केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने Union Budget 2022-23 को पेश करते हुए कृषि क्षेत्र से जुड़े कई एलान किये। उन्होंने बताया कि 2021-22 में रबी और खरीफ़ सीज़न में गेहूँ और धान की MSP पर हुई कुल खरीद में से करीब 2.37 लाख करोड़ रुपये यानी करीब 95% रक़म का भुगतान सीधे किसानों के बैंक खातों में किया गया। इसका सम्बन्ध क़रीब 1.63 लाख किसानों से खरीदे गये 1208 लाख टन गेहूँ और धान की कीमत से है।
बता दें कि खरीफ़ सीज़न 2020-21 और रबी सीज़न 2021-22 के तहत 20 जुलाई 2021 तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर कुल 1302.61 टन गेहूँ और धान की खरीदारी हुई। इसकी कुल MSP 2,49,702.65 करोड़ रुपये है। केन्द्र सरकार ने पिछले साल से MSP की रकम सीधे किसानों के बैंक खाते में भेजने की नीति को लागू किया है। पहले ये रक़म उन्हें कृषि उपज मंडियों में अढ़तियों के ज़रिये मिलती थी। इसके अलावा वित्त मंत्री ने बजट भाषण में ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती (Zero Budget Natural Farming), ऑर्गेनिक फार्मिंग (Organic Farming), आधुनिक कृषि (Modern Farming) और कृषि क्षेत्र में तकनीक को बढ़ावा देने जैसे वादे भी किये गये।
ध्यान रहे कि 19 नवम्बर को तीनों विवादित कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एलान के बाद भी किसान MSP की गारंटी की माँग पर डटे हुए हैं। किसान चाहते हैं कि सरकार, क़ानूनन इस बात की गारंटी दे कि कोई भी कृषि उत्पाद अपने न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे नहीं बिके। यानी, किसानों को अपने हरेक उत्पाद का न्यूनतम दाम हर हालत में मिल सके। बजट में किसानों की इस माँग के बारे में वित्त मंत्री ने सरकार की ओर से कुछ नहीं कहा। फिर भी ये सवाल तो क़ायम ही है कि किसानों की इस माँग को क्या पूरा किया जा सकता है। या फिर क्या सरकार के लिए हरेक कृषि उत्पाद को MSP की गारंटी देना सम्भव है?
55% आबादी की 17% GDP
निःसन्देह, भारतीय कृषि बीते दो-तीन दशकों से कई असहनीय दवाब झेल रही है। इनमें से सबसे प्रमुख है खेती-बाड़ी पर निर्भर आबादी और इससे होने वाली आमदनी का अनुपात। मिसाल के तौर पर आज़ादी के फ़ौरन बाद यदि कृषि प्रधान देश भारत की 70 फ़ीसदी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर थी तो इस क्षेत्र की देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में हिस्सेदारी 54 प्रतिशत थी। लेकिन अभी देश की GDP में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी घटकर 17 प्रतिशत पर आ गयी है, लेकिन अब भी 55 फ़ीसदी आबादी खेती आधारित पेशे से ही अपनी आजीविका चलाती है।
इस तरह हम आसानी से समझ सकते हैं कि आज़ादी के 75 साल के बाद भी खेती-बाड़ी से जुड़ी आबादी और देश की अर्थव्यवस्था में उसकी हिस्सेदारी का अनुपात किस क़दर बेमेल बना हुआ है? इसी तरह, हम पाते हैं कि खेती-किसानी के जुड़ी आबादी में असमानता की खाई और गहरी तथा चौड़ी हो गयी है। आज़ादी हासिल करने के वक़्त से अभी तक भूमिहीन मज़दूरों का अनुपात भी क़रीब दोगुना हो गया है। 1947 में देश की आबादी में जहाँ भूमिहीनों का अनुपात 28 फ़ीसदी था, वहीं अब बढ़कर 55 प्रतिशत हो गया है।
86% हैं छोटी जोत के किसान
इतना ही नहीं, जिन लोगों के पास खेतीहर ज़मीन है भी उनमें भी बहुतायत छोटी जोत वाले मझोले और सीमान्त किसान ही हैं। देश के कुल किसानों में से 86 प्रतिशत ऐसे हैं जो मझोले और सीमान्त किसानों की श्रेणी में आते हैं। छोटे किसान वो हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर या 5 एकड़ तक की जोत है जबकि सीमान्त किसान वो हैं जिनके पास 1 हेक्टेयर या 2.5 एकड़ तक की जोत हैं। ज़मीन की ये पैमाइश कितनी छोटी है, इसे इस उदाहरण से समझिए कि सीमान्त किसानों के पास एक फुटबॉल के मैदान से भी कम ज़मीन है।
ऐसा देखा गया है कि इतनी छोटी जोत वाले किसानों की आमदनी इतनी कम रहती है कि वो बमुश्किल ही ग़रीब रेखा से ऊपर रह पाते हैं। छोटी जोत पर निर्भर आबादी के ज़्यादा होने का नतीज़ा ये भी होता है कि हमारे ज़्यादातर किसान किसी न किसी तरह के क़र्ज़ के बोझ से तक़रीबन हमेशा ही दबे रहते हैं। इतना ही नहीं, हमारे किसान ज़मीन के लगातार कम हो रही उर्वरा शक्ति से परेशान रहते हैं। गिरती उर्वरा शक्ति की तकलीफ़ बीते दो-तीन दशकों में ख़ासी बढ़ गयी है। इन सभी कारकों की वजह से आमतौर पर खेती-किसानी को फ़ायदे या ख़ुशहाली का पेशा नहीं माना जाता। इसीलिए एक अरसे से इस बात की अहमियत बहुत बढ़ गयी है कि हमें भारतीय कृषि के उद्धार के लिए बहुत ज़्यादा व्यापक स्तर पर कोशिशें करनी होंगी।
MSP गारंटी का मतलब क्या है?
किसानों की माँग है कि सरकार क़ानून बनाकर न सिर्फ़ हरेक कृषि उत्पाद का बाज़ार भाव तय करे बल्कि ये क़ानूनी गारंटी भी दे कि किसान किसी भी कृषि उत्पाद को चाहे जितना उपजाएँ, उसे ख़रीदने की ज़िम्मेदारी सरकारों की होगी। एक तरह से देखें तो किसानों की ये माँग बहुत तार्किक लग सकती है, क्योंकि ऐसी गारंटी मिलने से भारतीय किसानों को अपने कृषि उत्पादों को बाज़ार को चलाने वाली माँग और पूर्ति की शक्तियों के भंवरजाल से छुटकारा मिल सकता है। वैसे ये जगज़ाहिर है कि भारतीय किसानों को बाज़ार में अपने उत्पादों का अच्छा दाम पाने में बहुत दिक्कत होती है। उन्हें अक्सर अपनी उपज का बाज़ार में इतना दाम भी नहीं मिल पाता जिससे उनकी खेती की लागत ही निकल सके। इसीलिए कई बार हमें ऐसी दुःखदायी ख़बरें भी सुनने और देखने को मिलती हैं कि किसान ने अपनी खड़ी फ़सल को ख़ुद ही तबाह कर दिया।
क्या MSP की गारंटी टिकाऊ होगी?
अब सवाल ये है कि किसानों को भले ही ये लगता हो कि बाज़ार के मोल-तोल में कमज़ोर पड़ने की वजह से उन्हें MSP की गारंटी से बड़ा सहारा मिल सकता है। लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि MSP की गारंटी से भी किसानों की बदहाली का टिकाऊ समाधान नहीं हो सकता। इसे समझने के लिए अमेरिका के एक उदाहरण को याद करना होगा। हुआ यूँ कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में जिमी कार्टर (1977-81) डेयरी सेक्टर से दूध का अधिक दाम देने का वादा किया। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने क़ानून बनाकर न सिर्फ़ दूध की क़ीमत तय कर दी बल्कि हरेक छह महीने बाद इसमें बढ़ोत्तरी का इन्तज़ाम कर दिया। अब चूँकि दूध जल्दी ही खट्टा होने लगता है, इसीलिए उन्होंने घोषणा की कि सरकार दूध से बनने वाले चीज (Cheese) को निर्धारित दाम पर खरीदेगी। इसके बाद, जिमी कार्टर का शासनकान ख़त्म होते-होते आलम ये हो गया कि अमेरिकी सरकार के पास चीज के स्टोरज़ (भंडारण) की जगह नहीं रही।
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जिमी कार्टर सरकार की ‘चीज नीति’ का ख़ामियाज़ा न सिर्फ़ देश के कर-दाताओं को भरना पड़ा बल्कि सरकार के पास माँग के मुक़ाबले इतना ज़्यादा चीज इक्कठा हो गया जिनका ख़पत नहीं हो सकती थी। चीज की भारी मात्रा की वजह से अमेरिका जैसी महाशक्ति की भंडारण क्षमता जबाब दे गयी। हालात तो ये हो गये जिमी कार्टर की योजना न सिर्फ़ बन्द करनी पड़ी, बल्कि सरकार को डेयरी मालिकों को इसलिए रक़म देनी पड़ी कि वो दूध का उत्पादन नहीं करें। इसके बाद सरकारी गोदामों के पड़े चीज को ग़रीबों में मुफ़्त बाँटकर राहत की साँस ली गयी। कुलमिलाकर, जिमी कार्टर की ‘चीज नीति’ अमेरिका के सरकारी ख़ज़ाने को बहुत भारी पड़ी। राजनीतिक तौर पर सरकार की जो किरकिरी और फ़ज़ीहत हुई, सो अलग। इसीलिए यदि किसी को ये लगता है कि MSP की गारंटी की क़ानून बना देने से देश के अन्नदाताओं का भला हो जाएगा तो वो मुग़ालते में है, क्योंकि इस उपाय से जल्द ही अनेक ऐसी समस्याएँ पैदा हो जाएँगी, जिनका समाधान ढूँढ़ना सरकार के लिए भारी पड़ जाएगा।
क्या है मौजूदा MSP का कड़वा सच?
देश में भले ही सैंकड़ों किस्म के कृषि उत्पादों की खेती और कारोबार होता है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की घोषणा सिर्फ़ 23 उपज से लिए ही की जाती है। व्यावहारिक रूप से इन 23 उपज में से सरकारें सिर्फ़ चार उपज ही ख़रीदती हैं – धान, गेहूँ, गन्ना और कपास। बाक़ी सारी उपज किसान सीधे बाज़ार में बेचते हैं, भले ही उन्हें MSP मिल पाये या नहीं। अभी देश के कुल कृषि उत्पाद में से बमुश्किल 6 प्रतिशत को ही MSP पर ख़रीदारी का सौभाग्य मिल पाता है। यानी, 94 प्रतिशत कृषि उपज की पैदावार करने वाले करोड़ों किसानों को MSP का लाभ नहीं मिल पाता है।
अभी सिर्फ़ धान और गेहूँ की जितनी उपज की MSP पर सरकारी ख़रीद होती है, वो भी सरकारी ख़रीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (FCI) की भंडारण क्षमता और यहाँ तक कि देश के लिए तय ‘बफ़र स्टॉक’ की सीमा से भी बहुत ज़्यादा है। देश की खाद्य सुरक्षा के लिए जितने अनाज का भंडारण होना चाहिए उससे दोगुनी मात्रा में सरकारी गोदाम में अनाज भरा रहता है। नतीज़तन, भारी मात्रा में गेहूँ-धान बर्बाद होता है और इसकी क़ीमत देश की जनता या करदाताओं को चुकानी पड़ती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो जब देश की बमुश्किल 6 प्रतिशत कृषि उपज को ही MSP पर ख़रीदारी का सौभाग्य मिलता है तब तो जनता को सरकारी राजस्व की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। ऐसे में यदि सरकारों को अखिल भारतीय स्तर पर सभी कृषि उपज को ख़रीदने की नौबत आ गयी तो उसका भट्ठा ही बैठ जाएगा। ज़ाहिर है कि बेशक़, किसानों की मदद करना ज़रूरी है लेकिन MSP क़ानूनन गारंटी की जैसी माँग किसानों की ओर से हो रही है, उसे पूरा कर पाना सरकार के लिए नामुमकिन भले न हो लेकिन लोहे के चने चबाने जैसा तो ज़रूर है।
…तो फिर MSP का विकल्प क्या हो सकता है?
दीर्घकाल में सारी कृषि उपज को MSP की गारंटी देना लगभग असम्भव है। लेकिन इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि देश के ज़्यादातर अन्नदाता सालों-साल से विकट आर्थिक संकट तथा बदहाली के दलदल में फँसे हैं। फ़ौरी तौर पर इन्हें सीधी नक़द सहायता देकर राहत दी जा सकती है। लेकिन इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि कृषि क्षेत्र में निवेश को कई गुणा बढ़ाया जाए, सिंचाई की सुविधाओं को बढ़ाया जाए, भंडारण क्षमता बढ़ाई जाए, मिट्टी की जाँच करके उन्नत खेती के तरीक़ों को अपनाया जाए। सरकारी कृषि उपज मंडी के नेटवर्क में क़रीब 35 हज़ार और मंडियों को जोड़ने की ज़रूरत है।
उपरोक्त सभी उपाय भी तब तक पर्याप्त साबित नहीं होंगे, जब तक कि हम कृषि पर निर्भर 55 फ़ीसदी आबादी को घटाने में सफल नहीं होंगे। क्योंकि खेती-बाड़ी में लगी 55 फ़ीसदी आबादी की GDP में भागीदारी का महज 17-18 प्रतिशत होना ही सबसे बड़ी समस्या है। खेती से होने वाली आमदनी तब तक मुनाफ़े का सौदा नहीं बन पाएगी, जब तक इसमें लगी आबादी का अनुपात कम नहीं होता। हमें खेती में लगी अपनी ज़्यादातर आबादी को औद्योगिक और सर्विस सेक्टर में खपाने के लिए बड़े पैमाने पर रोज़गार के अवसर विकसित करने पड़ेगें। इस दिशा में आज़ादी के बाद से हमारी उपलब्धि भले ही सराहनीय रही हो, लेकिन हालात अब भी चिन्ताजनक ही हैं।
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