मध्यप्रदेश में राजधानी भोपाल का सीमान्त गाँव है जमुनिया कलां। इससे थोड़ा आगे जाने पर रायसेन ज़िले की सरहद आ जाती है। जमुनिया कलां की मिट्टी गेहूं, सरसों, धान जैसी पारम्परिक खेती के अनुकूल रही है। कभी यहां गन्ना और चना भी पैदा होता था। लेकिन बदलते दौर में परम्परागत फ़सलों की खेती का मुनाफ़ा घटता गया तो कुछ किसानों ने बाग़वानी की राह पकड़ ली।
चार साल पहले जमुनिया कलां के किसान कृष्ण मोहन पाटीदार और उनके भाई ने अमरूद की खेती का दामन थामने का बीड़ा उठाया और अपनी 12 एकड़ ज़मीन में अमरुद के बाग़ लगा दिया। इन्होंने एक एकड़ में अमरूद के 200 पेड़ लगाये। इन्हें छत्तीसगढ़ से लाया गया। इसकी औसत क़ीमत 250 रुपये प्रति पेड़ बैठी। पेड़ लगाने, उसमें जैविक खाद डालने और सिंचाई की लागत को सन्तुलित रखने के लिए ड्रिप इरीगेशन का इन्तज़ाम किया। इस तरह अमरूद की खेती की लागत 80 हज़ार रुपये प्रति एकड़ हो गयी।
पाटीदार परिवार की मौजूदा पीढ़ी में चार भाई हैं। दो भाई परदेस में रहते हैं तो दो गांव में ही रहकर खेती-किसानी करते हैं। पारम्परिक खेती की दीवार को तोड़कर आगे निकले किसान कृष्ण मोहन पाटीदार का कहना है कि किसान का मतलब ही मेहनतकश होता है। मेहनत तो हर तरह की फ़सल में करनी पड़ती है। लेकिन जब मेहनत के हिसाब से आमदनी नहीं होती तो दिल टूट जाता है। यही वजह है कि इन्होंने अमरूद की खेती का विकल्प चुना।
अगली सूझबूझ ये रही है कि सारे के सारे अमरूद की एक ही किस्म के रखे गये, क्योंकि इससे बाज़ार में अच्छे भाव मिलना आसान होता है। अगली चुनौती थी खड़ी फ़सल को सुरक्षित रखने की क्योंकि 12 एकड़ में लगे 2400 पेड़ों पर जब फल आता है तो वहाँ पक्षी भी काफ़ी जुट जाते हैं। पक्षी फल खायें इसके किसानों को कोई दुःख नहीं होता, दिक्कत तो तब होती है जब वो चोंच मारकर फल की रंगत बिगाड़ देते हैं। फल के मौसम में पक्षियों के नुकसान से बचने के लिए इन्हें अमरूदों पर अख़बार बाँधना पड़ता है। इसमें काफ़ी वक़्त और मेहनत लगती है।
नवंबर से जनवरी तक तीन महीने के सीज़न में नियमित रूप से अमरूद तोड़ने और उसे मंडी में पहुँचाना अगली चुनौती रहती है। स्थानीय मार्केट में 10 रुपये प्रति किलो के भाव को देखते हुए पाटीदार भाईयों ने दिल्ली-मुंबई की फल मंडियों से सीधे जुड़ने की ठानी। कहते हैं कि जहां चाह वहां राह, तो इन्हें भी राह मिली और इस साल इन्हें 30 रुपये किलो तक का भाव मिला, जो गेहूं की तुलना में कहीं ज़्यादा फ़ायदेमन्द है। इन्हें लगता है कि आगामी वर्षों में जब अमरूद के पेड़ कुछ और बड़े होंगे तो उन पर ज़्यादा फल लगेंगे। इससे कमाई बढ़ेगी।
कृष्ण मोहन पाटीदार ने किसान ऑफ इंडिया से कहा कि बस प्रकृति का थोड़ा साथ मिल जाए, ओला न पड़े तो वो अपने बाग़ों को परिवार की अगली पीढ़ियों के लिए सौगात के रूप में देना चाहेंगे, ताकि वो साल दर साल की कड़ी मेहनत और अनिश्चितता के दौर से बाहर निकलकर नियमित आमदनी पा सकें। अनाज के मुक़ाबले बाग़वानी की यही ख़ासियत अन्य किसानों को भी प्रेरणा देती है।
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