फव्वारा सिंचाई पद्धति (Water Sprinkler System): पानी के बग़ैर खेती की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन एक ओर जहाँ खेती के लिए सुलभ पानी की कुल मात्रा दिनों-दिन घट रही है, वहीं बढ़ती की पोषण सम्बन्धी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खेती की पैदावार और पानी की माँग, दोनों ही बढ़ रही है। पानी की ऐसी किल्लत का समाधान सिर्फ़ सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी की बचत करके ही किया जा सकता है।
इस लिहाज़ से फव्वारा सिंचाई पद्धति (Water Sprinkler System) की खोज ने किसानों की ज़बरदस्त मदद की है। इससे किसान कम पानी और कम लागत में ज़्यादा फसल उगाने में सफल हुए हैं। इसीलिए फव्वारा सिंचाई की लोकप्रियता तेज़ी से बढ़ भी रही है।
वक़्त की माँग है फव्वारा और टपक सिंचाई
देश में उपलब्ध कुल पानी का करीब 78 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के काम आता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से मॉनसूनी बारिश की न सिर्फ़ कुल मात्रा घटी है, बल्कि ये अनियमित भी होती जा रही है। इससे किसानों पर सिंचाई के लिए अन्य उपाय अपनाने का दबाब भी लगातार बढ़ रहा है। उधर, खेती के अलावा अर्थव्यवस्था की अन्य गतिविधियों में भी पानी की माँग में तेज़ी क़ायम है। कई इलाकों में तो गर्मियों में पीने का पानी का संकट इतना बढ़ जाता है कि वहाँ के लोगों के संघर्ष को देखकर दिल दहल जाता है।
खेती के लिए लगातार घटता पानी
नीति आयोग की एक रिपोर्ट में भविष्य में पानी की भारी किल्लत का ख़ाका खींचा गया है। अनुमान है कि साल 2050 तक अभी के मुक़ाबले खेती के लिए पानी की उपलब्धता घटकर 68 प्रतिशत तक आ जाएगी। इसीलिए तमाम वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर खेती-किसानी में पानी की खपत को 50 प्रतिशत से नीचे लाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जा रहा है। फ़िलहाल, देश में खेती की सिंचाई के लिए जितने पानी का इस्तेमाल हो रहा है, उसमें एक-तिहाई योगदान उस भूजल का है जिसके अन्धाधुन्ध दोहन से उसका स्तर भी बेहद नीचे गिर चुका है। इतना कि 6,000 से ज़्यादा इलाकों को ब्लैक ज़ोन घोषित किया जा चुका है।
अब भी बारानी है देश की आधी खेती
भूजल विज्ञानियों की सलाह है कि ब्लैक ज़ोन में भूजल को अब और नहीं निकाला जाना चाहिए। ज़्यादा गहराई से भूजल निकालने की लागत भी बहुत ज़्यादा होती है। इससे खेती की कमाई घट जाती है। तमाम सरकारी और निजी कोशिशों के बावजूद अभी तक देश की कुल खेती योग्य ज़मीन में से बमुश्किल आधे को ही सिंचाई सुविधाओं से जोड़ा जा सका है। यानी, आधी खेतीहर ज़मीन अब भी बारानी या पूरी तरह से बारिश पर ही निर्भर है। अभी तक जिन इलाकों को भी नहरीय सिंचाई की परम्परागत ‘प्रवाह विधि’ से जोड़ा जा चुका है, वहाँ भी पानी के उपयोग की दक्षता पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया जा रहा।
ये भी वैज्ञानिक तथ्य है कि सिंचित खेतों के मुक़ाबले बारानी खेतों से मिलने वाले पैदावार करीब 25 से 30 प्रतिशत कम होती है। इसका मतलब ये हुआ कि यदि हम अपनी सिंचाई दक्षता को सफलतापूर्क बढ़ा सकें तो बारानी इलाकों के किसानों की ज़िन्दगी का कायाकल्प हो सकता है। पानी की किल्लत से उबरने के लिए सिंचाई की दो उन्नत विधियों यानी फव्वारा और टपक या बूँद-बूँद (sprinkler and drip irrigation) विधि से ज़्यादा से ज़्यादा खेती को जोड़ने की ज़रूरत है। देश की जितनी ज़्यादा खेतीहर ज़मीन ने इन आधुनिक सिंचाई तकनीक से जोड़ा जा सकेगा, उतनी ही हमारी पानी-दक्षता, पैदावार और आमदनी बढ़ेगी।
फव्वारा सिंचाई की ख़ूबियाँ
फब्बारा सिंचाई पद्धति के ज़रिये फसलों पर बारिश की तरह पानी की बौछारें डाली जाती हैं। नहरों और ट्यूब वेल से होने वाली प्रवाह विधि के मुक़ाबले फव्वारा सिंचाई में पानी की ख़पत काफ़ी कम होती है। इससे कम पानी में ज़्यादा रक़बे की सिंचाई हो जाती है और इस तरह सिंचाई की लागत में बचत होती है। फब्बारा सिंचाई पद्धति की वजह से खेत में जल भराव की दशा भी पैदा नहीं होती। इसमें खेत के ढलान के अनुरूप भी सिंचाई की जा सकती है। इससे मिट्टी की सबसे ऊपरी उपजाऊ परत का क्षरण (erosion) नहीं होता।
फव्वारा सिंचाई विधि में खाद और अन्य पोषक तत्वों के पानी के साथ बह जाने की खतरा भी नहीं होता। इससे पौधों को समान मात्रा में पानी मिलता है। उनकी बढ़वार में एकरूपता रहती है और पैदावार ज़्यादा मिलती है। कम पानी की ज़रूरत वाले अनाजों के अलावा दलहनी और तिलहनी फसलों के लिए फव्वारा सिंचाई विधि बेहद उपयोगी साबित हुई है। इसीलिए कम पानी वाले इलाकों में ज़्यादा से ज़्यादा किसान अपने खेतों को फव्वारा सिंचाई से जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं।
फव्वारा और ड्रिप जैसी सूक्ष्म सिंचाई विधियों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी अनुदान के ज़रिये भी किसानों की ख़ूब मदद की जा रही है। यही वजह है कि राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, हरियाणा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ में अब तक 93 प्रतिशत से ज़्यादा खेतीहर ज़मीन को सूक्ष्म सिंचाई विधियों के दायरे में लाया जा चुका है। इस लिहाज़ से राजस्थान की उपलब्धियाँ सबसे आगे है। फव्वारा सिंचाई विधि के तहत आने वाले देश के कुल इलाकों में राजस्थान की हिस्सेदारी एक-तिहाई से ज़्यादा है। दूसरी ओर आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में बूँद-बूँद सिंचाई वाली ड्रिप इरीगेशन के प्रति किसानों में ज़्यादा रुझान दिखाया है।
फव्वारा सिंचाई पद्धति का प्रभाव
ICAR-भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, पूसा, दिल्ली के विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन में पाया कि फव्वारा सिंचाई विधि की वजह से रबी फसलों चना, तोरिया और सरसों के बुआई क्षेत्रफल में 21 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है जबकि गेहूँ का रक़बा 56 प्रतिशत बढ़ा है। इसी तरह खरीफ फसलों के लिहाज़ से देखें तो ग्वार में 42 प्रतिशत तथा बाजरा में 149 प्रतिशत की बुआई क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी हुई है, बल्कि प्रति हेक्टेयर पैदावार में भी इज़ाफ़ा हुआ है। फव्वारा सिंचाई की वजह से ग्वार की 15 प्रतिशत और बाजरा की 41 प्रतिशत पैदावार बढ़ गयी, जबकि गेहूँ के मामले में ये 6 प्रतिशत और चना के लिए तो 43 प्रतिशत की बम्पर ऊँचाई पर पहुँच गया।
सूक्ष्म सिंचाई को सरकारी प्रोत्साहन
सिंचाई की माँग और प्रबन्धन रणनीति के तौर पर 2005-06 में केन्द्र सरकार ने सूक्ष्म सिंचाई को एक प्रायोजित योजना के रूप में शुरु किया। इसकी समीक्षा के बाद वर्ष 2010 में ‘सूक्ष्म सिंचाई पर राष्ट्रीय मिशन’ और वर्ष 2014 में इसे ‘सतत कृषि में राष्ट्रीय मिशन’ का हिस्सा बनाया गया तथा 2015 में इसे प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना से जोड़ दिया गया। इसे लोकप्रिय बनाने के लिए ‘हर खेत को जल’ तथा ‘प्रति बूँद अधिक उपज’ के नारों से भी इसे जोड़ा गया।
ऐसे सरकारी प्रयासों का ज़मीनी असर ये रहा कि अब तक करीब 1 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन को फव्वारा या टपक सिंचाई विधि के दायरे में लाया जा चुका है। लेकिन यदि इस प्रगति की तुलना देश की करीब 7 करोड़ हेक्टेयर असिंचित ज़मीन से की जाए तो अभी तक बमुश्किल 14 फ़ीसदी ज़मीन को ही आधुनिक सिंचाई तकनीक से जोड़ा जा सका है। ज़ाहिर है, किसानों को अभी इस लिहाज़ से बहुत लम्बा सफ़र तय करना है।
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