावा गन्ने के रस, चीनी, चीनी सीरप वग़ैरह से बनाने जाने वाले एथनॉल के लिए लाभकारी दाम तय किया गया है। ईंधन ग्रेड एथनॉल का उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार की ओर से भारतीय खाद्य निगम (FCI) के गोदामों में पड़े मक्का और चावल को भी वाज़िब दाम पर आसवनियों (ethanol distillation plants) को मुहैया करवाया जा रहा है और उनसे लाभकारी मूल्य पर एथनॉल खरीदा जा रहा है।
लक्ष्य से बहुत दूर है एथनॉल उत्पादन
पिछले तीन सीज़न में चीनी उद्योग ने 22 हज़ार करोड़ रुपये का एथनॉल बेचा है। इसमें से 12,335 करोड़ रुपये तो साल 2020-21 के हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान एथनॉल उत्पादन क्षमता में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है। साल 2014 तक देश में शीरा आधारित भट्टियों की एथनॉल उत्पादन क्षमता 200 करोड़ लीटर से कम थी और इनसे ऑयल मार्केटिंग कम्पनीज़ (OMC) को सिर्फ़ 38 करोड़ लीटर एथनॉल की आपूर्ति हो पायी थी। तब इससे पेट्रोल में एथनॉल मिलाने का स्तर महज 1.53% तक ही पहुँच सका था। दरअसल, साल 2003 से जारी एथनॉल ब्लेंडिग पॉलिसी के बावजूद भारतीय चीनी उद्योग इस नीति का पूरा फ़ायदा नहीं उठा पा रहा।
बता दें कि 26 सितम्बर 2021 तक तेल विपणन कम्पनियों (OMC) की ओर से चीनी उद्योग को 349 करोड़ लीटर ईंधन ग्रेड एथनॉल की सप्लाई का ऑर्डर मिला, लेकिन वो 252 करोड़ लीटर यानी 72% आपूर्ति ही कर सके। फिर भी सरकारी अनुमान था कि एथनॉल आपूर्ति वर्ष (दिसम्बर से नवम्बर) 2020-21 में तेल विपणन कम्पनियों को 300 करोड़ लीटर तक ईंधन ग्रेड एथनॉल की आपूर्ति हो जाएगी। ऐसा हो पाया या नहीं, ये तो फ़िलहाल पता नहीं है कि लेकिन यदि हुआ भी हो तो उससे पेट्रोल में एथनॉल को मिलाने की सीमा महज 8% के स्तर तक पहुँच सकती थी। फिर भी ये उम्मीद तो की ही जा सकती है कि भारत 2022 तक पेट्रोल में 10% एथनॉल मिलाने के लक्ष्य के काफ़ी नज़दीक पहुँच सकता है।
एथनॉल उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकारी मदद
एथनॉल की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए सरकार की ओर से चीनी मिलों और आसवनियों (distilleries) को रियायती दर पर बैंकों से कर्ज़ मिलता है। इस सहायता के तहत बैंकों के ब्याज दर का आधा या 6% में से जो भी कम हो, उतना बोझ सरकार उठाती है। सरकार को उम्मीद है कि उसके ऐसे प्रोत्साहन से 2025 तक देश में एथनॉल आसवन की क्षमता दोगुनी से ज़्यादा हो जाएगी, जिससे न सिर्फ़ पेट्रोल में 20% एथनॉल मिलाने का लक्ष्य हासिल होगा, बल्कि गन्ने और चीनी के surplus production की समस्या का समाधान होगा। शीरा से एथनॉल उत्पादन बढ़ने से चीनी उद्योग की नकदी की समस्या घटेगी और किसानों को समय पर गन्ना बकाये के भुगतान में आसानी होगी।
भले ही गन्ना, मक्का, चावल जैसी फसलों से एथनॉल उत्पादन ज़्यादा होता है, लेकिन इस जैविक ईंधन का उत्पादन हरेक फसल अवशेष से हो सकता है। फ़िलहाल तो देश का ज़्यादातर फसल अवशेष किसी न किसी तरह की खाद बनकर वापस खेतों में विलीन हो जाता है, इसीलिए ये जानना भी दिलचस्प होगा कि यदि ज़्यादा से ज़्यादा फसल अवशेष से एथनॉल बनने लगेगा तो इसका खेतों के उपजाऊपन पर क्या असर पड़ेगा? अलबत्ता, इतना तो साफ़ है कि यदि देश में एथनॉल उत्पादन की क्षमता को अगले पाँच-सात साल में दोगुना करना है तो इसके लिए बड़े पैमाने पर एथनॉल उत्पादक आसवनियों को लगाना और शुरू करना होगा।
भारत में है कितना पानी?
भारत में 42 फ़ीसदी ज़मीन अब भी सिंचाई के साधनों से वंचित है और पूरी तरह से बारानी यानी वर्षा-जल पर ही निर्भर है। सच्चाई ये है कि भारत में खेती-किसानी के लिए उतना पानी उपलब्ध नहीं है जितना कि कई विकसित देशों में है। मसलन, अमेरिका में खेती के लिए सालाना 2,818 अरब घन मीटर पानी उपलब्ध रहता है तो ब्राजील में 5,661 अरब घन मीटर। इन देशों के भौगोलिक विस्तार की वजह से वहाँ खेती की ज़मीन की कोई कमी नहीं है। जबकि भारत में तो खेती के लिए ही पानी की ख़ासी किल्लत है।
एथनॉल जैसे जैविक ईंधन के लिए ज़रूरी कच्चे माल की पैदावार में ज़मीन और पानी की किल्लत बहुत बड़ी बाधाएँ हैं। भारत को प्रकृति से सालाना 1,446 अरब घन मीटर पानी ही मिलता है। जब हम पेट्रोल में 20 प्रतिशत तक एथनॉल मिलाने के स्तर पर पहुँचेंगे तो हमें उसका कच्चा माल पैदा करने के लिए 20 खरब लीटर पानी की ज़रूरत होगी। इसीलिए कृषि विशेषज्ञों को लगता है कि जब हम ऐसा करने लगेंगे तो हमारी खाद्य सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती है।
ये भी पढ़ें: गन्ने की खेती में करें प्राकृतिक हार्मोन्स का इस्तेमाल, पाएँ दो से तीन गुना ज़्यादा पैदावार और कमाई
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।