उपजाऊ, अनुपजाऊ, बंजर, सूखाग्रस्त या दलदली- कैसी भी ज़मीन हो, किसानों के लिए धरती के दामन सबके लिए कुछ न कुछ ज़रूर है। किसान में यदि जतन और लगन हो तो खेती से खुशहाली पैदा कर ही लेता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रख यदि एलोवेरा की खेती की जाए तो अच्छा मुनाफ़ा कमाने की गारंटी है, क्योंकि एलोवेरा को ज़्यादा सिंचाई, खाद और कीटनाशक की दरकार नहीं होती। एलोवेरा को घृतकुमारी, ग्वारपाठा, क्वारगंदल जैसे नामों से भी जाना जाता है।
एलोवेरा से कमाई
एलोवेरा एक जंगली औषधीय पौधा है जो शुष्क ज़मीन पर भी आसानी से पनपता है। इसे न तो कोई बीमारी या कीट सताते हैं और ना ही जानवर खाते हैं। एलोवेरा का पौधा रोपाई के साल भर बाद से नियमित आमदनी देने लगता है। इसीलिए बेकार ज़मीन के लिए भी एलोवेरा की खेती वरदान बन सकती है। एलोवेरा की व्यावसायिक खेती में प्रति एकड़ 10-11 हज़ार पौधे लगाने की लागत 18-20 हज़ार रुपये आती है। इससे एक साल में 20-25 टन एलोवेरा प्राप्त होता है, जो 25-20 हज़ार रुपये प्रति टन के भाव से बिकता है।
मिट्टी की प्रकृति और पौधे की नस्ल के मुताबिक एलोवेरा में उपज में फ़र्क आना लाज़िमी है। ऐलोवेरा की उपज पहले साल के मुकाबले दूसरे और तीसरे साल बढ़ती है, जबकि चौथे और पाँचवें साल उपज में 20-25 प्रतिशत तक घट जाती है। इसीलिए धीरे-धीरे पुराने पौधों को नये पौधों से बदलते रहना चाहिए।
एलोवेरा की खूबियाँ
एलोवेरा एक आकर्षक और सज़ावटी, तना-विहीन, गूदेदार पत्तियों वाला रसीला पौधा होता है। इसकी पत्तियाँ ही इसका तना और फल हैं। इसकी पत्तियाँ भाले का आकार वाली, मोटी और माँसल होती हैं। एलोवेरा के जूस का स्वाद कड़वा या कसैला होता है। इसका रंग हरा या हरा-स्लेटी होता है। कुछ किस्मों में पत्ती की सतह पर सफ़ेद धब्बे भी बनते हैं। पत्ती के किनारों पर छोटे-छोटे काँटे भी उगते हैं। गर्मी में इन पर पीले रंग के फूल भी आते हैं।
एलोवेरा की खेती कर रहे किसानों को इसका अच्छा दाम इसलिए भी मिलता है क्योंकि कई उत्पाद बनाने में इसका इस्तेमाल होता है। एलोवेरा की पत्तियाँ से सौन्दर्य प्रसाधन यानी कास्मेटिक्ट्स और अनेक आयुर्वेदिक उत्पाद बनते हैं। हर्बल और कॉस्मेटिक उत्पादों के लिए इसकी माँग न सिर्फ़ नियमित है, बल्कि लगातार बढ़ भी रही है। इसीलिए एलोवेरा की खरीदारी कम्पनियाँ किसानों से करार या कॉन्ट्रैक्ट करके भी इसकी खेती करवाती हैं। इसके अलावा एलोवेरा की प्रोसिंग यूनिट लगाकर भी बढ़िया कमाई की जा सकती है।
एलोवेरा क्रीम, फ़ेस वॉश, फ़ेस पैक, शैम्पू, टूथपेस्ट, हेयर ऑयल समेत अनगिनत उत्पाद बाज़ार में हैं। इसका घृतकारी अचार, सब्ज़ी, जूस और तेल भी लोकप्रिय है। इसका सबसे ज़्यादा इस्तेमाल त्वचा सम्बन्धी समस्याओं में होता है। इसके अलावा पेट, पित्त, लिवर, पीलिया, पथरी, बुख़ार, खाँसी, मधुमेह और आँखों के रोग में उपयोगी है। इसीलिए एलोपैथिक दवाईयों में इसका उपयोग होता है। एलोवेरा में पाये जाने वाले मन्नास, एंथ्राक्युईनोनेज़ और लिक्टिन जैसे तत्व खून में लिपिड के स्तर को काफ़ी घटा देते हैं।
एलोवेरा की खेती- जलभराव से करें बचाव
एलोवेरा को गर्म और शुष्क जलवायु पसन्द है। सर्दियों में एलोवेरा कठुआ (सुषुप्तावस्था) जाते हैं। इसी ठंडे इलाकों में इसे ग्रीनहाउस में ही पैदा किया जाता है। एलोवेरा की खेती करते हुए इस बात का ध्यान ज़रूर रखें कि एलोवेरा को ज़्यादा सिंचाई या जलभराव से बचाना चाहिए। ज़्यादा सर्दी के दिनों को छोड़ एलोवेरा की खेती कभी भी शुरू की जा सकती है। जुलाई-अगस्त वाले बारिश के दिनों में एलोवेरा को सिंचाई की ज़रूरत नहीं पड़ती। गहरी जुताई करके तैयार हुए खेत में मेड़ बनाकर करीब डेढ फ़ीट की दूरी पर पौधे लगाने चाहिए।
एलोवेरा की खेती व्यावसायिक तरीके से
एलोवेरा को ज़मीन से उखाड़ने के महीनों बाद भी लगाया जा सकता है। इसके तने के एक टुकड़े का छोटा हिस्सा में ज़मीन में गाड़ दिया जाए तो कुछेक हफ़्ते में वो पौधा बन जाता है। इसीलिए व्यावसायिक खेती में एलोवेरा के कन्द को काटकर इससे बोने के बजाय पौधे तैयार करके इसकी रोपाई की जाती है, क्योंकि इससे एलोवेरा तेज़ी से बढ़ता है और तीन-चार महीने में ही उपज देने लगता है।
रोपाई वाले पौधे यदि 4-5 पत्तियों वाले, करीब 4 महीने पुराने और 20-25 सेंटीमीटर ऊँचे हों तो इनकी पत्तियाँ जल्दी काटने लायक हो जाती हैं और आमदनी देने लगती हैं। वैसे एलोवेरा का पौधा दो-तीन फ़ीट ऊँचा हो सकता है और पत्तियों को नियमित अन्तराल पर काटते रहने से नयी पत्तियाँ तेज़ी से विकसित होती रहती हैं।
ऐलोवेरा की खेती में सिंचाई और तोड़ाई
बुआई या रोपाई के वक़्त हल्की सिंचाई के अलावा एलोवेरा को पानी सिर्फ़ आवश्यकता अनुसार ही देना चाहिए। ज़्यादा पानी से इसका विकास धीमा पड़ जाता है। लेकिन कटाई के बाद एलोवेरा को एक बार पानी ज़रूर मिलना चाहिए। उपजाऊ मिट्टी में एलोवेरा की उपज जहाँ करीब 8 महीने में मिलने लगती हैं, वहीं अनुपजाऊ खेत 10-12 महीने में कटाई के लिए तैयार होते हैं। आमतौर पर दो तोड़ाई के बीच दो महीने का अन्तर रखना चाहिए। पूरी तरह विकसित पत्तियों को ही तोड़ा जाना चाहिए और छोटी तथा विकसित हो रही पत्तियों को छोड़ देना चाहिए।
एलोवेरा की किस्में
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक़, एलोवेरा मूलतः उत्तरी अफ्रीका का पौधा है। लेकिन आज दुनिया भर में इसकी करीब 300 किस्में पायी जाती हैं। इनमें से 284 प्रजातियों में 15% तक औषधीय गुण होते हैं, तो 11 प्रजातियाँ ज़हरीली भी होती हैं, जबकि 5 प्रजातियों में शत-प्रतिशत औषधीय गुण होते हैं। भारत में आईसी 111271, आईसी 111269 और एएल-1 हाइब्रिड प्रजाति का एलोवेरा हर क्षेत्र में उगाया जाता है। एलोवेरा की खेती के लिए बढ़िया किस्म का पौधा चुनना चाहिए।
उपज को कहाँ बेचें?
एलोवेरा की कमाई को देखते हुए किसान बड़े पैमाने पर भी इसकी खेती करते हैं। ऐसे किसान सीधा फार्मा और कॉस्मेटिक कम्पनियों से करार करके अच्छा दाम पा लेते हैं। कान्ट्रैक्ट वाली खेती में एलोवेरा के किसानों को कम्पनी की तरफ से ही पौधे भी मुहैया करवाये जाते हैं। यही कम्पनियाँ उपज भी खरीद लेती हैं।
नये और छोटे किसानों को भी वक़्त रहते देश भर में फैले सैकड़ों खरीदारों से सीधा तालमेल बना लेना चाहिए। इसके बारे में कृषि विशेषज्ञों से मदद लेने की कोशिश की जानी चाहिए। इंटरनेट के ज़रिये भी एक्सपोर्ट इंडिया डॉट कॉम, ई-वर्ल्ड ट्रेड फेयर डॉट कॉम, गो फोर वर्ल्ड बिजनेस, अलीबाबा और अमेजोन बड़ी कम्पनियों से सीधा करार किया जा सकता है। किसान चाहें तो एलोवेरा का जूस बनाने का प्रोसेसिंग प्लांट लगाकर भी अच्छा मुनाफ़ा कमा सकते हैं।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।