खेती से जुड़ी सरकारी योजना: देश की व्यवस्थाओं को चलाने के लिए हमारी हुक़ूमतें जनता से तरह-तरह के टैक्स वसूलती हैं। ये तीन तरह के होते हैं – केन्द्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय निकायों जैसे नगर पालिका या पंचायत की ओर से वसूला जाने वाला टैक्स। स्थानीय निकायों का अपने टैक्स पर पूरा हक़ होता है, जबकि राज्य सरकारें अपने राजस्व का कुछ हिस्सा स्थानीय निकायों को देती है तो केन्द्र सरकार के राजस्व का 80 फ़ीसदी हिस्सा राज्यों को देना पड़ता है।
यही संविधान के संघीय ढाँचे की विशेषता है। टैक्स यानी राजस्व का बँटवारा वित्त आयोग की सिफ़ारिशों के मुताबिक़ होता है। ये संवैधानिक संस्था है। हर पाँच साल पर नया वित्त आयोग गठित होता है। ये केन्द्र और राज्य के वित्तीय सम्बन्ध को लेकर जो सुझाव देता है उसके अनुसार ही केन्द्रीय राजस्व का राज्यों और स्थानीय निकायों के बीच बँटवारा होता है। नागरिकों को ये बात अच्छी तरह से मालूम होनी चाहिए कि राज्यों को केन्द्र से मिलने वाली रकम उनका हक़ है, कोई तोहफ़ा या ख़ैरात नहीं।
वित्त आयोग का ये भी दायित्व है कि वो केन्द्र, राज्य और स्थानीय निकायों की ज़रूरतों को देखते हुए टैक्स ढाँचे के लिए ज़रूरी सुधारों के भी उपाय बताये। इन्हीं सुझावों के अनुसार खेती-किसानी से जुड़ी योयनाओं के लिए भी राज्यों की हिस्सेदारी निर्धारित की जाती है। ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि कृषि का नाता राज्यों के क्षेत्राधिकार है।
क्या हैं केन्द्रीय राजस्व के आबंटन का आधार?
वित्त आयोग की ओर से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) समेत केन्द्र सरकार की किसानों से सम्बन्धित अनेक योजनाओं के लिए धन-आबंटन के लिए ख़ास मानदंड बनाये गये हैं। लेकिन राज्यों सरकार के ओर से समय-समय पर अपनी कुछ ख़ास योजनाओं के लिए भी केन्द्र सरकार से अतिरिक्त धनराशि की माँग की जाती है। इस माँग का निपटारा केन्द्र सरकार निम्न आधार पर करती है –
केन्द्र के पास अतिरिक्त राजस्व की उपलब्धता कैसी है?
- बीते वर्षों में राज्यों ने आबंटित रकम का उपयोग कितनी कुशलता से किया?
- आबंटित रकम में से उस रकम का अनुपात क्या है जिसका इस्तेमाल नहीं हो पाया?
- कृषि के अलावा अन्य मंत्रालयों से जुड़ी पहले से स्वीकृत और लागू हो रही योजनाओं की प्रगति कैसी है और उसमें कितनी धनराशि ऐसी है जिसका बजट के सालाना लक्ष्यों के अनुरूप इस्तेमाल नहीं हो पाएगा?
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वित्त आयोग के 6 मानदंडों का फ़ार्मूला
नवम्बर 2017 में केन्द्र सरकार ने RKVY को नया रूप देकर इसका नामकरण कर दिया RKVY-RAFTAAR यानी Rashtriya Krishi Vikas Yojana – Remunerative Approaches for Agriculture and Allied Sectors Rejuvenation. इस योजना के ज़रिये खेती और इससे जुड़े क्षेत्रों के लिए बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करना है, ताकि खेती की चुनौतियों से निपटने के लिए वित्तीय सहायता और व्यापारिक गतिविधियों में आने वाले अड़चनों को प्राथमिकता के आधार पर दूर करने की कोशिशें हो सकें।
अब बात वित्त आयोग की ओर से बनाये गये उन छह मानदंडों की जिसके अनुसार केन्द्र सरकार की ओर से खेती से जुड़ी योजनाओं के लिए धनराशि आबंटित होती है:
- देश की कुल असिंचित ज़मीन में सम्बन्धित राज्य की हिस्सेदारी का अनुपात। इसे 15 फ़ीसदी प्राथमिकता मिलती है।
- देश के कुल छोटे और सीमान्त किसानों की तुलना में इसी श्रेणी के किसानों का राज्य में अनुपात। इसे 20 प्रतिशत प्राथमिकता मिलती है। सरकारी परिभाषा के मुताबिक एक एकड़ की जोत वाले किसान ‘छोटे’ हैं और पाँच एकड़ तक वाले ‘सीमान्त या मझोले’।
- बीते तीन साल के दौरान खेती, पशुपालन, मछली पालन और अन्य सम्बन्धित क्षेत्रों से जुड़ी योजनाओं पर हुए कुल खर्च का औसत और इसकी वृद्धि दर का औसत। ये अत्यन्त महत्वपूर्ण मापदंड है इसीलिए राज्यों में इस श्रेणी में 30 प्रतिशत की प्राथमिकता (Weightage) दी जाती है।
- पिछले तीन वर्षों में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों के ज़रिये राज्यों ने अपने उत्पादों के मूल्य में औसतन कितना इज़ाफ़ा किया है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे सकल राज्य मूल्य वर्धित या Gross State Value Added (GSVA) कहते हैं। ये एक ऐसा पैमाना है जिससे किसी भी क्षेत्र, उद्योग, अर्थव्यवस्था या व्यावसायिक क्षेत्र में उत्पादित माल और सेवाओं की कुल मूल्य के आधार पर माप की जाती है। इस मापदंड को 20 प्रतिशत प्राथमिकता दी जाती है।
- देश के कुल युवाओं की आबादी के मुकाबले राज्य में युवाओं का क्या अनुपात है? इस आँकड़े को पाँच फ़ीसदी प्राथमिकता दी जाती है। इसका मतलब ये हुआ कि युवाओं की आनुपातिक रूप से अधिक वाले राज्यों को केन्द्र सरकार की योजनाओं के तहत थोड़ा ज़्यादा हिस्सा मिलता है।
- आख़िरी दस फ़ीसदी की प्राथमिकता का आधार खेती में इस्तेमाल में हुई ज़मीन और उससे हासिल हुए उत्पादन के अनुपात को बनाया जाता है। इस मापदंड के तहत उन राज्यों को कुछ अधिक राशि मिलती है, जहाँ प्रति एकड़ पैदावार तो राष्ट्रीय औसत से कम होती है, लेकिन इससें सुधार लाने की अपेक्षाकृत अधिक उम्मीद नज़र आती है।
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पिछड़े राज्यों को प्राथमिकता
खेती-किसानी में मशीनीकरण को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र सरकार की ओर से भारी रियायतें दी जाती हैं। इसे ‘कृषि यांत्रिकीकरण के लिए उप मिशन’ यानी Sub Mission on Agricultural Mechanization (SMAM) के तहत किया जा सकता है। लेकिन इन रियायतों या सब्सिडी के तहत दी जाने वाली कुल रकम को भी तय करने का फ़ार्मूला मौजूद है।
इसमें देश के कुल ज़मीन में से कृषि योग्य भूमि का अनुपात और राज्य के कुल क्षेत्रफल में से खेती वाली ज़मीन के अनुपात को 50 फ़ीसदी प्राथमिकता मिलती है, तो बाक़ी 50 प्रतिशत के लिए देश और अलग-अलग राज्यों के लिए छोटे और सीमान्त किसानों के निश्चित अनुपात के लिए निर्धारित है। कुलमिलाकर, इस फ़ार्मूले से उन राज्यों की पहचान की जाती है जिन्हें आगे बढ़ने के लिए ज़्यादा केन्द्रीय सहायता की ज़रूरत होती है।
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NFSM के लिए कैसे बनता है फ़ार्मूला?
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) के तहत राज्य सरकारों को केन्द्रीय राजस्व का हिस्सा देने का नियम भी मौजूद है। इसमें राज्य में किसी फसलों के लिए इस्तेमाल हुई ज़मीन, उससे होने वाली पैदावार और वहाँ सुलभ सिंचाई वगैरह के संसाधन और उपज को खरीदने के लिए मौजूद एजेंसी की दक्षता जैसे पैमानों का इस्तेमाल किया जाता है। इन सभी मापदंडों पर बीते वर्षों में राज्य का प्रदर्शन और उसे पहले आबंटित हुई रकम के इस्तेमाल के अनुपात को भी ध्यान में रखा जाता है।
कुलमिलाकर, वित्त आयोग ने केन्द्रीय राजस्व के बँटवारे के लिए जो नियम-क़ायदे बनाये हैं उनका राज्यों और केन्द्र में मौजूद राजनीतिक पार्टियों की सरकार से नहीं बल्कि उसके प्रशासनिक प्रदर्शन और उपलब्धियों से होता है।