कृषि मंत्रालय ने साल 2020-21 के लिए प्रमुख फसलों की कुल पैदावार का तीसरे अग्रिम अनुमान का ब्यौरा जारी किया है। राज्यों और अन्य स्रोतों से मिले आँकड़ों के मुताबिक, देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 30.544 करोड़ टन रहने का अनुमान है। ये वर्ष 2019-20 के वास्तविक उपज से करीब 8 करोड़ टन ज़्यादा हो सकता है।
वैसे, सरकार की ओर से उपरोक्त आँकड़ों के साथ ही 2005-06 से अभी तक की प्रमुख फसलों के उत्पादन का तुलनात्मक ब्यौरा भी सुलभ करवाया गया है। इसके अनुसार तीसरे अग्रिम अनुमान के तहत, 2020-21 के दौरान प्रमुख फसलों का सम्भावित उत्पादन इस प्रकार है:
खाद्यान्न – 30.544 करोड़ टन (रिकॉर्ड)
- चावल – 12.146 करोड़ टन (रिकॉर्ड)
- गेहूँ – 10.875 करोड़ टन (रिकॉर्ड)
- मोटा अनाज – 4.966 करोड़ टन
- मक्का – 3.024 करोड़ टन (रिकॉर्ड)
दालें – 2.558 करोड़ टन
- अरहर – 0.414 करोड़ टन
- चना – 1.261 करोड़ टन (रिकॉर्ड)
तिलहन – 3.657 करोड़ टन
- मूँगफली – 1.012 करोड़ टन (रिकॉर्ड)
- रेपसीड और सरसों – 0.999 करोड़ टन (रिकॉर्ड)
- सोयाबीन – 1.341 करोड़ टन
गन्ना – 39.28 करोड़ टन
कपास – 3.649 करोड़ गाँठें (प्रत्येक 170 किग्रा)
जूट और मेस्टा – 0.962 करोड़ गाँठें (प्रत्येक 180 किग्रा)
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कितना खुशी, कितनी मायूसी?
ये आँकड़े जितना खुशी और सन्तोष देने वाले हैं, उससे कहीं ज़्यादा मायूसी भरे हैं, क्योंकि बीते कई वर्षों की तरह भारत अब भी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा चावल और गेहूँ पैदा कर रहा है, जबकि दलहन और तिलहन के लिहाज़ से हम अब भी आत्मनिर्भरता से कोसों दूर हैं और आयात से ही अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए मज़बूर हैं। आँकड़े बताते हैं कि वैसे तो देश में मूँगफली, रेपसीड और सरसों का उत्पादन रिकॉर्ड स्तर पर पहुँचा है, लेकिन देश की माँग को पूरा करने के लिए अब भी हमें 60 फ़ीसदी खाद्य तेलों का आयात करना पड़ता है।
यही हाल दलहन का है, जहाँ चने की पैदावार भले ही रिकॉर्ड स्तर पर हो तो बाकी दालों का उत्पादन अब भी माँग से ख़ासा कम पड़ती है और इसीलिए देश को इनका भी आयात करना पड़ता है। ये आलम तब है, जबकि सरकार ने दलहल और तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को उन्नत किस्म के बीजों को मुफ़्त मुहैया करवाने जैसे कई आकर्षक योजनाएँ चला रखी हैं और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की सुरक्षा भी दी जा रही है।
ऐसे उपायों के बावजूद दलहन और तिलहन के मामले में देश का आत्मनिर्भरता से दूर होना दशकों से सोचनीय बना हुआ है। ये सवाल अब भी बहुत गम्भीर है कि दलहन और तिलहन को लेकर खेती-किसानी से जुड़े विशेषज्ञ और उनकी सरकारी नीतियाँ साल दर साल अपेक्षित नतीज़ें क्यों नहीं दे पा रहीं? हरित क्रान्ति और श्वेत क्रान्ति जैसा प्रदर्शन दालों और खाद्य तेलों के मामले में भारत क्यों नहीं कर पा रहा? क्यों किसानों को दलहन और तिलहन की खेती, परम्परागत चावल और गेहूँ से ज़्यादा आकर्षक नहीं लग पा रही?