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हरित क्रान्ति में भले ही रासायनिक खाद और कीटनाशकों की अहम भूमिका रही हो, लेकिन ये निर्विवाद है कि इससे भूमि की उर्वरा शक्ति का पतन और पर्यावरण प्रदूषित हुआ। इसीलिए विकसित देशों में रासायनिक उपायों को अपनाकर उपजायी गयी फसलों से सख़्त परहेज़ करना शुरू कर दिया। दरअसल, रासायनिक उपायों ने मिट्टी की उत्पादकता को टिकाऊ नहीं बनाया। तभी तो इसकी ज़रूरत हमेशा पड़ने लगी।
रसायनों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए जहाँ एक ओर परम्परागत, प्राकृतिक या जैविक खेती की ओर लौटने पर ज़ोर दिया जाने लगा, वहीं ऐसे प्राकृतिक उपायों को पहचानने की ज़रूरत थी जो किसान और पर्यावरण, सभी के अनुकूल हो।
इन्हीं उद्देश्यों की तलाश में वैज्ञानिकों ने बीती सदी के सातवें दशक में ये साबित किया कि मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की प्रचुरता से ही उसकी उर्वरा शक्ति क़ायम रह सकती है, क्योंकि इन्हीं कार्बनिक पदार्थों से मिट्टी में उसे उपजाऊ बनाने वाले उन सूक्ष्म जीवों की मात्रा बढ़ती है जो अन्ततः फसल को पोषक तत्व मुहैया करवाते हैं। इन्हीं चुनौतियों से उबरने के लिए वैज्ञानिकों ने ‘बायोचार’ विकसित किया जो सही मायने में ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय’ जैसा उपाय है।
बायोचार बनाने से धरती पर मौजूद अथाह बायोमास का भी बेहतरीन इस्तेमाल हो जाता है और पर्यावरण संरक्षण में मदद मिलती है। क्योंकि बायोमास के अपघटन या सड़ने से भारी मात्रा में जहरीली ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में घुलती हैं और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सबब बनती हैं।
क्या है बायोचार?
बायोचार यानी ‘जैविक चारकोल’ का नाता ‘बायो फ़र्टिलाइज़र’ और ‘चारकोल’ से है। बायोचार, एक बेहद सस्ती, घरेलू और वैज्ञानिक तकनीक है जिससे किसी भी तरह की मिट्टी के उपजाऊपन को दशकों और यहाँ तक कि सदियों के लिए बढ़ाया जा सकता है। दरअसल, मिट्टी प्राकृतिक रूप से लगातार पोषक तत्व प्रदान करने वाले सूक्ष्म जीवों को ‘बायोफ़र्टिलाइज़र’ कहते हैं और कार्बन की अत्यधिक मात्रा वाले पदार्थ या लकड़ी के कोयले को ‘चारकोल’ कहते हैं। दोनों शब्दों के शुरुआती अक्षरों ‘बायो’ और ‘चार’ को जोड़ने से ‘बायोचार’ (बायो+चार) शब्द बना है।
बायोचार एक उच्च कार्बन युक्त पदार्थ है। इसे किसी भी तरह के बायोमास या जैविक पदार्थ जैसे लकड़ी, हड्डी, फसल का कचरा आदि को जलाकर बनाते हैं। लेकिन जलाने की ये प्रक्रिया ऑक्सीजन की लगभग ग़ैरमौजूदगी में होनी चाहिए। जलाने की इस प्रक्रिया को ‘उष्माविघटन’ या पायरोलिसिस (Pyrolysis) कहते हैं।
पायरोलिसिस का मक़सद बायोमास के ऐसे जलाना है जिससे उसमें मौजूद नमी या अन्य वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाएँ और आग की तपिश से बाक़ी बचे तत्व ठोस कंकड़ या दानेदार क्रिस्टल जैसे बन जाएँ। ठंडा होने पर 50 प्रतिशत से ज़्यादा कार्बन वाले इस कोयले या बायोचार और इसकी राख को खेतों में डालने से मिट्टी से चमत्कारिक नतीज़े मिलते हैं।
क्यों चमत्कारिक है बायोचार?
कार्बन की महिमा से किसान सदियों से परिचित हैं। इसीलिए वो बायोमास को जलाकर इसकी राख का अपने खेतों और फसल पर छिड़काव करते रहे हैं। लेकिन जब बमुश्किल दो-चार फ़ीसदी कार्बन वाली बायोमास की राख को गुणकारी पाया गया, तब ज़रा सोचिए कि 50 फ़ीसदी से ज़्यादा कार्बन वाले बायोचार से होने वाला लाभ कितना व्यापक और गुणकारी होगा! दरअसल, किसी भी मिट्टी के उपजाऊपन का मूल मंत्र बायोचार में ही निहित है। ये कार्बन के अलावा हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, पोटेशियम, फॉस्फोरस, जिंक, कैल्शियम, पोटाश, सल्फर, ताम्बा और राख वगैरह के साथ धात्विक पोषक तत्वों का जटिल मिश्रण है।
बायोचार का सीधा सम्बन्ध मिट्टी में मौजूद ‘मायकोराइजल’ फंगस (कवक) जैसे लाभदायक सूक्ष्म जीवों की तादाद बढ़ाने से है। सभी तत्व मिलकर मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं जबकि कार्बन के अणुओं की मुख्या भूमिका नमी को सोखने और ऑक्सीजन के आवागमन का ज़रिया बनने की है। मिट्टी में कार्बन की मात्रा बढ़ने से उसकी अम्लीयता घटती है। बायोचार को मिट्टी का टॉनिक या soil conditioner या ‘कार्बन सिंक’ या ‘कार्बन पात्र’ भी कहते हैं। ये पर्यावरण का बेजोड़ दोस्त भी है। इससे पृथ्वी के ‘ग्रीन हाउस इफेक्ट’ को सन्तुलित रखने में मदद मिलती है।
बायोचार में मौजूद कार्बन तत्व का विघटन इतनी धीमी गति से होता है कि इसमें सौ से लेकर हज़ारों वर्ष लग जाते हैं। इस तरह ये मिट्टी में कार्बन संचयन को निरन्तर बनाये रखता है। वायुमंडल में घुलनशील कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी धरती पर गर्मी और प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक कार्बनिक गैसों में मौजूद कार्बन तत्व को लम्बे अरसे तक सहजने का भी बायोचार आसान उपाय है। बायोचार बनाने से बायोमास में मौजूद मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी जहरीली ग्रीनहाउस गैसें भी सीधे हवा में नहीं जाती।
मिट्टी का पोषणदायी सूक्ष्म गोदाम है बायोचार
बायोचार की अधिकता से मिट्टी और फसल में लगने वाले बीमारियों से भी बचाव होता है। इसकी अत्यन्त रन्ध्रयुक्त प्रकृति (Extremely Porous Nature) में जहाँ एक ओर नमी को सोखने की ज़्यादा क्षमता होती है, वहीं इसके सूक्ष्म रोम छिद्रों या सुरंगों में ‘मायकोराइजल’ फंगस जैसे लाभदायक सूक्ष्म जीवों का विशाल समुदाय अपना बसेरा बनाते हैं। अपने सूक्ष्म रोम छिद्रों की वजह से बायोचार एक ख़ूब पसीजने वाला यानी Porous पदार्थ है। इसकी यही आकृति मिट्टी को नमी और पोषण तत्व देने वाले सूक्ष्म गोदामों की भूमिका निभाती है।
बारिश या सिंचाई के वक़्त बायोचार की सुरंगें अपने विशाल सतही क्षेत्रफल (Surface Area) में पानी और पोषक तत्वों के ज़्यादा अणुओं को सहेजकर रखती हैं और फसल के पोषण के वक़्त इसकी सप्लाई करती रहती हैं। बायोचार मिट्टी में मौजूद नाइट्रोजन को स्थिरता देकर उसके भूजल में होने वाले रिसाव (leaching) को रोकता है। बायोचार से मिट्टी के गुणों में सुधार का सीधा असर फसल और उपज में नज़र आता है। इससे किसानों की रासायनिक खाद पर निर्भरता और खेती की लागत घटती है। लिहाज़ा, बायोचार को किसानों की आमदनी बढ़ाने का आसान और अहम ज़रिया माना गया है।
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बायोचार बनाने की विधि
बायोचार बनाने के तरीके को पायरोलिसिस (Pyrolysis) कहते हैं। इसके कई तरीके हैं जो घरेलू से लेकर औद्योगिक उत्पादन करते हैं। केन्द्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान (CIAE) और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली ने भी छोटे स्तर पर बायोचार बनाने के यंत्र बनाये हैं। इनसे खेत-खलिहान में भी बायोचार बना सकते हैं।
हैदराबाद स्थित केन्द्रीय शुष्क कृषि अनुसन्धान संस्थान ने छोटे और सीमान्त किसानों के लिए बायोचार बनाने वाली सचल भट्टी विकसित की है, जो बाज़ार में आसानी से उपलब्ध है। इसे 212 लीटर वाले लोहे के ड्रम के पेंदे में 2 सेमी आकार के 40 छेद करके बनाया गया है। ड्रम के ऊपरी भाग में जैविक उत्पादों को भरने के लिए 16 गुना 16 सेमी का ढक्कनदार गेट होता है। इससे फसल अवशेष या बायोमास भरते हैं।
बायोमास भरे इस ड्रम को एक बड़े गोलाकार चूल्हे पर रखकर 10-15 मिनट तक जलाया जाता है। इससे निकलने वाला धुआँ शुरुआत में सफ़ेद होता है, लेकिन जल्द ही धुआँ काला होने लगता है। इसी वक़्त ड्रम को चूल्हे से उतारकर उसका ढक्कन बन्द करके इसे गीली मिट्टी से सील कर देते हैं। 3-4 घंटे में जब ड्रम ठंडा हो जाता है, तब इसके जले-अधजले पदार्थ निकलकर उसे मोटी चलनी से छान लेते हैं। यही बायोचार बनाने की सरलतम विधि है। इसे खेतों में फ़ौरन डाल सकते हैं या किसी अन्य बर्तन या बोरी में भरकर भविष्य के लिए रख सकते हैं।
खेत-खलिहान के स्तर पर तो जैविक पदार्थों को मिट्टी में दबाकर उसमें आग लगाने से भी बायोचार तैयार की जा सकती है। इस आग का न्यूनतम ऑक्सीजन में जलना ही बायोचार का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि यदि यही आग खुले में लगायी जाएगी तो धुआँ प्रदूषण फैलाएगा, आग की लपटें गर्मी पैदा करेंगी और आख़िर में बचने वाली राख में जो अधजले कार्बन का अंश होगा वो बमुश्किल 5 फ़ीसदी ही होगा, जबकि बायोचार में कार्बन का अंश कम से कम 50 फ़ीसदी होता है।
बायोचार की क्वालिटी
बायोचार बनाने की प्रक्रिया में अत्यधिक बढ़िया छिद्रपूर्ण चारकोल बनता है। इसके लिए बायोमास यानी कार्बनिक पदार्थों को जितनी कम ऑक्सीजन में जलाया जाएगा, उसमें उतना ही ज़्यादा कार्बन का अंश पैदा होगा। इसीलिए बायोचार की क्वालिटी उसे बनाने में इस्तेमाल हुए बायोमास की किस्म और उसे जलाये जाने वाले तापमान पर निर्भर करती है।
ये तापमान 300 से लेकर 1000 डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है। जानवरों की हड्डी से बने बायोचार में कार्बन का अंश सबसे ज़्यादा होता है। इससे मिट्टी की उर्वरता को हज़ारों साल तक स्थिर रख सकते हैं, क्योंकि बायोचार एक हल्के स्तर का रेडियो एक्टिव पदार्थ है और इसकी अर्ध आयु 100 से 10,000 साल तक हो सकती है।
बायोचार का 80 प्रतिशत कार्बन, मिट्टी में ऐसे हठीले काबर्निक संसाधन के रूप में रहता है जिसे सूक्ष्मजीव विघटित नहीं कर पाते। इसीलिए सभी तरह की मिट्टी के उपयोगी सुधारक के रूप में बायोचार का इस्तेमाल हो सकता है। कम वर्षा और पोषक तत्वों वाले शुष्क तथा अर्धशुष्क इलाकों की मिट्टी में बायोचार के इस्तेमाल से शानदार फ़ायदा नज़र आता है।
बायोचार में जीवाश्म ईंधन (fossil fuel) का विकल्प बनने के भी गुण हैं, लेकिन फ़िलहाल सारी दुनिया में इसे मिट्टी के कार्बन संचयक के रूप में अपनाने पर ज़ोर है। ये मिट्टी में एल्यूमिनियम जैसे धातुओं की विषाक्तता (toxicity) को घटाता है और रोगजनक सूक्ष्म जीवों (microbes) को दूर रखता है।
खेतों में बायोचार का उपयोग कैसे करें?
खेतों की जुताई के वक़्त ज़मीन की ऊपरी सतह यानी 10-15 सेमी की गहराई तक बायोचार को मिलाना चाहिए। बायोचार को क्यारियों में छिड़का भी जा सकता है। इसे बुआई से पहले या खड़ी फसल के दौरान भी छिड़का जा सकता है। हालाँकि, इसका तात्कालिक असर अलग-अलग होगा।
इसे एक साथ बड़ी मात्रा में या कई बार छोटी-छोटी मात्रा में भी इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि बायोचार, किसी भी तरह जैविक या रासायनिक खाद का विकल्प नहीं है। लेकिन उर्वरक की कुछ मात्रा को घटाकर और उसकी जगह पर बायोचार का हिस्सा जोड़कर इस्तेमाल करने से भी पैदावार को बढ़ाया जा सकता है।
National Initiative on Climate Resilient Agriculture (NICRA) के तहत Central Research Institute for Dryland Agriculture, Hyderabad के वैज्ञानिकों ने बायोचार को लेकर विस्तृत शोध रिपोर्ट तैयार की है। इसके मुताबिक, मौजूदा खेतों की उर्वरता बढ़ाने के लिए प्रति हेक्टेयर 10 टन (10,000 किग्रा) बायोचार का उपयोग कर सकते हैं। जबकि 50 टन प्रति हेक्टेयर बायोचार का उपयोग करके बंजर या अनुपादक ज़मीन का कायाकल्प किया जा सकता है।
बायोचार का संक्षिप्त इतिहास
बायोमास को जलाने की प्राचीनतम प्रथाओं की वजह से बायोचार दुनिया भर की मिट्टी में मिलता है। लेकिन कार्बन संचय में बायोचार की अनुपम भूमिका को इंसान ने हाल ही में जाना है। मिट्टी की उर्वरा बढ़ाने के लिए करीब 2,000 साल पहले अमेजॉन वर्षा वन क्षेत्र (बेसिन) में बायोचार का उपयोग हुआ। इसी से वहाँ के द्वीपों की उपजाऊ मिट्टी ‘टेरा प्रेटा’ या ‘काली धरती’ कहलायी। इसे विम सोम्ब्रोक नामक वैज्ञानिक ने 1950 के दशक में पहचाना। इस मिट्टी के गहन अध्ययन से पता चला कि उसे हज़ारों साल पहले स्थानीय आदिवासियों ने बायोचार से बनाया था।
ये आज भी अमेजॉन बेसिन के 10 प्रतिशत इलाके में फैला हुआ है और कार्बन तथा पोषक तत्वों से भरपूर है। ऐसी ही मिट्टी पश्चिम अफ्रीका में इक्वाडोर, पेरु, बेनिन और लाइबेरिया में भी देखी गयी है।
मिट्टी के कार्बन चक्र को मज़बूत करने के लिए झूम खेती बायोमास रिसायकिलिंग और क्रॉप रोटेशन जैसे जैविक उपायों को किसान सदियों से अपनाते रहे हैं। लेकिन 1970 के दशक से मिट्टी के वैज्ञानिकों ने बायोचार को मिट्टी में सबसे बड़े और टिकाऊ सुधारक के रूप में देखना शुरू किया और 1990 के दशक तक बायोचार की ये आधुनिक और वैज्ञानिक महिमा स्थापित हो गयी कि इससे मिट्टी के गुणों को बहुत लम्बे काल के लिए निखारा जा सकता है।
क्योंकि बायोचार का अपघटन (decomposition) इतना धीमा होता है कि मिट्टी में इसका प्रवास क़रीब 2000 साल तक रहेगा। बायोचार से कार्बन के अपघटन की रफ़्तार भी इस पर निर्भर करेगी कि वह किस जैविक पदार्थ या बायोमास से बना है।
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