भारत सरकार ने 2016-17 के बजट में किसानों की दशा सुधारने के साथ ही, उनकी आय को 2022 तक दोगुना करने का लक्ष्य रखा था। पिछले साल इसी से जुड़े एक सवाल का जवाब जब कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से पूछा गया था तो उन्होंने संसद में जवाब दिया था, “सरकार किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य पर काम कर रही है।” सरकार आय को दोगुना (Doubling the Farmers’ Income) करने के इस लक्ष्य में प्राकृतिक खेती की भूमिका पर ज़ोर दे रही है। महंगे खाद, बीज और महंगी मशीनों ने खेती की लागत को बढ़ा दिया है। इनके इस्तेमाल से किसानों की उपज में बढ़ोतरी तो हुई है, लेकिन लागत का पैसा भी बढ़ा है। किसानों की अक्सर शिकायत रहती है कि लागत का पैसा तो बढ़ता जा रहा है, लेकिन उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। बीते साल 2021 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘बैक टू बेसिक’ मंत्र के साथ किसानों से प्राकृतिक खेती (Natural Farming) को अपनाने की अपील की। आसान शब्दों में कहें तो ‘ज़ीरो बजट खेती’ या प्राकृतिक खेती का सीधा मतलब खेती की बाहरी लागत को ख़त्म करके किसानों की आमदनी बढ़ाने की कोशिश करना है।
पीएम मोदी (PM Narendra Modi) ने कहा कि खेती को कैमिस्ट्री की लैब से निकालकर प्रकृति की प्रयोगशाला से जोड़ने की ज़रूरत है। उन्होंने आगे कहा कि ये बात सही है कि केमिकल और फर्टिलाइज़र ने हरित क्रांति (Green Revolution) में अहम रोल निभाया है, लेकिन अब इसके विकल्पों पर भी साथ ही साथ काम करते रहना होगा। यहां हम ऐसे प्रगतिशील किसानों के बारे में आपको बताने जा रहे हैं, जो कई सालों से प्राकृतिक पद्धति से खेती कर रहे हैं और इसे बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने का श्रेय इन किसानों को जाता है।
कंवल सिंह चौहान, सोनीपत, हरियाणा
पद्मश्री सम्मानित कंवल सिंह चौहान ने सोनीपत ज़िले के अटेरना गाँव और आसपास के दर्ज़नों गाँवों के करीब दस हज़ार किसानों की ज़िन्दगी बदल दी। 1980 में 18 साल की उम्र में कंवल सिंह ने अपने इलाके के सामान्य किसानों की तरह बासमती धान की खेती में हाथ आज़माया। 1985 में फसल गंभीर बीमारी से ग्रसित हो गई। कीटनाशकों, बायोगैस और जैविक उपचारों से भी बीमारी काबू में नहीं आई। इसके बाद कंवल सिंह ने बेहतर आमदनी के लिए बेबी कोर्न, स्वीट कोर्न, मशरूम और टमाटर की खेती शुरू कर दी। उपज को दिल्ली ले जाकर बेचने लगे। कंवल सिंह के बिज़नेस मॉडल की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वो किसानों को खेती से पहले उनकी उपज ख़रीदने की गारंटी देते हैं।
2005 में कंवल सिंह, प्रोसेसिंग की दुनिया में दाख़िल हुए। किसानों को दाम की गारंटी देने की क़ाबलियत की बदौलत उन्हें इतनी ज़्यादा उपज मिलने लगी कि देखते ही देखते उन्हें प्रोसेसिंग यूनिट्स की संख्या को बढ़ाना पड़ा। आज उनके चार प्रोसेसिंग यूनिट्स हैं और वो ख़ुद निर्यातक भी हैं।
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प्रेम सिंह, बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश
‘तपता रेगिस्तान’ कहे जाने वाले बुंदेलखंड में तरक्की की फसल उगाने का श्रेय प्रेम सिंह को जाता है। आज की तारीख में देश-विदेश के किसान प्रेम सिंह से प्राकृतिक खेती के गुर सीखने आते हैं। 1987 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पास आउट होने के बाद प्रेम सिंह ने खेती का रूख किया। परिवार वालों ने उनके इस फैसले पर असंतोष जताया, लेकिन वो खेती करने का मन बना चुके थे। 1989 में उन्होंने वैकल्पिक खेती का रास्ता चुना। तब से लेकर अब तक प्रेम सिंह खेती में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करते। कर्जे से मुक्ति और लागत को घटाने के लिए प्रेम सिंह ने खेती का स्वरूप बदला। अपनी खाद खुद बनाने लगे, बीज भी तैयार करने लगे, ट्रैक्टर की जगह बैल से खेती करने लगे। इस तरह से पैसा घर में ही रहने लगा। इन चीज़ों को खरीदने में जो पैसा खर्च होता था, वो बचने लगा। 1995 आते-आते प्रेम सिंह ने फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट्स की भी शुरुआत कर दी। वो अपनी उपज से 40 से 42 उत्पाद प्रोसेस करते हैं।
प्रेम सिंह ने लागत का पैसा कैसे कम किया जाए, इसके लिए एक पूरा मॉडल तैयार किया है। उन्होंने अपने इस मॉडल को आवर्तनशील खेती का नाम दिया है। ये आवर्तनशील खेती का मॉडल कैसे काम करता है, प्रेम सिंह ने इसके बारे किसान ऑफ़ इंडिया को बताया। आगे प्रेम सिंह कहते हैं कि पशु के बिना खेती संभव ही नहीं है। हर एक पशु की अपनी भूमिका है।
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कान सिंह निर्वाण, सीकर, राजस्थान
कान सिंह निर्वाण दावा करते हैं कि किसान की आय दोगुना ही नहीं, बल्कि दस गुना तक हो सकती है। उनके पास ऐसे तरीके हैं जिससे किसान 10 गुना आमदनी अर्जित कर सकता है। कान सिंह निर्वाण प्रधानमंत्री और राजस्थान के मुख्यमंत्री की सलाहकार समितियों में शामिल हैं। कान सिंह निर्वाण ने किसान ऑफ़ इंडिया से ख़ास बातचीत में किसानों की आय को 10 गुना कैसे किया जाए, इसके तरीके हमसे साझा किए। कान सिंह पूरी तरह से प्राकृतिक गौ आधारित खेती करते हैं। वो देश ही नहीं, विदेश से आने वाले किसानों और युवाओं को ऑर्गेनिक फ़ार्मिंग की ट्रेनिंग देते हैं। खास बात ये है कि खेती-किसानी सिखाने के लिए कान सिंह कोई पैसे नहीं लेते। वो नि:शुल्क ये सेवा प्रगतिशील किसानों को दे रहे हैं।
उनका मानना है कि एक किसान गौ आधारित खेती करके अच्छी फसल उगा सकता है और अच्छी आय अर्जित आय कर सकता है। केमिकल फर्टिलाइज़र के इस्तेमाल से उत्पादन तो बढ़ जाता है लेकिन फसल की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर पड़ता है। किसान को उत्पादन की मात्रा पर नहीं, बल्कि उसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की ज़रूरत है। कान सिंह बताते हैं कि उन्होंने खूद आज तक एक रुपया भी सरकार से सब्सिडी का नहीं लिया। डायरेक्ट मार्केटिंग से ही वो अपनी फसल बेचते हैं। कान सिंह बताते हैं वो अपनी फसल का मूल्य खूद तय करते हैं।
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कैलाश चौधरी, कोटपूतली, राजस्थान
कैलाश चौधरी पिछले 60 साल से खेती कर रहे हैं। किसान ऑफ़ इंडिया से बातचीत में कैलाश चौधरी ने खेती से जुड़े कई पहलुओं पर हमसे बात की। 1993-94 वो दौर था जब दुनियाभर में प्राकृतिक खेती की चर्चा होने लगी थी। कैलाश चौधरी कहते हैं कि भारत में भी अधिक पैदावार के लिए हरित क्रांति पर ज़ोर दिया जा रहा था, लेकिन केमिकल युक्त खेती होने के नकारात्मक परिणाम भी सामने आने लगे थे। इस संकट से कैसे निपटा जाए, इसके लिए उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से संपर्क किया। कैलाश चौधरी ने वैज्ञानिकों की सलाह पर 1994 से प्राकृतिक खेती करना शुरू कर दिया। तब से लेकर अब तक वो पूरी तरह से जैविक खेती कर रहे हैं।
1998 में उन्होंने अपने फ़ार्म में आंवले के 80 पेड़ लगाए, लेकिन उपज के लिए कोई खरीदार नहीं मिला। फसल रखे-रखे सड़ गई। फिर एक वैज्ञानिक ने उन्हें आंवले के बाय-प्रॉडक्ट्स बनाने की सलाह दी। 2002 से उन्होंने आंवले से प्रॉडक्ट्स बनाने की शुरुआत कर दी। कोटपूतली में आंवले का बड़ा बाज़ार न होने की वजह से जयपुर स्थित पंत कृषि भवन में उन्हें स्टॉल लगाने की इजाज़त मिली। बगैर कोई पैसे खर्च किए, कोई लाइसेंस बनाये, उन्होंने अपने प्रॉडक्ट्स को बेचना शुरू कर दिया। प्रॉडक्ट्स बहुत तेज़ी से बिकने लगे। वैन में प्रॉडक्ट्स ले जाते और लंच तक बेचकर आ जाते। इससे कैलाश चौधरी का मनोबल बड़ा।
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रावलचंद पंचारिया, जोधपुर, राजस्थान
करीबन चार साल प्राइवेट नौकरी, फिर अपना बिज़नेस करने वाले रावलचंद पंचारिया ने 2014 में पुश्तैनी ज़मीन पर जैविक खेती (Organic Farming) की शुरुआत की। उन्हें काले गेहूं की उन्नत फसल, सफेद शकरकंद और नींबू की किस्म पतर चटा ईज़ाद करने का श्रेय जाता है। उन्होंने इन किस्मों को सिलेक्शन विधि के ज़रिए विकसित किया। रावलचंद कहते हैं कि शरीर को स्वस्थ रखना सबसे ज़रूरी है। शरीर तभी स्वस्थ होगा जब अनाज अच्छा होगा। इसीलिए उन्होंने शुरू से ही जैविक खेती को ही प्राथमिकता दी। वो जैविक पद्धति से ही अपने सारे प्रयोग और किस्म तैयार करते हैं। यही उनकी खासियत है।
उन्होंने अपने महालक्ष्मी जैविक कृषि फ़ार्म में केंचुआ खाद समेत कई जैविक उत्पादों की यूनिट्स लगा रखी हैं। वो कहते हैं कि पशुपालन के बिना जैविक खेती संभव ही नहीं है। केंचुआ खाद, गौमूत्र, नाइट्रोजन की आपूर्ति पशुपालन से ही होती है। उन्होंने अपने फ़ार्म में थारपरकर नस्ल की 8 से 10 गायें पाली हुई हैं। कई किसान उनसे जैविक खेती के गुर सीखने आते हैं। आज करीबन 500 किसान उनसे जुड़े हुए हैं।
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भारत में ज्यादातर छोटे किसान हैं, जिनके लिए हाई क्वालिटी फर्टिलाइजर, पैदावार बढ़ाने के लिए दूसरे केमिकल, खाद ओर महंगे बीज खरीदना मुश्किल है। यही वजह है कि किसान क़र्ज़ में फंस जाता है। ऐसे किसानों के लिए ज़ीरो बजट खेती फ़ायदेमंद साबित हो सकती है। पीएम मोदी भी अपने भाषण में इस बात का ज़िक्र कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि ‘नैचुरल फार्मिंग’ से जिन्हें सबसे अधिक फ़ायदा होगा, वो हैं देश के 80 प्रतिशत ऐसे छोटे किसान, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है। क्योंकि खेती-बाड़ी के काम में किसानों का केमिकल फर्टिलाइज़र पर काफ़ी ख़र्च होता है। इसीलिए अगर वो प्राकृतिक खेती या ‘ज़ीरो बजट खेती’ को तेज़ी से अपनाएंगे तो उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी।
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