छोटी जोत वाले किसानों के लिए चौलाई या रामदाना या राजगिरी की खेती करना बहुत फ़ायदेमन्द है, क्योंकि छोटे पैमाने पर भी चौलाई की खेती से बढ़िया कमाई हो जाती है। चौलाई से मिलने वाले साग (सब्ज़ी) और दाना (अनाज) दोनों ही नकदी फसलें हैं। इसकी की खेती ज़्यादा ठंडे इलाकों को छोड़ पूरे देश में हो सकती है। इसे गर्मी और बरसात में उगाया जा सकता हैं। गर्मी वाली फसल से अपेक्षाकृत बेहतर उपज मिलती है, क्योंकि इसे जलभराव या अधिक सिंचाई नापसन्द है। गर्मियों वाली चौलाई की रोपाई फरवरी के अन्त में करते हैं तो बरसात वाली फसल के लिए अगस्त-सितम्बर का वक़्त उपयुक्त है।
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चौलाई की लागत और कमाई
चौलाई की खेती के लिए प्रति एकड़ करीब 200 ग्राम बीज की ज़रूरत पड़ती है। बीज का दाम करीब 75-80 रुपये बैठता है। फसल पकने पर प्रति एकड़ 3 से 4 क्विंटल रामदाना पैदा होता है। बाज़ार में ये 75-80 रुपये प्रति किलो के भाव से बिकता है। यानी प्रति एकड़ 30 हज़ार रुपये की उपज। इसीलिए इसे छोटी जोत वाले किसानों के लिए बेजोड़ माना जाता है। चौलाई की बुआई के करीब महीने भर इसकी पत्तियाँ भी तोड़ी जाती हैं। इसे बेचने से भी आमदनी होती है। इस तरह चौलाई के दोनों प्रमुख उत्पाद नकदी फसल हैं।
चौलाई की खूबियाँ
चौलाई को औषधीय पौधा भी माना जाता है। ये इकलौता ऐसा पौधा है जिसमें सोने (gold) का अंश पाया जाता है। इसका जड़, तना, पत्ती और फल सभी उपयोगी हैं। चौलाई में प्रोटीन, खनिज, विटामिन-ए और विटामिन-सी भी अच्छी मात्रा में मिलते हैं। इसे पाचन सम्बन्धी रोगों में लाभप्रद माना जाता है। चौलाई की फसल करीब चार महीने में तैयार होती है। इसका पौधा एक से दो मीटर की ऊँचाई तक बढ़ता है और इस पर लाल और पर्पल रंग के फूल खिलते हैं।
चौलाई की रोपाई का तरीका
कार्बनिक तत्वों से भरपूर खेत में चौलाई अच्छी उपज देती है। इसीलिए बुआई के लिए खेत को तैयार करते वक़्त जैविक या गोबर की खाद का इस्तेमाल बहुत लाभकारी साबित होता है। चौलाई के बीजों की रोपाई छिड़काव और ड्रिल, दोनों तरीकों से करते हैं। छिड़काव विधि में तैयार खेत में बीज छिड़कने के बाद कल्टीवेटर में हल्का पाटा बाँधकर एक बार हल्की जुताई की जाती है। ताकि बीज अच्छे से मिट्टी में दब जाएँ। जबकि ड्रिल विधि में कतारों में बीजों की रोपाई की जाती है। कतारों के बीच आधा फीट की दूरी होनी चाहिए। दोनों तरीकों में बीजों को तहत से 2-3 सेंटीमीटर नीचे गाड़ते हैं। छिड़काव विधि में बीच की खपत 60-65 फ़ीसदी ज़्यादा होती है। रोपाई से पहले बीजों को गोमूत्र से उपचारित करना लाभकारी होता है।
चौलाई की खेती की देखरेख
चौलाई के खेती में ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती। इसीलिए खेतों में नमी कम होता दिखने पर ही सिंचाई करनी चाहिए। अलबत्ता, साग के लिए चौलाई की पत्तियों को तोड़ने के बाद फसल को ज़रा ज़्यादा पोषण की ज़रूरत पड़ती है। ऐसे वक़्त पर जैविक या रासायनिक खाद का इस्तेमाल और हल्की सिंचाई फ़ायदेमन्द रहती है। बेहतर उपज पाने के लिए फसल को खरपतवार और कीड़ों से भी सुरक्षित रखना ज़रूरी है। पूरी फसल के दौरान खेत की दो बार गुड़ाई करनी चाहिए। गुड़ाई के वक़्त पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी भी चढ़ा देनी चाहिए। चौलाई की हरी पत्तियों की कटाई रोपाई के 30 से 40 दिन बाद करनी चाहिए। फसल पकने तक तीन से चार बार पत्तियों की कटाई की जा सकती है।
चौलाई की उन्नत किस्में
चौलाई की अनेक उन्नत किस्में हैं। इनमें प्रमुख हैं: कपिलासा, RMA-4, छोटी चौलाई, बड़ी चौलाई, अन्नपूर्णा, सुवर्णा, पूसा लाल, गुजरती अमरेन्थ 2, PRA-1, मोरपंखी, RMA-7, पूसा किरण, IC35407, पूसा कीर्ति और VL CHUA-44. हरेक किस्म से मिलने वाली उपज की मात्रा और फसल तैयार होने की मियाद वगैरह में अन्तर होना स्वाभाविक है। इन्हें अलग-अलग इलाकों की जलवायु के आधार पर चुना जाता है।
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चौलाई के रोग और रोकथाम
पर्ण जालक, ग्रासहोपर और कैटरपिलर जैसे कीटों को भी चौलाई के पौधे खूब पसन्द आते हैं। इसके अलावा पाउडरी मिल्ड्यू नामक बीमारी भी चौलाई के पत्तों पर पीले धब्बे बनाकर उसे नुकसान पहुँचाते हैं। चौलाई के उत्पादक किसानों के लिए ज़रूरी है कि वो अपने फसल को कीटों और बीमारियों से बचाने का पुख़्ता इन्तज़ाम रखें और फसल की नियमित देखरेख करते रहें। यदि किसी वजह से चौलाई की फसल में जलभराव की नौबत आ जाए तो इसका भी फ़ौरन उपचार करना चाहिए, क्योंकि अधिक पानी से चौलाई की जड़ों में जड़ गलन रोग के फफूंद पनप जाते हैं और फसल को बर्बाद कर देते हैं।