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खेती-किसानी की दुनिया को बीते दिनों इस अफ़वाह ने झकझोर डाला कि ‘बिहार के एक किसान ने उस हॉप शूट्स (Hop shoots) की खेती की है जो एक लाख रुपये किलो के भाव से बिकता है।’ सनसनीखेज़, शरारतपूर्ण और दुष्प्रचार के इरादे से रचे गये इस झूठ को एक मीडिया संस्थान ने प्रकाशित किया तो तमाम पत्रकारीय मर्यादाओं को ताक़ पर रखकर, आगा-पीछा सोचे बग़ैर दर्ज़नों जाने-माने मीडिया संस्थान भी भेड़-चाल में कूद गये और देखते ही देखते पूरी बेशर्मी से निख़ालिस झूठी जानकारी को पूरे देश में परोस दिया।
बिल्कुल ऐसी ही अफ़वाहबाजी 21 सितम्बर 1995 को भी हुई थी, जब अचानक सारी दुनिया में गणेश जी की मूर्तियाँ दूध पीने लगी थीं। ऐसा ही निपट झूठ 8 नवम्बर 2016 को नोटबन्दी के मौके पर फैलाया गया कि 2000 रुपये के नोट में ऐसी ‘नैनो जीपीएस चिप’ लगी है जो इसे धरती तो क्या पाताल में भी छिपा होने पर ढूँढ़ लेगी! ऐसा ही भ्रम पिछले साल, 2020 में भी फैलाया गया कि ताली-थाली बजाने, दीया जलाने और ‘गो कोरोना गो’ का नारा लगाने से कोरोना भाग जाएगा। जबकि इसका आह्वान करते वक़्त प्रधानमंत्री की मंशा कोरोना के प्रति जागरूकता बढ़ाने की थी।
हॉप शूट्स की खेती से जुड़ा सच (Truth About Hop Shoots Cultivation)
ऐसी असंख्य मिसालें साबित करती हैं कि भारतीय समाज में झूठ की खेती करना शायद बहुत आसान है। अफ़सोसनाक ये भी है कि हमारी शासन-व्यवस्था शायद ऐसी घटनाओं से कोई सबक नहीं लेती और दुर्भावनाएँ फैलाने वालों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं होती। हालाँकि, यदि हम ज़रा पीछे घूमकर इन घटनाओं का विश्लेषण करें तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। बहरहाल, Hop Shoots को लेकर फैलाये गये ऐसे झूठ ने हमें मज़बूर किया कि हम किसान ऑफ़ इंडिया के पाठकों को इतना तो ज़रूर बताएँ कि आख़िर ये Hops या Hop Shoots है क्या बला? क्या है इसकी ख़ासियत? क्या है इसका इतिहास-भूगोल?
क्या हैं Hops? (What Is Hop Plant?)
Hops का हिन्दी नाम राज़क (Raazak) और वानस्पतिक (लैटिन) नाम Humulus lupulus है। इसका नाता भाँग (Cannabaceae) के ख़ानदान से है, क्योंकि इसमें ऐसा तत्व पाये जाते हैं जिनका इस्तेमाल कभी अनिद्रा (insomnia) और बेचैनी की तकलीफ़ झेल रहे लोगों को राहत पहुँचाने के लिए होता था। हालाँकि, आज हॉप्स का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल बीयर उद्योग में होता है। इसी की वजह से बीयर की ख़ास गन्ध पैदा होती है और उसमें झाग बनता है।
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Hop Plant, लतर या बेल की तरह बढ़ती है। भाँग या खजूर की तरह इस dioecious प्रजाति का मादा और नर पेड़ अलग-अलग होता है। दोनों पर ही फूल लगते हैं जिन्हें हॉप्स (Hops) कहते हैं । लेकिन खेती सिर्फ़ मादा फूलों की होती है। इन्हें नर फूलों के सम्पर्क में आने से बचाया जाता है। क्योंकि निषेचित (Fertilize) होते ही मादा हॉप के फूलों (Hops) का स्वाद बिगड़ जाता है। हॉप की जड़ें 2-3 मीटर गहरी होती है। इसे खूब उपजाऊ और नमी तथा धूप की भरमार वाली जगह पर उगाया जाता है।
हॉप के बीज (Hop Seeds)
हॉप के बीजों की खेती के लिए इसे ऐसी जगह उगाते हैं जहाँ से इसके खेती के लिए उगाये जा रहे मादा पेड़ों के फूलों (Hops) को नर पेड़ों के फूलों से बचाया जा सके। यानी, कीट-पतंगे इनका परस्पर परागण (pollination) नहीं कर सकें। इसी चुनौती को देखते हुए हॉप के बीजों की रोपाई के बाद पनपे नर पेड़ों को फ़ौरन नष्ट किया जाता है और सिर्फ़ मादा पेड़ों पर उगने वाले हॉप के फूलों (Hops) को परिपक्व होने दिया जाता है।
हॉप के बीजों की बुआई पश्चिम देशों के मौसम के हिसाब से Spring (वसन्त) यानी ठंड के विदा होने पर की जाती है। इसकी लतर को ज़मीन पर फैलने से बचाने के लिए हरेक पौधे के लिए 25-30 फ़ीट ऊँचा तारों का ऐसा जाल बनाते हैं जिस पर हॉप की बेल ऊपर की ओर बढ़ती रहे। दो-तीन महीने बाद यानी गर्मियों (जुलाई) के आते-आते लतर पर हॉप के फूल (Hops) निकलने लगते हैं जो कुछेक हफ़्तों में ही हॉप के आकर्षक शंकुनुमा (Conical) फलों की स्वरूप हासिल कर लेते हैं। हॉप के फल अपनी पंखुरियों की लचीली परतों से बने होते हैं। परिवक्व होने पर ये फूल करीब दो सेंटीमीटर लम्बा होता है।
हॉप के विकसित फलों (Hops or Hop Shoots) को तोड़कर प्रोसेसिंग यूनिट (oast, oast house or hop kiln) में भेजा जाता है। वहाँ इन्हें गर्म हवा के ज़रिये इतना सूखाया जाता है कि इसमें नमी का स्तर 6 प्रतिशत तक हो जाए क्योंकि पेड़ों से तोड़े जाते वक़्त इसमें 80 फ़ीसदी तक पानी होता है। सूखी हुई पत्तियों को लम्बी उम्र देने और उसकी खुशबू तथा चिपचिपे पदार्थ की गुणवत्ता को उम्दा बनाये रखने के लिए हवा-रहित (vacuum) पैकिंग करके बेचा जाता है।
भारत में हॉप की खेती (Hop Cultivation In India)
हॉप की खेती के लिए खूब ठंडी जलवायु की ज़रूरत पड़ती है। इसीलिए इसका उत्पादन यूरोप, अमेरिका, कनाडा, चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में होता है। भारत में भी करीब 40-45 साल तक हिमाचल के बेहद ठंडे इलाके लाहौल-स्पीति में हॉप की खेती की गयी, लेकिन बाज़ार में फसल का सही दाम नहीं मिलने की वजह से किसानों से इसके दूरी बना ली। दाम नहीं मिलने की सबसे बड़ी वजह ये रही है कि हॉप के आयातित उत्पाद कहीं ज़्यादा सस्ते थे। इसकी असली वजह ये रही कि पश्चिमी देशों में साल 1909 के बाद हॉप की व्यावसायिक खेती के लिए मशीनें विकसित हो गयीं। मशीनों से हॉप की खेती की लागत काफ़ी कम हो गयी और वहाँ से आयात सस्ता पड़ने लगा।
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हॉप्स का दाम (Price Of Hops)
हॉप्स के दाम को लेकर जैसा झूठ भारत में फैलाया गया, सच्चाई उससे बिल्कुल उलट है। 1973 में लाहौल-स्पीति ज़िले में हॉप की खेती शुरू हुई। ताकि बीयर के भारतीय उत्पादकों को हॉप्स की आपूर्ति देश में ही हो जाए। पैदावार हुई तो प्रोसेसिंग सेंटर भी बने। लेकिन 2013 में अमेरिका और चीन से आयातित हॉप्स का दाम इतना कम था कि किसानों के लिए 100 रुपये प्रति किलोग्राम का भाव पाना भी मुहाल हो गया। इससे पहले हॉप्स का अधिकतम दाम 250 रुपये प्रति किलो रह चुका था।
अच्छा दाम नहीं मिलने की वजह से हॉप्स का उत्पादन लगातार घटना गया। 1994 में उत्पादन 131 टन था, वही 2013 में ये गिरकर 20 टन रह गया। यही नहीं, देखते-देखते जब किसानों को हॉप्स का दाम 50 रुपये तो क्या 20 रुपये प्रति किलो मिलना भी मुहाल हो गया, तो हॉप्स की खेती तकरीबन ख़त्म हो गयी। एक वक़्त था जब लाहौल-स्पीति के 400 से ज़्यादा किसान 200 हेक्टेयर ज़मीन पर हॉप्स की पैदावार करते थे।
हॉप का रस (Hop Shoots extract) तैलीय स्वभाव का होता है। बीयर उद्योग के अलावा दवाईयाँ बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है, क्योंकि इसमें कुछ एंटी वायरल और एंटी बायोटिक तत्व भी पाये जाते हैं। भारत में हॉप का रस 500 रुपये से 1500 रुपये प्रति किलोग्राम के बीच मिलता है। ये भाव किसी भी लिहाज़ से बहुत ज़्यादा नहीं है। यही वजह है कि खेतों में उपजे हॉप्स का भाव ज़्यादा नहीं मिलता। लिहाज़ा, इसे दुनिया की सबसे महँगी कृषि उपज में शुमार करने का दावा भी पूरी तरह से भ्रामक और झूठा ही है।
हॉप का इतिहास-भूगोल (Know About Hops)
बुनियादी तौर पर हॉप एक जंगली पौधा है। इसकी खेती का इतिहास मौजूदा जर्मनी के Hallertau इलाके से जुड़ा है। वहाँ सन् 736 ईसवी में इसकी खेती शुरू हुई थी। बीयर में इसके इस्तेमाल की शुरुआत साल 1079 में हुई। कालान्तर में ठंडी जलवायु वाले देशों में हॉप की खेती का प्रसार हुआ। फिर रसायन शास्त्र का विकास के साथ ही हॉप्स में मौजूद औषधीय गुणों की वजह से भी इसके प्रति लोगों की रुचि बढ़ी। आज अमेरिका और जर्मनी हॉप्स के सबसे बड़े उत्पादक देश हैं।
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