अरहर की खेती को फ़ायदेमन्द बनाने के लिए इसके 10 प्रमुख दुश्मनों से सख़्ती से निपटना बहुत ज़रूरी है। ये दुश्मन वो बीमारियाँ और कीट हैं जिनके बारे में ‘किसान ऑफ़ इंडिया’ आपको सिलसिलेवार ब्यौरा दे रहा है। उम्मीद है कि आपने हमारी इस विशेष पेशकश की पहली कड़ी “जानिए, कौन हैं अरहर या तूअर (Pigeon Pea) के 10 बड़े दुश्मन और क्या है इनसे निपटने का वैज्ञानिक इलाज़?” को अवश्य उपयोगी और ज्ञानवर्धक पाया होगा। इसमें हमने अरहर के लिए घातक 4 कीटों के बारे में आपको विस्तृत ब्यौरा दिया है। इसी सिलसिले में अब बात अरहर पर हमला करने वाली उन 6 बीमारियों की जो बैक्टीरिया, वायरस और फंगस (कवक) जनित रोग हैं और जिनके प्रकोप से अरहर की खेती करने वाले किसानों को भयंकर नुकसान होता है।
अरहर की खेती में रोग प्रबन्धन
1. उकठा रोग (Fusarium wilt)
दर्ज़नों फसलों को तबाह करने वाला ‘उकठा रोग’ मूलतः मिट्टी में पनपने वाले फंगस ‘फ्यूजेरियम’ (Fusarium) की देन है। इस कवक का संक्रमण पौधों की जड़ों से होता हुआ तने में ऊपर की ओर बढ़ता है और देखते ही देखते पूरे पौधे को कमज़ोर बनाकर सूखा देता है। उकठा रोग, अरहर की बेहद प्रचलित बीमारी है। इसका प्रकोप देश के उत्तरी और पूर्वी मैदानी इलाकों के अलावा मध्य और दक्षिण भारत में भी ख़ूब दिखायी देता रहा है। उकठा रोग का प्रकोप अरहर के पौधे की किसी भी अवस्था को संक्रमित कर सकता है, लेकिन देर से पकने वाली प्रजातियों पर उकठा की मार ज़्यादा नज़र आती है।
उकठा रोग के लक्षण
उकठा के संक्रमण के शुरुआती दौर में अरहर के पौधों की पत्तियाँ मुरझाकर पीली पड़ने लगती हैं और जल्द ही पौधा पूरी तरह से सूखकर मर जाता है। उकठा से संक्रमित पौधे दूर से ही पहचाने जाते हैं। उकठा की उग्र अवस्था में रोगग्रस्त पौधे की जड़ और तने को फाड़कर देखने पर उसके बीच में काले या भूरे रंग की धारियाँ नज़र आती हैं, जो पौधों की जड़ों से दाख़िल होते हुए दारु ऊतक (जाइलम) यानी पोषण देने वाली शिराओं को बाधित कर देते हैं। नतीज़तन, पौधा सूख या मर जाता है।
कैसे करें उकठा रोग की रोकथाम?
अरहर पर उकठा की मार से बचने के लिए सबसे पहले तो मई-जून के महीनों में 2-3 बार खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। कानपुर स्थित भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान (ICAR-Indian Institute of Pulses Research) की ओर से देश के विभिन्न अरहर उत्पादक क्षेत्रों के अनुकूल उकठा अवरोधी प्रजातियों के बीजों का ही इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है। लिहाज़ा अपने इलाके के लिए उपयुक्त बताये गये बीजों को हमेशा कवकनाशी रसायनों और ट्राईकोडर्मा नामक जैव नियंत्रक से उपचारित करके ही बुवाई करना चाहिए।
अरहर की खेती में खाद की उतनी ही मात्रा का इस्तेमाल करना चाहिए जिसकी सलाह कृषि विशेषज्ञों ने की हो। बढ़िया उपज पाने के लिए ये बेहद ज़रूरी है। जिस खेत में एक बार उकठा रोग का संक्रमण नज़र आ जाए, उसमें अगले 3-4 साल तक अरहर की फसल नहीं उगानी चाहिए। यदि पिछली फसल भी अरहर की ही ली हो तो उसकी कटाई के बाद खेत में पुराने अवशेषों को नहीं छोड़ना चाहिए। उकठा की रोकथाम में अरहर के साथ ज्वार की सहसफली खेती करना भी ख़ासा फ़ायदेमन्द रहता है।
2. तना मारी या फाइटोफ्थोरा (Phytophthora Stem blight)
फाइटोफ्थोरा या तना मारी भी मिट्टी में पनपने वाले फंगस ‘केजानी’ (Cajani) से पैदा होने वाली एक ऐसी घातक बीमारी है जो सिर्फ़ अरहर की फसल को अपनी चपेट में लेती है। केजानी (Cajani) का नाता कवक की उप-प्रजाति का नाम फाइटोफ्थोरा ड्रेशलरी (Phytophthora drechsleri) है। इस तना मारी बीमारी को फैलने के लिए यदि अनुकूल माहौल मिल जाए तो इससे फसल पूरी तरह चौपट हो जाती है। लिहाज़ा, अरहर की खेती करने वाले किसानों को तना मारी रोग के प्रति बेहद सतर्क रहना चाहिए। इस रोग के लक्षण अरहर की बुवाई के शुरुआती 40 से 60 दिनों में सबसे पहले खेत के ऐसे निचले भाग में प्रकट होते हैं जहाँ बारिश या सिंचाई का पानी जमा होता है।
अरहर में तना मारी रोग के लक्षण
बीमारी के शुरुआती दौर में अरहर की पत्तियों पर असमान आकार के धब्बे नज़र आते हैं। जो जल्द ही पौधे के तने और डालियों पर भी काले रंग के छोटे-छोटे धब्बों के रुप में दिखायी देने लगते हैं। इससे पौधे मुरझाने लगते हैं। धब्बों के ये लक्षण तने के निचले भाग में भी दिखते हैं। कभी-कभी ये धब्बे पौधे की एक से डेढ़ मीटर की ऊँचाई तक भी बन जाते हैं और तने को चारों ओर से अपने छल्लों से घेर लेते हैं। इसके फलस्वरुप अरहर के पौधे सूखने लगते हैं।
कैसे करें तना मारी रोग की रोकथाम?
जिन खेतों में पानी जमने का खतरा हो वहाँ बुआई से पहले या तो पानी की निकासी का उचित प्रबन्ध करना चाहिए या फिर अरहर की खेती करने से परहेज़ करना चाहिए। दूसरा विकल्प ये हो सकता है कि जल भराव की आशंका वाले खेतों में ये तो मेड़ों पर अरहर के बीज रोपने चाहिए या फिर खेतों में ऊँची मेड़ बनाकर इन्हीं मेड़ों पर अरहर बोना चाहिए। कुलमिलाकर, तना मारी रोग से बचने का सबसे सही तरीका ये है कि अरहर की बुवाई के शुरुआती 50 से 60 दिनों तक खेत में जल भराव की दशा पैदा ही नहीं होने दी जाए। तना मारी रोग की सम्भावित मार से बचने के लिए अरहर की बुवाई से पहले बीजों को कवक रोधी मेटालेक्सिल या ट्राइकोडर्मा पाउडर से उपचारित करना चाहिए। अपने इलाके के अनुरूप रोग प्रतिरोधी बीजों का ही इस्तेमाल करना भी तना रोधी बीमारी से बचाव में बहुत उपयोगी साबित होता है।
3. झुलसा या आल्टरनेरिया (Alternaria blight)
आल्टरनेरिया या झुलसा रोग भी अरहर की फसल को नुकसान पहुँचाने की क्षमता रखता है। वैसे तो इस रोग सभी अरहर उत्पादक इलाकों में देखा जाता है, लेकिन इसका गम्भीर प्रकोप देश के छिटपुट इलाकों में ही नज़र आता है। ख़ासकर तब, जबकि स्थानीय परिस्थितियाँ इस बीमारी के संक्रमण के अनुकूल हों। झुलसा एक बीज जनित बीमारी है और अरहर के बीजों के आल्टरनेरिया (Alternaria) प्रजाति के कवक (फफूँद) के सम्पर्क में आने से पनपती है।
अरहर में झुलसा रोग के लक्षण
झुलसा बीमारी की शुरुआती अवस्था में अरहर के पौधे की पत्तियों में भूरे और काले रंग के छल्लेदार धब्बे दिखाई देते हैं। ये धीरे-धीरे पत्तियों में फैल जाता है। इससे पत्तियाँ सूखकर झड़ जाती हैं। अरहर की फसल पर झुलसा रोग का प्रकोप आमतौर पर गर्मी और ज़्यादा नमी वाले मौसम में अधिक दिखायी देता है। बीमारी की गम्भीर अवस्था में इसके लक्षण पौधों के अन्य भागों जैसे तना और शाखाओं पर भी नज़र आने लगते हैं।
कैसे करें झुलसा रोग की रोकथाम?
अरहर की रोग प्रतिरोधक प्रजातियों के बीजों की सही समय पर बुआई करके झुलसा रोग से कारगर बचाव हो जाता है। इसके बावजूद यदि फसल पर इस बीमारी के लक्षण नज़र आयें तो मेंकोजेब (डाईथेन M-45) दवा की 25 ग्राम मात्रा का 10 लीटर पानी में घोलकर तथा 10 से 15 दिन के अन्तराल पर एक से दो बार छिड़काव करना चाहिए।
4. पर्ण चित्ती या सरकोस्पोरा (Cercospora leaf spots)
पर्ण चित्ती भी एक कवक जनित बीमारी है, जो अरहर के पौधों पर सरकोस्पोरा केजानी (cercospora cajani) नामक फफूँद के प्रकोप से फैलता है। रोग के प्रारम्भिक लक्षण पौधों की निचली (पुरानी) पर अनियमित धब्बे के रूप दिखाई पड़ते है। इस रोग का प्रकोप जब मौसम ठंडा व आर्द्र हो उस समय ज्यादा होता है। रोग की उग्र अवस्था में पौधों की शाखायें भी सूखने लगती है। इस रोग के कारण संक्रमित पत्तियाँ झड़ जाती है।
कैसे करें पर्ण चित्ती बीमारी की रोकथाम?
पर्ण चित्ती बीमारी की रोकथाम का तरीका भी बिल्कुल वही है जैसे सलाह झुलसा रोग से बचाव के लिए बतायी गयी है। यानी, अरहर की रोग प्रतिरोधक प्रजातियों के बीजों की सही समय पर बुआई करके पर्ण चित्ती बीमारी से कारगर बचाव हो सकता है। इसके बावजूद यदि फसल पर इसके लक्षण नज़र आयें तो मेंकोजेब (डाईथेन M-45) दवा की 25 ग्राम मात्रा का 10 लीटर पानी में घोलकर तथा 10 से 15 दिन के अन्तराल पर दो से तीन बार छिड़काव करना चाहिए।
5. बाँझ रोग (Sterility Mosaic)
इस बीमारी से पीड़ित अरहर के पौधों में फूल नहीं खिलते और फलियाँ नहीं बनतीं। इसीलिए इसे बाँझ रोग कहा गया। इस बीमारी का आर्थिक पहलू बहुत कष्टकारी है, क्योंकि इससे अरहर की पैदावार ख़त्म हो जाती है। बाँझ रोग का संक्रमण मिट्टी में पाये जाने वाले एक कीड़े (mite) फैलता है। इसका नाम एसेरिया केजानी (Aceria cajani) है जो बाँझ रोग के वायरस का रोगवाहक बनकर इसे अरहर के एक पौधे से दूसरे तक और एक खेत से बाक़ी खेतों तक फैलाता है। यह कीड़ा ख़ुद तो उड़ने लायक नहीं होता, लेकिन हवा के बहाव से एक किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर तक जा सकता है।
बाँझ रोग फैलाने वाला एसेरिया केजानी कीड़ा इतना ज़्यादा सक्षम है कि इसके सिर्फ़ 20 कीड़े बहुत बड़े इलाके में बीमारी को शत-प्रतिशत फैला देते हैं। अंडे से लेकर वयस्क होने तक इस कीड़े का जीवन चक्र 15 दिनों का होता है। विषाणु (virus) जनित बाँझ रोग को सबसे पहले साल 1931 में बिहार के पूसा नामक स्थान में देखा गया था। कालान्तर में इसका प्रकोप देश के सभी अरहर उत्पादक क्षेत्रों में देखा गया, लेकिन ज़्यादा गम्भीर प्रभाव बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में देखा गया है।
अरहर में होने वाले बाँझ रोग के लक्षण
बाँझ रोग की वजह से अरहर की पत्तियों का रंग हल्का पड़कर सामान्य से काफ़ी छोटा और पतला हो जाता है तथा उन पर अनियमित आकार की हल्के या गहरे हरे रंग की चित्तियाँ पड़ जाती हैं। स्वस्थ पौधों की तुलना में रोगी पौधों में शाखाओं की संख्या बढ़ जाती है, वो बौने रहकर झाड़ियों जैसे हो जाते हैं और उनमें फूल तथा फलियाँ नहीं बनते। संक्रमण की शुरुआत से लेकर करीब डेढ़ महीने में फसल के पूरी तरह से बर्बाद होने की दशा बन जाती है। अरहर की फसल पर यदि बाँझ रोग का प्रकोप ज़रा देरी से हो तो बाँझपन आंशिक होता है तथा नुकसान कम होता है। इसे आंशिक बंध्यता कहते हैं। फसल पकने पर स्वस्थ पौधे परिपक्व होकर कर सूखने लगते हैं जबकि बाँझ रोग से पीड़ित पौधे लम्बे समय तक हरे ही रहते हैं।
कैसे करें पर्ण बाँझ रोग की रोकथाम?
अरहर की फसल को बाँझ रोग से बचाने का सबसे आसान और सस्ता उपाय है बुआई में रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल। अखिल भारतीय समन्वित अरहर सुधार परियोजना के तहत भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान ने देश के विभिन्न इलाकों के लिए उपयुक्त बाँझ रोधी प्रजातियाँ विकसित की हैं। ऐसे उन्नत बीजों के इस्तेमाल के अलावा अरहर के खेतों में साफ़-सफ़ाई का ख़ास ध्यान रखाना चाहिए। जिस खेत में अरहर बोना हो उसके आस-पास से पुराने तथा अपने आप उगे अरहर के पौधों को नष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि बाँझ रोग के वायरस और उन्हें फैलाने वाले कीड़े इन्हीं पौधों पर उस वक़्त पनपते हैं, जब खेत खाली होते हैं।
ये भी पढ़ें- अरहर स्पेशल पार्ट-1: जानिए, कौन हैं अरहर या तूअर (Pigeon Pea) के 10 बड़े दुश्मन और क्या है इनसे निपटने का वैज्ञानिक इलाज
बहरहाल, अरहर की खड़ी फसल में जैसे ही बाँझ रोग से पीड़ित पौधा नज़र आये, वैसे ही उसे उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। साथही, घर या खलिहानों के आस-पास भी पुराने अरहर के पौधों को उगने नहीं देना चाहिए। बाँझ रोग की प्रारम्भिक अवस्था में यदि इसके लक्षण कहीं दिखाई दें तो अरहर की बुआई के 25 दिन बाद प्रोपरगाइट 0.1% और फेनाजाक्विन 0.1% का छिड़काव करें। पहले छिड़काव के 15 दिन बाद इन्हीं रसायनों का दूसरा छिड़काव भी करें।
6. पीला चितेरी रोग (Yellow Mosaic Disease)
पीला चितेरी रोग भी एक विषाणु (वायरस) जनित रोग है। इसके वायरस को ‘मूँगबीन पीली चितेरी विषाणु’ (Mung bean yellow mosaic virus) कहते हैं। अरहर की फसल पर इस वायरस को सफ़ेद मक्खी या ‘बेमिसिया टेबासाई’ (Bemisia tabaci) नामक कीट फैलाते हैं। इसका रोग का संक्रमण उस वक़्त नज़र आता है जबकि अरहर की फसल अपना आधा सफ़र पूरा करने वाली होती है। इस रोग की वजह से पैदावार बुरी तरह से गिर जाती है।
अरहर में होने वाले पीला चितेरी रोग का लक्षण
रोग के प्रारम्भिक लक्षण के रूप में पत्तियों पर पीले चितकबरे धब्बे दिखायी देते हैं, जो अनुकूल माहौल पाकर तेज़ी से फैलते हैं और इसकी वजह से देखते ही देखते अरहर की पत्तियों पर बड़े-बड़े पीले धब्बे बन जाते हैं। अक्सर, पत्तियाँ पूरी तरह से पीली पड़ जाती हैं। सामान्य मौसम की फसल की तुलना में ग़ैर-मौसमी बुआई वालों फसल में पीला चितेरी रोग का संक्रमण होने की आशंका ज़्यादा होती है, क्योंकि इसकी बीमारी की रोगवाहक सफ़ेद मक्खियों की पहली पसन्द अरहर नहीं है, बल्कि ये तो अन्य मेज़बान पौधों की ग़ैर-मौजूदगी में ही अरहर को अपना आशियाना और शिकार बनाते हैं।
कैसे करें पीला चितेरी रोग की रोकथाम?
सही वक़्त पर रोग प्रतिरोधी नस्लों के बीजों की बुआई और फसल का सही रखरखाव तथा निगरानी करके पीला चितेरी रोग को तेज़ी से फैलने से बचाया जा सकता है। जिस खेत में अरहर की बुवाई करनी हो उसमें खरपतवार नहीं होना चाहिए। पीला चितेरी रोग से संक्रमित पौधों को शुरुआत में ही उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। बीमारी को फैलाने वाली सफ़ेद मक्खी के नियंत्रण के लिए खेत में पीला चितेरी रोग के लक्षण दिखते ही मेटासिस्टाक्स (0.1 प्रतिशत) का 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर 2 से 3 बार छिड़काव करना चाहिए।
आगे पढ़िए अरहर स्पेशल पार्ट-3: जानिए क्या है अरहर की खेती का वैज्ञानिक तरीका? किस प्रजाति का बीज है आपके लिए सबसे उम्दा?
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