हर साल कम होती बारिश और घटते भूमिगत जल स्तर की वजह से जलसंकट की समस्या बढ़ रही है। पानी की कमी की समस्या से किसानों को भी दो-चार होना पड़ता है। आवश्यकतानुसार सिंचाई सही समय पर न होने से फसल को नुकसान पहुंचता है। पौधों में पानी की कमी की स्थिति तब पैदा होती है, जब मिट्टी में पानी की आवश्यक मात्रा उपलब्ध नहीं होती। पौधों को पर्याप्त पानी न मिले तो इससे प्रकाश संश्लेषण क्षमता (Photosynthesis Capacity) पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पौधों के विकास और उत्पादकता में गिरावट देखी जा सकती है। ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए कृषि क्षेत्र में हाइड्रोजैल तकनीक किसानों के लिए उपयोगी समाधान के रूप में सामने आई है। पूसा हाइड्रोजैल क्या है? कैसे ये काम करता है? इसपर किसान ऑफ़ इंडिया ने केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान (ICAR-CSSRI, Central Soil Salinity Research Institute) के लखनऊ स्थित रीज़नल सेंटर के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. संजय अरोड़ा से ख़ास बात की।
पूसा हाइड्रोजैल से पानी की कमी की समस्या होगी हल
डॉ. संजय अरोड़ा कहते हैं कि बदलते जलवायु के कारण विभिन्न क्षेत्रों में औसतन बारिश का अनुपात घटा है। दो बारिश के बीच की अवधि भी बढ़ जाती है। बारिश की कमी के कारण सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं हो पाता। इससे फसल सुखने लगती है। इसलिए अब ज़रूरी हो गया है कि खेती में इस तरह की तकनीकों को अपनाया जाए, जिससे कम पानी में फसलों से अधिकतम लाभ लिया जा सके।
ICAR – Indian Agricultural Research Institute (भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा) के कृषि वैज्ञानिकों ने एक तकनीक ईज़ाद की है, जिसे पूसा हाइड्रोजैल का नाम दिया गया है। किसान इस नई तकनीक का खेती में इस्तेमाल कर कम पानी में फसलों से अधिक पैदावार ले सकते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित पूसा हाइड्रोजैल अनिश्चित वर्षा के कारण फसल को होने वाले नुकसान को रोकने में वरदान साबित हो सकता है।
प्राकृतिक पॉलिमर है हाइड्रोजैल
डॉ. संजय अरोड़ा ने कहा कि हाइड्रोजैल की मदद से बारिश के पानी को ज़्यादा समय तक खेतों में संग्रहित रखा जा सकता है। इसका इस्तेमाल उस वक्त किया जाता है जब फसलों को पानी की ज़रूरत होती है। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजैल का विकास ग्वार फली से किया है। हाइड्रोजेल एक मिश्रित क्रॉस-लिंक्ड पदार्थ है, जो पूरी तरह से प्राकृतिक पॉलिमर है। इसमें पानी को सोख लेने की क्षमता होती है मगर यह पानी में घुलता नहीं है। पानी के संपर्क में आने पर यह एक जैल में परिवर्तित हो जाता है और अपने वजन का 350-500 गुना पानी सोख लेता है। फिर ये पौधे की जड़ से चिपक जाता है और आवश्यकतानुसार फसल को नमी प्रदान करता रहता है। हाइड्रोजैल से मिट्टी की उर्वरता पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। इसके अलावा, हाइड्रोजैल बायोडिग्रेडेबल होता है, जिससे प्रदूषण का भी खतरा नहीं रहता।
पूसा हाइड्रोजैल सोख लेता है पानी
डॉ. संजय अरोड़ा के अनुसार, जब खेतों में हाइड्रोजैल का इस्तेमाल करते हैं तो हाइड्रोजैल के कण सिंचाई या बारिश के वक्त अपनी क्षमता से कई गुना अधिक पानी सोख लेते हैं। जब खेतों में बारिश और सिंचाई न होने की वजह से नमी की कमी हो जाती है, तब हाइड्रोजैल के कणों से पानी रिस कर खेत में नमी बनाए रखते हैं। अगर खेतों में पुन: बारिश और सिंचाई होती है, तो हाइड्रोजैल के कण दोबारा पानी को सोख लेते हैं और ज़रूरत के मुताबिक फिर उसमें से पानी रिसकर खेत में नमी बनाए रखते हैं।
कम लागत में जल संकट से निपटारा
प्रधान कृषि वैज्ञानिक डॉ. संजय अरोड़ा ने बताया कि अगर कोई किसान हाइड्रोजैल का इस्तेमाल करना चाहता है तो एक एकड़ खेत के लिए एक किलोग्राम हाइड्रोजैल के ग्रेन्यूल काफ़ी हैं। इसकी कीमत लगभग 1000 से 1200 रूपये होती है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित पूसा हाइड्रोजैल दिखने में बारीक कंकड़ों जैसा होता है।
कैसे करें पूसा हाइड्रोजैल का इस्तेमाल?
पूसा हाइड्रोजैल को फसल की बुवाई के समय ही बीज के साथ खेतों में मिलाकर डाला जाता है। जब फसल की पहली सिंचाई की जाती है तो पूसा हाइड्रोजैल पानी को सोखकर 10 मिनट में ही फूल जाता है और जैल में बदल जाता है। जैल में बदला यह हाइड्रोजैल गर्मी या अधिक तापमान से सूखता नहीं है। यह पौधों की जड़ों से चिपका रहता है। पौधे अपनी ज़रूरत के मुताबिक जड़ों के माध्यम से हाइड्रोजैल से पानी लेते रहते हैं।
एक बार खेत में डालने पर 2 से 5 साल तक करता है काम
डॉ। अरोड़ा ने बताया कि खेतों में हाइड्रोजैल का एक बार इस्तेमाल करने के बाद यह दो से लेकर पांच साल तक काम करता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने मक्का, गेहूं, आलू, सोयाबीन, सरसों, प्याज, टमाटर, फूलगोभी, गाजर, धान, गन्ना, हल्दी, जूट समेत अन्य फसलों में हाइड्रोजैल का इस्तेमाल करके पाया है कि इसके इस्तेमाल से फसल की उपज तो बढ़ती है साथ ही पर्यावरण और फसलों को किसी तरह का नुकसान नहीं होता है।
नहीं सूखेंगी फसलें
हाइड्रोजैल, खेती में पानी के बेहतर इस्तेमाल के लिए अच्छी तकनीक है क्योकि भारत में पानी की जितनी खपत होती है, उसका 85 प्रतिशत हिस्सा खेती में इस्तेमाल होता है। जिस तरह धीरे-धीरे पानी की किल्लत हो रही है अगर किसान इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं तो काफ़ी हद तक पानी की कमी की समस्या से निज़ात पाया जा सकता है। पानी की कमी वाले क्षेत्रो में भी फसलों से अच्छी उपज ले सकते है।
डॉ. संजय अरोड़ा कहते हैं कि आज के वक्त में सिंचाई जल की कमी एक गंभीर समस्या बनती जा रही है, लेकिन इसका समाधान संभव है। पूसा हाइड्रोजैल इसी समस्या का एक विकल्प है। बस ज़रुरत है तो कृषि वैज्ञानिकों द्वारा बताई गई तकनीकों को अपनाने की, जिससे किसान कम लागत में ज़्यादा उपज और ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकें।
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