हरियाणा के कृषि विभाग ने धान की खेती की तैयारी करने वाले किसानों को इन दिनों खाली पड़े खेतों में मूँग और ढेंचा की बुआई करने का मशविरा दिया है। ताकि, धान की रोपाई से पहले तक खेतों को हरी खाद (green manure) की पर्याप्त मात्रा के ज़रिये उपजाऊ बनाया जा सके। ऐसे किसानों को हरी खाद के लिए प्रोत्साहित करने के लिए 80 फ़ीसदी अनुदान देकर ढेंचा के बीज मुहैया करवाये जा रहे हैं।
हरियाणा के किसानों को हिदायत दी गयी है कि वो जल्द से जल्द अपने किसी भी पहचान पत्र की कॉपी मुहैया करवाकर राज्य बीज विकास निगम की दुकानों से बीज लेकर हरी खाद की फसल ढेंचा की बुआई करें। किसानों को अधिकतम पाँच एकड़ ज़मीन के हिसाब से रियायती दाम पर बीज बेचे जाएँगे। उन्हें बीज का महज 20 फ़ीसदी दाम देना होगा। बाक़ी की भरपाई हरियाणा सरकार करेगी।
क्या है हरी खाद की महिमा?
ज़मीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए सदियों से किसान फसल चक्र के नियमों को अपनाते रहे हैं। लेकिन आधुनिक दौर में सिंचाई के साधन और रासायनिक खाद का प्रचलन बढ़ने की वजह से किसानों में फसल चक्र के प्रति उदासीनता बढ़ती चली गयी। इसीलिए कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों को फिर से उन फसलों की बुआई के लिए प्रोत्साहित करना शुरू किया है जिससे मिट्टी का पोषण होता है।
दलहन की अनेक फसलों को खेत का टॉनिक माना जाता है। जैसे खरीफ की फसलों से पहले मूँग, उड़द, ढेंचा, लोबिया और रबी की फसलों से पहले मसूर, अरहर और चना की खेती करने पर इसलिए बहुत ज़ोर होता था क्योंकि इन फसलों की जड़ों में ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जो वातावरण से नाइट्रोजन को खींचकर ज़मीन में मिलाते हैं।
इसीलिए इन फसलों के अवशेष को भी 45-50 दिनों बाद खेतों में ही जोतकर सिंचाई कर दी जाती है ताकि वो जल्दी से सड़-गलकर खाद में तब्दील हो जाएँ। इसे ही ‘हरी खाद की खेती’ कहते हैं।
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किफ़ायती और बेजोड़ है हरी खाद
ढेंचा की खेती से कम लागत में अच्छी मात्रा में हरी खाद मिलती है। इसकी वजह से प्रति एकड़ में 22-30 किलोग्राम नाइट्रोजन की भरपाई हो जाती है और मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ बढ़ने से उसकी पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है। इस तरह वो उपजाऊ बन जाती है। हरी खाद का दूसरा पहलू ये है कि यदि बाज़ार से नाइट्रोजन खाद को खरीदकर खेत में डालें तो अन्य उर्वरक तत्वों की भरपाई नहीं हो पाती, जबकि प्राकृतिक हरी खाद में वो सारे तत्व बेहद सन्तुलित मात्रा में होते हैं जिनकी मिट्टी को ज़रूरत होती है। इसीलिए हरी खाद को बेजोड़ माना जाता है।
हरी खाद की वजह से मिट्टी को भुरभुरा होने, उसमें हवा का आवागमन होने, जलधारण क्षमता में वृद्धि होने के अलावा उसके अम्लीय या क्षारीय तत्वों में भी सुधार होता है। इससे मिट्टी को पोषण देने वाले जीवाणु बढ़ते हैं, जो उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाते हैं। लिहाज़ा, मुख्य फसल में खाद और कीटनाशकों की ज़रूरत काफी घट जाती है।
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हरी खाद वाली फसलें
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनैइ (सनहेम्प), ढैंचा, लोबिया, उड़द, मूँग, ग्वार आदि की खेती करते हैं। क्योंकि इनकी जड़ों में वातावरण से नाइट्रोजन खींचने वाले जीवाणु पाये जाते हैं। ज़्यादा पत्तियों वाली ये फसलें कम वक़्त में तेज़ी से बढ़ती हैं। इन्हें बहुत कम उर्वरक तथा पानी की ज़रूरत पड़ती है। इस तरह हरी खाद की फसलों से खेतों को कम लागत में ज़्यादा कार्बनिक तत्व मिल जाते हैं।
अधिक वर्षा वाले खेतों में सनई का उपयोग करते हैं तो सूखे वाले इलाकों के लिए ढैंचा को उम्दा पाया गया है। कम वर्षा वाली, रेतीली और कम उपजाऊ खेतों को लिए ग्वार को उपयुक्त माना जाता है। लोबिया को अच्छी जल निकास वाली क्षारीय मिट्टी के लिए मुफ़ीद मानते हैं तो मूँग और उड़द को खरीफ से पहले गर्मियों में ऐसी ज़मीन पर बोना चाहिए जहाँ जल भराव नहीं होता हो। इनकी फलियों की अच्छी कमाई भी होती है और बाक़ी पौधा हरी खाद का काम करता है।
हरी खाद की फसल की खेती
हरी खाद वाली फसल के बीजों को उचित नमी के समय परती खेतों में छिड़ककर एक जुताई करके पाटा चला दिया जाता है। यदि खेत की मिट्टी ज़्यादा अनुपजाऊ हो तो 40-50 किलो प्रति हेक्टेयर फास्फोरस तथा 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर पोटाश भी डाला जाता है।
ताकि 40 से 60 दिन के बाद जब हरी खाद की फसल की गहरी जुताई की जाए तो इसे मिट्टी में गलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगे। ढैंचा या सनई की फसल को हरी खाद के रूप में पलटने के बाद धान के खेतों में कीचड़ बनाकर धान की रोपाई फ़ौरन भी की जा सकती है।