जूट या पटसन एक नकदी फसल है। जूट को पटसन या पटुआ भी कहते हैं। ये रेशेदार उपज है। भारत, बाँग्लादेश, चीन और थाईलैंड इसके मुख्य उत्पादक देश हैं। जूट की वैश्विक पैदावार में से आधे से ज़्यादा का उत्पादन भारत में होता है। भारतीय जूट की तीन-चौथाई ख़पत देश में होती है और एक-तिहाई उत्पादन का ब्रिटेन, बेल्जियम, जर्मनी, फ्रांस, इटली और अमेरिका जैसे देश आयात करते हैं। जूट की खेती में अपार सम्भावनाएं हैं। प्लास्टिक से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखते हुए दुनिया भर के पैकेजिंग उद्योग में जूट की भारी माँग है, क्योंकि जैविक उत्पाद होने की वजह से जूट का विघटन आसानी से हो जाता है।
श्रम-प्रधान है जूट की खेती
राष्ट्रीय जूट बोर्ड के अनुसार देश के करीब 40 लाख किसानों और 8 लाख हेक्टेयर ज़मीन का नाता जूट की खेती से है। जूट की खेती श्रम-प्रधान है। ये गंगा के डेल्टा में उगाई जाने वाली रेशेदार उपज है। प्राकृतिक रेशेदार कृषि उत्पादों में कपास के बाद जूट का ही स्थान है। इसकी खेती पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा और मेघालय के 83 ज़िलों में हो रही है। पश्चिम बंगाल, देश का सबसे बड़ा जूट उत्पादक राज्य हैं, वहाँ देश में पैदा होने वाले कुल जूट में से आधे से ज़्यादा की पैदावार होती है।
सबसे पुराना कृषि उद्योग है जूट
जूट का नाता देश के सबसे पुराने कृषि-उद्योग से भी है। देश की पहली जूट मिल 1855 में कोलकाता में शुरू हुई थी। अभी देश में 83 जूट मिलें हैं, जिनमें सालाना 16 लाख टन से ज़्यादा जूट या इसके उत्पाद तैयार होते हैं। जूट उद्योग से करीब 3 लाख लोगों को सीधे रोज़गार मिल रहा है। जूट निर्यात से देश को करीब 40 लाख डॉलर की विदेशी मुद्रा मिलती है। कृषि मंत्रालय का पूरा ज़ोर है कि जूट का खेती का ज़्यादा से ज़्यादा विस्तार हो तथा इसकी पैदावार बढ़े क्योंकि इससे किसानों के अलावा जूट के उत्पाद बनाने वाले कारीगरों के लिए भी आमदनी बढ़ाने के मौके बढ़ेंगे।
जूट से बनते हैं अनगिनत उत्पाद
परम्परागत तौर से जूट के रेशों से बोरी, दरी, कालीन, तम्बू, तिरपाल, टाट, रस्सी, काग़ज़, सज़ावटी समान, फ़र्नीचर और कपड़े वग़ैरह वैसे ही बनते हैं जैसे कपास से अनगिनत उत्पाद बनते हैं। जूट के उत्पादों का सबसे बड़ा लाभ ये है कि टिकाऊ और पर्यावरण हितैषी होते हैं।
इसीलिए जूट की खेती और जूट उद्योग का भविष्य उज्ज्वल माना जाता है। ICAR-केन्द्रीय जूट एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान (Central Research Institute for Jute & Allied Fibres), बैरकपुर, देश में जूट का प्रमुख शोध संस्थान है, जहाँ जूट की अनेक उन्नत किस्में विकसित हुई हैं।
साड़ियाँ भी बनती हैं जूट से
फ़ैशन के साथ कदमताल करते हुए अब तो जूट से बनी साड़ियों ने भी अपना बाज़ार बना लिया है। कोलकाता समेत देश के कई हिस्सों में बुनकर जूट रेशों से आकर्षक साड़ियाँ तैयार कर रहे हैं। इसे महिलाएँ ख़ूब पसन्द कर रही हैं, क्योंकि ये फैशनेबल होने के अलावा ज़्यादा टिकाऊ होती हैं। जूट का ताज़ा रेशा अधिक मज़बूत, चमकदार और सफ़ेद होता है।
इससे बिल्कुल सफ़ेद रेशा प्राप्त नहीं होता, क्योंकि इसकी आंशिक ब्लीचिंग (विरंजन) ही हो पाती है। जूट मिश्रित रेशों से तैयार साड़ियाँ, टाइल्स, जूट से बने हस्तशिल्प उत्पाद, थैले, घरेलू वस्त्र, उपहार में देने वाली वस्तुएँ और फुटवियर अब आम घरों तक पहुँच रहे हैं। जूट के डंठल की लुगदी से काग़ज़ बनता है। बारूद बनाने में भी जूट के कोयले का उम्दा पाया गया है।
जूट की खेती में बंगाल सबसे आगे
जूट, खरीफ़ की फसल है। इसे गरम और नम जलवायु चाहिए। इसके लिए 21 से 38 डिग्री सेल्सियस और 90% सापेक्षिक नमी वाली जलवायु बेहद मुफ़ीद है। इसीलिए अमरीका, मिस्र, ब्राज़ील, अफ्रीका जैसे अनेक देशों में जूट को उपजाने की कोशिशें हुईं, लेकिन भारतीय जूट के सामने वो टिक नहीं सके। हल्की बलुई और डेल्टा की दोमट मिट्टी में जूट की खेती अच्छी होती है। इसलिए बंगाल की जलवायु जूट के लिए बेहतरीन है। इसकी बुआई के लिए अगस्त-सितम्बर का मौसम सही होता है। लेकिन खेत की स्थिति तथा बीज की किस्म के आधार पर मार्च-अप्रैल में भी इसकी बुआई की जाती है।
जूट का तना पतला और बेलनाकार होता है। जूट के बीज से फसल उगाई जाती है। बीज पाने के लिए पौधों को पूरा पकने दिया जाता है, लेकिन बढ़िया रेशे पाने के लिए इन्हें पकने के पहले काटते हैं। रोपाई के करीब चार महीने बाद फसल तैयार होती है। इसकी कटाई पौधों के पुष्पित होने के बाद और फूलों के बीज में बदलने से पहले की जाती है।
तनों को ज़मीन की सतह से काटते हैं और कभी-कभार जड़ समेत उखाड़ा भी जाता है। फिर इसकी पत्तियों की छँचाई करके और तने की डंठलों का गट्ठर बनाकर पानी में डुबाकर रखते हैं। इससे तनों में मौजूद जूट के रेशे अलग-अलग हो जाते हैं, जिन्हें साफ़ पानी में धोने के बाद सुखाया जाता है।
जूट की प्रमुख प्रजातियाँ और किस्में
जूट की दो प्रमुख प्रजातियाँ हैं – कैप्सुलैरिस (Capsularis) और ओलिटोरियस (Oolitorius). दोनों की पत्तियाँ गोलाकार होती हैं। कैप्सुलैरिस ज़रा कठोर होता है। इसे ऊँचे और नीचे दोनों तरह के खेतों में लगाते हैं, जबकि ओलिटोरियस की खेती केवल ऊँची ज़मीन में ही करते हैं। कैप्सुलैरिस का बीज गहरे भूरे रंग का तथा रेशे सफ़ेद लेकिन ज़रा कमज़ोर होता है, जबकि ओलिटोरियस के बीज काले रंग वाले और रेशा सुन्दर, मज़बूत और फ़ीके सफ़ेद रंग का होता है।
कैप्सुलैरिस की किस्में फंदूक, घालेश्वरी, फूलेश्वरी, देसीहाट, बम्बई डी 154 और आर 85 हैं जबकि ओलिटोरियस की किस्मों के नाम देसी, तोसाह, आरथू और चिनसुरा ग्रीन हैं। जूट की खेती के कुल इलाकों में से कैप्सुलैरिस को तीन-चौथाई इलाकों में लगाया जाता है, जबकि ओलिटोरियस की हिस्सेदारी एक-चौथाई क्षेत्रफल की है। कैप्सुलैरिस की पैदावार प्रति एकड़ 4 से 6 क्लिंटल और ओलिटोरियस की 6 से 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। जूट की जल्दी फूलने वाली कुछ किस्में JRO-525 (नवीन) तथा JRP-843 हैं।
जूट की खेती की उन्नत विधि
बुआई: जूट की बुआई से पहले खेत की अच्छी तरह से जुताई करनी चाहिए। इसकी बुआई आमतौर पर छिटक विधि से करते हैं, हालाँकि अब ड्रिल विधि भी प्रचलित हो रही है। प्रति एकड़ 3 से 4.5 किलो बीज की मात्रा पर्याप्त होती है। बीजों के लिए 10-15 सेमी का फ़ासला होना चाहिए। बुआई के बाद फसल को हर हफ़्ते 2 से 3 इंच बारिश की ज़रूरत पड़ती है।
खाद: अच्छी पैदावार के लिए जुताई के वक़्त 2 से 4 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से गोबर की खाद या कम्पोस्ट और डेढ़ से दो क्विंटल लकड़ी या घासपात की राख या बायोचार तथा 20-25 किलो नाइट्रोजन का इस्तेमाल करना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा का इस्तेमाल बुआई से पहले और बाक़ी का बीजों के अंकुरित होने के हफ़्ते भर बाद होना चाहिए। जूट की खेती में पोटाश और चूने का इस्तेमाल भी लाभकारी होता है।
देखरेख: जूट के पौधे आमतौर पर 6 से 10 फुट लम्बे होते हैं। जूट की पैदावार इसकी किस्मों, खेत की उर्वरता और कटाई का समय जैसी अनेक बातों पर निर्भर करती है। जूट के पौधे जब 20 से 50 सेंटीमीटर ऊँचे हों तो हाथों से उनकी छँटाई की जाती है। पहली छँटाई बुआई के 20 से 25 दिनों बाद जब पौधा 10-12 सेमी ऊँचा हो और दूसरी छँटाई इसके 10-15 दिन बाद करनी चाहिए। छँटाई के साथ खरपतवार की सफ़ाई भी करनी चाहिए।
कटाई: जून से अक्टूबर तक फसल काटी जाती है। पछेती कटाई से जूट रेशे सख़्त, भद्दे और मोटे हो जाते हैं। उनमें चमक नहीं होती। जबकि अगेती कटाई से पैदावार कम और रेशे कमज़ोर होते हैं। कटाई ज़मीन की सतह से करते हैं या कभी-कभार पौधों को जड़ समेत उछाड़ लेते हैं। कटी फसल को दो-तीन दिन सूखी ज़मीन पर ही छोड़ देते हैं। ताकि इसकी पत्तियाँ सूखकर गिर जाएँ। इसके बाद डंठलों को गठ्ठरों में बाँधकर पत्तियों से ढँककर हफ़्ते भर के लिए छोड़ देते हैं।
जूट को गलाना: जूट के पत्ती रहित तनों को गलाने में दो-चार दिन लेकर महीने भर का भी वक़्त लग सकता है। यह स्थानीय वायुमंडल और पानी की प्रकृति पर निर्भर करता है। गलने की प्रगति की रोज़ाना जाँच की जाती है। जब ऐसा लगता है कि डंठलों से रेशे आसानी से निकल सकते हैं तब डंठलों को पानी से निकाल कर रेशों को अलग किया जाता है। रेशा निकालने वाले को पानी में खड़ा रहकर, डंठलों की जड़ों को एक मुँगरी से पीटकर छीलना पड़ता है। इस तरह निकाले गये जूट के रेशों को अच्छी तरह से धोकर सुखाया जाता है।
उपज और बिक्री: जूट के डंठलों से 4.5 से 7.5 प्रतिशत रेशा प्राप्त होता है। सुखाये जा चुके जूट के रेशों को पूलियों में बाँधा जाता है। इसके बाद पूलियों को हाइड्रोलिक प्रेस से दबाकर जूट का गट्ठर बनाते हैं और इसे जूट मिल को बेचा जाता है। जहाँ अलग-अलग ग्रेड की सुतली या जूट का धागा बनाया जाता है। फिर इन्हीं धागों से जूट के अनगिनत उत्पाद बनते हैं।\
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