भारतीय कृषि विज्ञानियों झीलों-तालाबों का सत्यानाश करने वाले ‘वाटर फ़र्न’ के सफ़ाये का जैविक इलाज़ ढूँढ़ निकाला है। ये मध्य भारत से एलियन इनवेसिव एक्वाटिक वीड के जैविक नियंत्रण की पहली क़ामयाब मिसाल है। दक्षिण-पूर्वी ब्राजील से दुनिया भर में अपने पैर पसारने वाले इस एलियन इनवेसिव एक्वाटिक वीड को बोलचाल में ‘वाटर फ़र्न’ का नाम मिला है, हालाँकि वनस्पति विज्ञान में इसे ‘साल्विनिया मोलेस्टा’ (Salvinia molesta) कहते हैं। ‘वाटर फ़र्न’ को झीलों-तालाबों का सत्यानाश करने वाले आतंकी जीव की तरह भी देखा जा सकता है क्योंकि बीते 60 वर्षों में इसकी संतति पूरी दुनिया में व्यापक रूप से फैल गयी। अब ये दुनिया में खरपतवार की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों की सूची में शामिल है।
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‘वाटर फ़र्न’ से हरेक जलीय उत्पादन प्रभावित
कृषि विज्ञानियों को ‘वाटर फ़र्न’ के प्रकोप के बारे में केरल और दक्षिण भारत के कई इलाकों के अलावा ओडिशा, उत्तराखंड और महाराष्ट्र से भी जानकारी मिलती रही है। लेकिन हाल ही में, मध्य प्रदेश के बैतूल ज़िले के सारनी टाउन में सतपुड़ा जलाशय और जबलपुर तथा कटनी ज़िलों के 3 से 4 गाँवों से इसके गम्भीर हमले का ब्यौरा मिला। झीलों-तालाबों में ‘वाटर फ़र्न’ के भयंकर विस्तार से सिंचाई, जलविद्युत उत्पादन, पानी की उपलब्धता और आवागमन यानी नेविगेशन पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखा गया। इससे भी बढ़कर मछली पालन और शाहबलूत (chestnut) जैसे जलीय उत्पादन में भी भारी कमी देखी गयी।
बेहद तेज़ी से फैलता है ‘वाटर फ़र्न’
किसी भी जलीय खरपतवार की तरह यदि ‘वाटर फ़र्न’ को भी शुरुआती दिनों में ही जलाशयों से निकाल बाहर किया जा सके तो ठीक, वर्ना इसकी रोकथाम बहुत महँगी हो जाती है। इसकी दो वजह है – पहला, ‘वाटर फ़र्न’ के लिए प्रमाणिक खरपतवार नाशक दवा का नहीं होना और दूसरा, इसकी बहुत तेज़ी से बढ़ने की प्रवृत्ति, जिसकी वजह से प्रति हेक्टेयर करीब 80 टन जैविक कचरे को जलाशय से निकालने की चुनौती पैदा हो सकती है। मशीनों या मज़दूरों के ज़रिये ‘वाटर फ़र्न’ से मुक्ति पाने का विकल्प बेहद ख़र्चीला है। इसीलिए, कृषि वैज्ञानिकों ने ‘वाटर फ़र्न’ का ऐसे जैविक नियंत्रण की तरक़ीब ढूँढ़ने की ठानी हो पर्यावरण के भी अनुकूल हो और ज़्यादा महँगा भी नहीं पड़े।
जबलपुर के कृषि विज्ञानियों को मिली चुनौती
जब ‘वाटर फ़र्न’ के जैविक नियंत्रण की तरक़ीब ढूँढ़ने की बात तय हो गयी तो भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद यानी ICAR ने जबरपुर स्थित अपने सहयोगी संस्थान ‘खरपतवार अनुसन्धान निदेशालय’ (Directorate of Weed Research) को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी। इसके खरपतवार विज्ञानियों को पता था कि साल 1980 के आसपास केरल में सिर्टोबैगस सालिविनिया (Cyrtobagous saliviniae) नामक एक घुन (कीट) ने ‘वाटर फ़र्न’ के जैविक नियंत्रण में शानदार भूमिका निभायी है। अब चुनौती ये थी कि इस कीड़े को मध्य और उत्तर भारत की जलवायु के अनुकूल कैसे बनाया जाए जिससे ये ठंडे मौसम और उच्च तापमान भिन्नता वाले माहौल में भी कारगर साबित हो सके?
केरल के घुनों का नयी जलवायु में क़माल
बहरहाल, ‘सिर्टोबैगस सालिविनिया’ घुन (कीट) को केरल के त्रिशूर से जबलपुर लाया गया। यहाँ इसका गहन जैविक परीक्षण करने इसे नयी जलवायु के उपयुक्त बनाया गया। जब ये तय हो गया कि मध्य और उत्तर भारत की जलवायु में भी ‘वाटर फ़र्न’ पर जैविक नियंत्रण पाने में ये कीट क़ामयाब हो सकता है तो इसकी तकनीक के प्रदर्शन के लिए कटनी ज़िले के पडुआ गाँव में ‘वाटर फ़र्न’ से पीड़ित 20 हेक्टेयर के तालाब को चुना गया। इसके लिए बाक़ायदा ग्रामीणों और सरपंच से सलाह-मशविरा भी किया गया। पडुआ गाँव का तालाब 3 साल से ‘वाटर फ़र्न’ से गम्भीर रूप से संक्रमित था और गाँव वालों की इससे छुटकारा पाने की सभी कोशिशें नाकाम साबित हो चुकी थीं।
डेढ़ साल में तालाब हुआ ‘आतंकियों’ से मुक्त
शुरुआत में पडुआ गाँव में ‘वाटर फ़र्न’ से पीड़ित तालाब में दिसम्बर 2019 में ‘सिर्टोबैगस सालिविनिया’ घुनों के क़रीब 2000 वयस्कों को छोड़ा गया। इन घुनों यानी बायो-एजेंट ने प्रजनन के ज़रिये धीरे-धीरे तालाब में अपनी आबादी को कई गुणा बढ़ा लिया। हालाँकि, शुरुआती 6 महीनों में ‘वाटर फ़र्न’ पर इनके हमलों का कोई ख़ास असर नज़र नहीं आया, लेकिन क़रीब 11 महीनों बाद प्रति वर्ग मीटर पानी में बायो-एजेंट घुनों की आबादी बढ़कर 125 वयस्कों तक जा पहुँची और इसके बाद ‘वाटर फ़र्न’ के जनसंख्या घनत्व में तेज़ी से गिरावट दिखनी शुरू हो गयी। फिर तो सिर्टोबैगस सालिविनिया’ घुनों की सेना ने क़रीब डेढ़ साल में तालाब को पूरी तरह से ‘वाटर फ़र्न’ से मुक्त करके दिखा दिया।
कैसे किया घुनों ने ‘वाटर फ़र्न’ का सफ़ाया?
घुनों की सेना ने ‘वाटर फ़र्न’ की कलियों को खाकर उसकी वंशवृद्धि को पूरी तरह से मिटा दिया। इस प्रक्रिया में घुनों के लार्वा, ‘वाटर फ़र्न’ की कलियों और उसकी जड़ों के प्रकन्दों (rhizomes) को खाकर उसे खोखली सुरंग जैसा बना देते थे। इस तरह ‘वाटर फ़र्न’ का समूल नाश करने का जैविक उपाय क़ामयाब हुआ। दूसरी सुखद बात ये रही कि जैसे-जैसे खरपतवार ‘वाटर फ़र्न’ का घनत्व कम होता गया वैसे-वैसे उसका समूल नाश कर रहे घुनों की आबादी भी घटती चली गयी। आख़िर में, ‘वाटर फ़र्न’ का जो मामूली अवशेष बचा उससे भी उसकी वंशवृद्धि नहीं हो सकी। इस तरह मध्य भारत से एलियन इनवेसिव एक्वाटिक वीड के जैविक नियंत्रण का यह तरकीब अपनी तरह का पहला सफल उदाहरण बन गया।
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बहुत प्रभावी, टिकाऊ और सस्ता उपाय
‘वाटर फ़र्न’ की जैविक निदान की इस तकनीक की कामयाबी में भले ही थोड़ा ज़्यादा समय लगा लेकिन कृषि विज्ञानियों की राय में ये तरीका ‘वाटर फ़र्न’ के प्रकोप से मुक्ति पाने का बहुत प्रभावी, टिकाऊ और सस्ता उपाय है। यदि देश के अन्य इलाकों के किसान भी किसी भी तरह से ‘वाटर फ़र्न’ की तकलीफ़ से जूझ रहे हैं तो उन्हें भी अपने नज़दीकी कृषि विज्ञान केन्द्र और ICAR के जबलपुर स्थित खरपतवार अनुसन्धान निदेशालय से सम्पर्क करके इस जैविक तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए ज़रूर कोशिश करनी चाहिए।
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