प्लास्टिक मल्चिंग (Plastic mulching): किसानों के लिए खेती-बाड़ी में आमदनी बढ़ाने का सबसे कारग़र नुस्ख़ा ‘फ़सल की लागत घटाना’ ही हो सकता है। इस लिहाज़ से उन्नत और अधिक पैदावार देने वाले नस्लों के अलावा मशीनीकरण समेत नयी कृषि तकनीकों की ख़ासी अहमियत है। प्लास्टिक मल्चिंग (Plastic mulching) ऐसी ही एक तकनीक है जो कई तरह से किसानों के लिए मददगार साबित होती है। क्योंकि इस तकनीक में जहाँ ज़मीन के पोषक तत्वों का ज़्यादातर हिस्सा सिर्फ़ रोपी गयी फ़सल को ही मिलता है, वहीं खाद-पानी की ख़पत भी बेहद घट जाती है।
इतना ही नहीं, कीटाणु और खरपतवार नाशक दवाईयों तथा गुड़ाई-निराई का खर्चा भी तकरीबन बच जाता है। इसीलिए प्रगतिशीलों के बीच प्लास्टिक मल्चिंग (आच्छादन) तकनीक बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हो रही है। मध्य प्रदेश सरकार तो इसे प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी भी दे रही है।
क्या है प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक?
प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक के तहत खेत में बुआई के लिए सभी तैयारियाँ पूरी करके क्यारियाँ बनायी जाती हैं। इसके बाद क्यारियों के उभरे हिस्सों को 25 से 30 माइक्रोन मोटाई वाली प्लास्टिक की शीट यानी पन्नी के ढक देते हैं। फिर इस पन्नी में पौधों की रोपाई के लिए ज़रूरी उपयुक्त दूरी पर तीन-चार इंच की गोलाई के छोटे-छोटे छेद बनाकर वहाँ की मिट्टी में फसल के पौधे रोपे जाते हैं।
मल्चिंग यानी छाया या आच्छादन की इस तकनीक में चूँकि प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है इसीलिए इसे प्लास्टिक मल्चिंग विधि या Plastic mulching technique of farming कहा गया। सब्जियों और फलदार पौधे के लिए ये तकनीक बेहद उपयोगी साबित हुई है। इसके ज़रिये प्याज़, टमाटर, धनिया, आलू, गोबी जैसी सब्ज़ियों की लागत काफ़ी घट जाती है और शानदार कमाई होती है।
प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक की वजह से एक बार सिंचाई करने के बाद खेतों में ज़्यादा वक़्त तक नमी बनी रहती है। इस तकनीक में रोपे गये या अंकुरित हुए नन्हें पौधों के तनों के आसपास का हिस्सा प्लास्टिक से ढका होने की वजह से खरपतवार नहीं पनप पाते। लिहाज़ा, इन्हें निकालने या नष्ट करने के लिए न तो गुड़ाई-निराई की श्रम की लागत आती है और ना ही खरपतवार-नाशक रासायनिक दवाईयों की ज़रूरत पड़ती है।
दूसरी ओर, परम्परागत खेती में ज़मीन की जिस उर्वरा शक्ति को खरपतवार हथिया लेते हैं वो ताक़त प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक की वजह से ज़मीन में ही बनी रहती है और उस फसल के पौधों के ही काम आती है, जिसकी खेती को किसान ने चुना है।
इसका असर ये होता है कि किसान को उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद पर अतिरिक्त लागत नहीं लगानी पड़ती। इन्हीं ख़ूबियों की वजह से ऐसे प्रगतिशील किसानों के बीच प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक बेहद लोकप्रिय है, जो जैविक खेती को अपना चुके हैं।
कैसे अपनाएँ प्लास्टिक मल्चिंग?
प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक को जिस खेत में अपनाना हो, उसकी सबसे पहले मिट्टी की जाँच करवानी चाहिए। ताकि ये पता चल सके कि खेत को किस तरह की खाद की और उसकी कितनी मात्रा की ज़रूरत है? इसके बाद खेत की बढ़िया ढंग से जुताई होनी चाहिए। जुताई के वक़्त ही खेत में उपयुक्त मात्रा में गोबर या केंचुआ खाद का इस्तेमाल करना चाहिए। जुताई के अन्त में खेत में उभरी हुई क्यारियाँ बना लेनी चाहिए।
इसके बाद ड्रिप इरीगेशन की पाइप लाइन बिछा देनी चाहिए। फिर प्लास्टिक शीट से क्यारियों के उभरे भाग को ढककर इसके सिरों को भी मिट्टी में दबा देते हैं। अब प्लास्टिक मल्चिंग पर गोलाई में पौधे से पौधे की दूरी के हिसाब से छेद किया जाता है और इन्हें छेदों में फ़सल के बीज या नर्सरी से तैयार पौधों को रोपा जाता है।
मल्चिंग तकनीक को अपनाने से किसानों को सबसे अधिक पानी की बचत होती है। यहाँ तक कि गर्मियों में भी ज़मीन की नमी ज़्यादा दिनों तक बनी रहती है और सिंचाई की लागत ख़ासी घट जाती है।
प्लास्टिक मल्चिंग की लागत और प्रोत्साहन
प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक अपनाने के लिए किसानों को जो प्लास्टिक की शीट या पन्नी खरीदनी पड़ती है, उसकी प्रति हेक्टेयर लागत औसतन 20-22 हज़ार रुपये तक बैठती है। मध्य प्रदेश सरकार के उद्यानिकी विभाग की ओर से प्लास्टिक मल्चिंग अपनाने वाले किसानों को प्रति हेक्टेयर की फसल पर 16 हज़ार रुपये की सब्सिडी भी दी जाती है। मुमकिन है कि ऐसा प्रोत्साहन अन्य राज्यों में भी मिलता है। इसके बारे में किसानों को अपने नज़दीकी कृषि अधिकारियों से पता करना चाहिए।
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