कोरोना ने तोड़ी ग्रामीण अर्थव्यवस्था: कोरोना की मौजूदा लहर ने शहरों की आर्थिक गतिविधियों को तो बुरी तरह से प्रभावित किया ही है, लेकिन गाँवों का बेहद बुरा है। वहाँ किसानों को दोहरी आफ़त का मुकाबला करना पड़ रहा है। एक ओर, घर-घर में कोरोना के संक्रमित पाये जा रहे हैं। इनके इलाज़ और देखरेख के लिए संसाधनों की भारी किल्लत है। दूसरी ओर, किसानों की सामान्य आमदनी का ज़रिया ध्वस्त होता जा रहा है।
कैश की किल्लत
दरअसल, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खेती-बाड़ी की हिस्सेदारी बमुश्किल 40 फ़ीसदी है। बाक़ी 60 फ़ीसदी गतिविधियाँ ग़ैर-कृषि कार्यों की मानी जाती है। लॉकडाउन की वजह से इस बार शहरों में प्रवासी मज़दूरों की तरह रहने वाले युवाओं का गाँवों की ओर वैसा पलायन नहीं हुआ है, जैसा पिछले साल हुआ था।
लेकिन शहरों में इस तबके की आमदनी ठप है। इन्हें अपना गुज़ारा करने में ही भारी दिक्कत हो रही है, तो बेचारे गाँवों में अपने घर-परिवार को पैसा कहाँ से भेजेंगे! इस वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह बुरी तरह से बाधित हुआ है।
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दूध उत्पादकों का सबसे बुरा हाल
सबसे बुरा हाल दूध उत्पादकों का है। लॉकडाउन की वजह से न तो शादी-ब्याह की माँग आ रही है और ना ही होटल, रेस्तराँ, खानपान और मिठाई की दुकानों की। उधर दुधारू पशुओं की देखरेख पर होने वाला खर्च यानी रोज़गार की लागत बदस्तूर पहले की तरह क़ायम है। दूध का उत्पादन भी पहले की तरह रखना मज़बूरी है, क्योंकि यदि पशुओं के चारा-पानी में कटौती की वजह से उनका दूध उच्पादन घटने दिया गया तो इसे माँग आने पर बढ़ाना सम्भव नहीं होता है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटी जोत वाले किसानों और भूमिहीन लोगों की रोज़ी-रोटी का सबसे बड़ा आधार डेयरी क्षेत्र और सब्ज़ियों की खेती है। इन दोनों पर ही कोरोना की दूसरी लहर की ऐसी मार पड़ी है कि किसानों की हालत पस्त हो गयी है। संगठित क्षेत्र की निजी, सहकारी और सरकारी डेयरियाँ में कुल दूध उत्पादन की महज 40 फ़ीसदी ही खपत होती है। बाक़ी 60 फ़ीसदी दूध की उपयोग मिठाईयों, होटल और चाय की दुकानों पर होता रहा है। इन गतिविधियों के ठप पड़ने की वजह से डेयरियों का दूध कलेक्शन भी घटा है।
बेहाल हैं सब्ज़ी उत्पादक
सब्ज़ी उत्पादकों का हाल भी कोई कम ख़राब नहीं है। लॉकडाउन की वजह से मंडियों में माँग नदारद है। उपज को दूर शहरों में भेजने के लिए परिवहन व्यवस्था के लाले पड़े हैं। मंडियों में जो छिटपुट व्यापारी हैं वो भी सब्ज़ियों का इतना काम दाम दे रहे हैं कि किसानों का कलेज़ा फट रहा है। उन्हें फसल की लागत मिलना भी मुहाल हो गया है। देश भर से ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि कहीं किसान उपज को सड़कों पर फेंक रहे हैं तो कहीं उन्हें खेतों में जोत दे रहे हैं या फिर पशुओं को चारा बनाकर खिला रहे हैं।
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ग्रामीण परियोजनाएँ भी ठप
गाँवों की सामाजिक अर्थव्यवस्था पर भी कोरोना लॉकडाउन की ज़बरदस्त मार पड़ी है, क्योंकि रबी की फसल की कटाई के बाद अप्रैल से जून तक गाँवों में खेती-किसानी की गतिविधियाँ तकरीबन नहीं होती हैं। लेकिन ऐसे समय में गाँवों के कमज़ोर तबकों की बहुत बड़ी आबादी को ‘रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर’ की परियोजनाओं से रोज़ी-रोटी का ज़रिया मयस्सर होता है। लेकिन इस तबके लिए भी कोरोना की मौजूदा लहर दोहरा कहर बनकर सामने खड़ी है।
ग्रामीण सड़क, आवासीय, ग्रामीण विद्युतीकरण और सिंचाई परियोजनाएँ लगभग ठप पड़ी हैं। यहाँ तक कि मनरेगा के तहत भी सिर्फ़ कच्चा या हल्का-फुल्का काम ही हो रहा है। इसीलिए मनरेगा वाला रोज़गार भी बहुत कम लोगों को ही राहत दे पा रहा है। इन परियोजनाओं की गतिविधियों के लिए आवश्यक कच्चे माल की भी आपूर्ति पर कोरोना लॉकडाउन का बहुत तगड़ा असर पड़ा है।
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सरकारी तंत्र की कोई मदद नहीं
कुलमिलाकर, परम्परगत खेती के तहत गेहूँ-चावल-दलहन-तिलहन जैसी फसलों के सिवाय बाक़ी पूरा का पूरा ग्रामीण समाज बुरी तरह से टूटा हुआ है। ऐसे करोड़ों लोगों की मदद के लिए आगे आने वाले सरकारी तंत्र का कहीं दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं हैं। सभी ने किसानों को उनके नसीब पर ही छोड़ दिया है।