फ़ायदों से भरपूर मखाने की खेती एक नई संभावना के रूप में कृषि-रोजगार क्षेत्र में उम्मीदें जगाने लगी है। हाल ही में मखाने को जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग (GI Tag) दिया गया है और अब मखाना ‘मिथिला मखाना’ के रूप में जाना जाएगा। आज दुनिया में कुल मखाने का 90 फ़ीसदी उत्पादन बिहार में होता है।
बिहार के मिथिलांचल की पहचान के बारे में कहा जाता है, “पग-पग पोखरि माछ मखान” यानी इस क्षेत्र की पहचान पोखर-मछली और मखाना से जुड़ी हुई है। मखाने को खाने के साथ ही इसका पूजा-पाठ में भी काफ़ी इस्तेमाल होता है। इसे फसलों का ‘काला हीरा’ भी कहा जाता है। काले खोल के अंदर से सफेद मखाना निकलता है। इसके औषधीय गुण के कारण, ये महंगे ड्राईफ्रूट्स जैसी ऊंची कीमत पर बिकता है। कृषि विज्ञान केन्द्र पूसा समस्तीपुर के प्रमुख डॉ. अभिषेक प्रताप सिंह से मखाने की खेती को लेकर अहम बातें जानीं।
देश से लेकर विदेशों में है मखाने की अधिक डिमांड
डॉ. अभिषेक प्रताप सिंह ने कहा कि बिहार के मिथिला मखाना को जियोग्राफिकल इंडिकेशन मिलने से मखाना उत्पादकों को अब अपने उत्पादों की बेहतर कीमत मिल सकेगी। मिथिला का मखाना किसानों की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के साथ-साथ रोजगार भी प्रदान कर रहा है। मिथिला का मखाना अपने स्वाद, पोषक तत्वों और प्राकृतिक रूप से उगाए जाने के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने बताया कि मखाने की डिमांड देश के साथ-साथ विदेशों में भी अधिक है। इसकी मांग अमेरिका, यूरोप और अरब देशों में ज़्यादा है।
ये विदेशी मुद्रा कमाने का एक अच्छा माध्यम भी है। वही मखाना से तैयार कई तरह की डिब्बा बंद मिठाइयां, खीर मिक्स, चाकलेट ,चिप्स भी मिलते हैं। विदेशो में खासकर इसका इस्तेमाल स्नैक्स के रूप में खूब किया जाता है।
मखाने की खेती की तकनीक
डॉ. अभिषेक प्रताप सिंह बताते हैं कि बिहार में मखाने की खेती ने न सिर्फ़ मिथिला के किसानों की तकदीर बदल दी है, बल्कि हज़ारों हेक्टेयर की जलजमाव वाली ज़मीन को भी उपजाऊ बना दिया है। अब तो निचले स्तर की भूमि मखाने के रूप में सोना उगल रही है।
मखाने की खेती की शुरुआत बिहार के दरभंगा ज़िले से हुई। अब इसका विस्तार क्षेत्र सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज होते हुए पश्चिम बंगाल के मालदा ज़िले के हरिश्रंद्रपुर तक फैल गया है। उन्होंने कहा कि विगत डेढ़ दशक में पूर्णिया, कटिहार और अररिया ज़िले में मखाने की खेती शुरू की गयी है। किसानों के लिए इसकी खेती वरदान साबित हुई है। मखाने की खेती का स्वरूप और इसके खेती शुरू होने से तैयार होने तक की प्रक्रिया भी अनोखी है। ज़मीन में पानी रहने के बाद मखाने का बीज बोया जाता है।
डॉ. सिंह के मुताबिक, मखाने की बुआई का काम दिसंबर से जनवरी महीने में निपटा लिया जाता है। अप्रैल के महीने में पौधों में फूल लगना शुरू हो जाते हैं। फूल बाहर नीला और अन्दर से जामुनी या लाल, और कमल जैसा दिखता है। पौधों पर फूल कुछ दिन तक रहते हैं। फूल के बाद कांटेदार-स्पंजी फल लगते हैं, जिनमें बीज होते हैं। इसके फल और बीज दोनों ही खाने लायक होते हैं। फल गोल-अण्डाकार, नारंगी होते हैं और इनमें 8 से 20 तक की संख्या में कमलगट्टे से मिलते-जुलते काले रंग के बीज लगते हैं।
फलों का आकार मटर के दाने के बराबर तथा इनका बाहरी आवरण कठोर होता है। जून-जुलाई के महीने में फल 1-2 दिन तक पानी की सतह पर तैरते हैं। फिर ये पानी की सतह के नीचे डूब जाते हैं। नीचे डूबे हुए इसके कांटे गल जाते हैं और सितंबर-अक्टूबर के महीने में ये वहां से इकट्ठा कर लिए जाते हैं।
मखाना फसल की कटाई और प्रोसेसिंग
डॉ. अभिषेक सिंह आगे बताते हैं कि मखाने की फसल कटाई का मतलब, तालाब या खेत की सतह से बीजों को इकट्ठा करना होता है। तालाब में जहां 4-5 कुशल कारीगरों का समूह ये काम करता है, वहीं खेतों में ये काम कम पानी होने की वजह से बेहद आसान हो जाता है।
इसके बाद इसे एक अर्धचंद्राकार कंटेनर में डाला जाता है, जिसे गांजा कहते हैं। इसे बांस के डंडे से बांध कर पानी में हिलाहिला कर बीजों का कीचड़ साफ़ किया जाता है। फिर इसे 2-3 घंटे धूप में रखते हैं। फिर इसे मिट्टी के बर्तन या कास्ट आयरन पैन में रख कर गर्म करते हैं। फिर पॉपिंग यानी भूनने की प्रक्रिया तब तक की जाती है जब तक कि मखाने के बीज से लावा नहीं निकल जाता।
मखाना और मछली साथ-साथ
कृषि विशेषज्ञ डॉ. अभिषेक सिंह आगे जानकारी देते हैं कि किसान मखाने की खेती के साथ ही मांगुर, सिंघि, केवई, गरई और ट्रैश जैसी मछलियों के उत्पादन से दोहरी कमाई भी कर सकते हैं। एक कट्ठा खेत से लगभग एक क्विंटल तक मखाने का उत्पादन हो जाता है। बता दें कि बिहार के कुछ ज़िलों में आज भी भूमि का मापन सिर्फ़ कट्ठा और बीघा से होता हैं।
लाभ का ‘खजाना’ मखाना
डॉ. अभिषेक का कहना है कि मखाने की खेती का उत्पादन प्रति एकड़ 10 से 12 क्विंटल होता है। इसमें प्रति एकड़ 20 से 25 हज़ार रुपये की लागत आती है, जबकि 70 से 80 हज़ार रुपये की आय होती है। इसकी खेती के लिए कम-से-कम चार फ़ीट पानी की ज़रूरत होती है, लेकिन अब कुछ नयी तकनीकों और नये बीजों के आने से मधुबनी-दरभंगा में कुछ लोग साल में दो बार भी इसकी उपज ले रहे हैं।
6 साल पहले जहां लगभग करीबन हज़ार किसान मखाने की खेती में लगे थे, वहीं आज यह संख्या साढ़े आठ हजार से ऊपर हो गई है। मखाना उत्पादन करने वाले किसानों को ध्यान में रखते हुए इसकी बंपर पैदावार के लिए दरभंगा के मखाना अनुसंधान केन्द्र ने एक ख़ास क़िस्म विकसित की है। इस केन्द्र ने अब ऐसी क़िस्म का विकास किया है, जिसे कम पानी में ही उपजा कर ज़्यादा उत्पादन लिया जा सकता है।
मखाना उपजाने की विधियां
कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि सामान्य तौर पर मखाने की खेती 4-6 फ़ीट गहराई वाले जल जमाव वाले क्षेत्र में की जाती है या फिर दूसरी फ़सलों की तरह खेतों में।
मखाना की तालाब विधि
तालाब विधि मखाने की खेती की परंपरागत विधि है। इसमें बीज की बुआई की ज़रूरत भी नहीं होती, क्योंकि पिछले साल के बचे बीज ही आगे काम आते हैं। जबकि खेती विधि में मखाना के बीज को सीधे खेतों में बोया जाता है। फिर धान की तरह, इसके पौधों की रोपाई, नए तालाब में की जाती है। इस विधि में 30 से 90 किलो स्वस्थ मखाना बीज दिसंबर-जनवरी महीने में तालाब में हाथों से छींटते हैं। 35-40 दिन बाद इसमें अंकुरण होने लगता है। फरवरी मार्च तक पौधे जल की ऊपरी सतह पर निकल आते हैं। इनके बीच 1 मीटर की दूरी रखी जाती है।
मखाना की खेत प्रणाली
इस विधि में पहले जनवरी-फरवरी में नर्सरी तैयार करते हैं और फिर फरवरी के पहले सप्ताह से लेकर अप्रैल के तीसरे सप्ताह तक इसकी रोपाई 1 फ़ीट पानी लगे खेत में की जाती है। लगभग 2 महीने के बाद बैंगनी रंग का फूल खिलने लगता है। फिर 35-40 दिनों बाद फल पूरी तरह से विकसित और परिपक्व हो जाते हैं। इसके सभी भाग कंटीले होते हैं। सितंबर अंत या अक्टूबर में कुशल कारीगरों की सहायता से, इसे निकलवा कर जमा कर लिया जाता है। इस विधि की ख़ासियत ये है कि इसके साथ आप धान जैसी अंतर्वती फ़सलें भी ले सकते हैं।
हालांकि उत्पादन के अलावा, मखाने की मार्केटिंग चेन को लेकर भी समस्या रही है, जिसे अब काफ़ी हद तक सुलझा लिया गया है। अब जीआई टैग मिलने से मखाने की खेती को लेकर अच्छी संभावनाएं हैं। हाल के वर्षों में मखाने का उत्पादन बढ़ा है। आप भी इस हाई डिमांड फसल की खेती कर अच्छी कमाई कर सकते हैं।
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