गर्मी और बरसात के मौसम में पहाड़ी इलाकों के पशुपालकों के लिए अपने पशुओं को जोंक (Leech) के हमलों से सुरक्षित रखना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। जोंक के हमले की सबसे प्रमुख वजह है कि पहाड़ी इलाकों में पालतू पशु आमतौर पर नज़दीकी जंगलों में चरने के लिए जाते हैं।
वहाँ नदियों-झरनों और झीलों-तालाबों तथा पानी से भरे धान के खेतों में छिपे जोंक पालतू पशुओं का ख़ून चूसने के लिए उनके अंगों में चिपट जाते हैं और अपने जीवाणुओं से उन्हें संक्रमित करके गम्भीर रूप से बीमार भी करते हैं। इससे पशुओं की उत्पादकता गिर जाती है और पशुपालकों को बहुत नुकसान होता है।
रोमंथी (Ruminant) उन स्तनधारी पशुओं को कहते हैं जो जुगाली करके अपना भोजन पचाते हैं। घने जंगलों में गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर, गधा, घोड़ा, कुत्ता और यहाँ तक कि इंसान भी जोंक के शिकार बनते हैं। पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में पाले जाने वाला मिथुन को भी गौवंश का हिस्सा माना जाता है। इसका रूप-स्वरूप गाय और भैंस के मिश्रण जैसा लगता है। वहाँ के पहाड़ी जंगलों में चारे की तलाश में मिथुन रोज़ाना लम्बी दूरियाँ तय करते हैं और अक्सर जोंक से फैलने वाले संक्रमण से पीड़ित होते हैं जिसे ‘हिरूडीनियासिस’ कहते हैं।
पशु स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार, हिरूडीनियासिस के दो स्वरूप हैं: बाहरी, जिसमें त्वचा के किसी भी हिस्से में जोंक चिपट जाती है और भीतरी, जिसमें साँस की नली या मल-मूत्र या प्रजनन पथ में पहुँचकर जोंक पशु का ख़ून चूसते हैं और उन्हें संक्रमित करके बीमार करते हैं। ठंड के मौसम में जोंक के हमले कम नज़र आते हैं, क्योंकि जोंक ऐसे परजीवी हैं जो ज़्यादातर गर्मी और बरसात के महीनों में ही सक्रिय रहते हैं। सर्दियों में ये चट्टानों, लकड़ी के लट्ठों वग़ैरह में बनाये गये अपने बिल में शीतनिद्रा में चले जाते हैं।
पूर्वोंत्तर के अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिज़ोरम में तो जोंक संक्रमण को मिथुन के लिए एक गम्भीर स्वास्थ्य समस्या और स्थानिक रोग (local disease) का दर्ज़ा दिया गया है। बता दें कि पशु जनगणना 2019 के मुताबिक, देश में मिथुन की आबादी 4 लाख से ज़्यादा है। लेकिन मिथुन की सेहत पर जोंक से फैलने वाले संक्रमण से होने वाले दुष्प्रभाव की भी ज़्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन माना गया है कि मिथुन में ख़ून की कमी का प्रमुख कारण जोंक का हमला ही है।
अब तो जोंक संक्रमण को एक और उभरते हुए परजीवी रोग ‘जूनोसिस’ की वजह के रूप में भी देखा जा रहा है। वैसे जोंक के हमले का असर जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड के गाय-भैंस या भेड़-बकरियों पर भी ख़ूब रहता है।
जोंक की किस्में और विशेषताएँ
मोटे तौर पर जोंक को स्थलीय और जलीय किस्मों में वर्गीकृत किया गया है। स्थलीय जोंक उष्णकटिबन्धीय (tropical) क्षेत्रों में पायी जाती हैं, जबकि जलीय जोंक तो दुनिया भर में मिलती हैं। जलीय जोंक के मुकाबले स्थलीय जोंक का आकार छोटा होता है। पूर्वोत्तर भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों और पशुधन के सामान्य जीवनयापन में जोंक को हमेशा बाधक पाया जाता है।
हालांकि, वहाँ के पहाड़ी जंगलों को पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की जैव विविधता के प्रमुख इलाके के रूप में भी देखा जाता है। इसीलिए वहाँ विभिन्न प्रजातियों के जोंक भी बड़ी संख्या में मिलते हैं। जोंक की 600 से ज़्यादा प्रजातियों में से करीब 45 भारत में भी पायी जाती हैं।
जोंक एक रक्त चूषक (Sanguivorous) और द्विलिंगी (Hermaphrodite) कृमि (Worm) है। काला, गहरा भूरा, छींटेदार और चमकीला इसके सामान्य रंग हैं। इसकी लम्बाई 5 मिलीमीटर से लेकर 45 सेंटीमीटर तक हो सकती है। जोंक का बेलनाकार शरीर, माँसपेशियों तथा रक़्त को जमा रखने वाले ऊतकों (tissues) से बना होता है। इसके दोनों सिरों शक्तिशाली चूषक होते हैं। जोंक के जबड़ों में ढेरों बेहद नुकीले दाँत होते हैं जो ख़ून चूसने के दौरान त्वचा पर घाव कर देते हैं। जोंक अपने शारीरिक वजन से दस गुना ज्यादा ख़ून चूसने की क्षमता रखते हैं। स्तनधारी प्राणियों का ख़ून इनका मुख्य आहार होता है।
पशुओं का भरपूर ख़ून चूसकर अक्सर जोंक उनके शरीर से अलग होकर ज़मीन पर गिर जाती है। हालाँकि जोंक की कुछ किस्में कई दिनों और हफ़्तों तक शरीर से ख़ून चूसती रहती हैं। आमतौर पर जोंक को किशोरावस्था से वयस्क के रूप में विकसित होने के लिए कम से कम 3 से 5 बार ख़ून चूसने की ज़रूरत पड़ती है।
जोंक का जीवनकाल 1 से लेकर 3 वर्ष का होता है। इनकी लार में चेतनाविहीन करने वाला ‘ऐनस्थेटिक’ पदार्थ होता है, जिसकी वजह से पशुओं को ख़ून के चूसे जाने से जुड़ा दर्द महसूस नहीं होता और वो इससे छुटकारा पाने की कोशिश नहीं कर पाते। जोंक की ऐनस्थेटिक लार में ही हीरुडिन जैसे अनेक जीवाणु पाये जाते हैं जो एलर्जी भी पैदा करते वाले और ख़ूब के बहने से रोकने वाली प्रक्रिया को बाधित करते हैं।
मिथुन में जोंक संक्रमण के लक्षण
जंगल में जब पशु चर रहे होते हैं तब उनकी त्वचा और खुर में जोंक चिपक जाते हैं। ख़ून चूसने के दौरान जोंक जो घाव पैदा करते हैं उससे पशुओं में गम्भीर रक्तस्राव होने लगता है। इसे ठीक होने में काफ़ी समय लगता है। यदि किसी वजह से पशुओं को जोंक से संक्रमित पानी पीना पड़ता है तो जोंक उनके मुँह और नाक में शरीद में जा पहुँचते हैं और साँस या भोजन मार्ग की पतली झिल्लियों में चिपककर लगातार ख़ून चूसते रहते हैं।
जोंक के हमले से पीड़ित पशुओं के नाक से भी ख़ून बहने लगता है, उन्हें साँस लेने, चारा निगलने और पानी पीने में कठिनाई होती है। उनमें खर्राटे भरने, खाँसी, एनीमिया, बुखार और कमजोरी के गम्भीर लक्षण दिखायी देते हैं। कभी-कभार हमलावर जोंक, पशुओं के मूत्रमार्ग, मूत्राशय, योनि और मलाशय में भी दाख़िल हो जाते हैं। इससे उन्हें रक्तस्राव, योनि से रक्तस्राव, रक्त के थक्के बनने, मूत्र विसर्जन में कठिनाई, ख़ूनी दस्त और दूसरे दर्ज़े के जीवाणु संक्रमण जैसी तकलीफ़ें होती हैं।
जोंक के संक्रमण का उपचार और रोकथाम
जोंक के हमले से पड़ने वाले दुष्प्रभाव का उपचार और रोकथाम के दो पहलू होते हैं। पहला, पशु के शरीर में चिपके हुए जोंक को हटाना और दूसरा, उसकी ओर से बनाये गये घावों और दूसरे दर्ज़े के जीवाणु संक्रमण का इलाज़ करना। शरीर से चिपके जोंक को उसके शरीर के बीच में चिमटी से पकड़कर सावधानी से और धीरे-धीरे खींचना चाहिए। क्योंकि ज़्यादा बलपूर्वक उन्हें खींचने से उनके जबड़े का मुख्य हिस्सा पशुओं के शरीर में धँसा रह सकता है और उससे संक्रमण बढ़ सकता है। जोंकरोधी (एंटीलीच) गुणों वाले पदार्थों के ज़रिये भी जोंक को पशुओं की त्वचा से हटाया जाता है।
नाक की झिल्लियों से चिपकी जोंक को चिमटी से निकालने से पहले कभी-कभी नमक-पानी के घोल (सेलाइन) से नाक की सिंचाई करने की भी ज़रूरत पड़ती है। इसके अलावा कीटनाशक स्प्रे, कोकीन की बूँदें, टॉपिकल लिडोकेन, सिरका, मिट्टी का तेल (केरोसिन) और डिस्टिल्ड वॉटर का प्रयोग भी जोंक को निकालने के लिए किया जा सकता है। बहते ख़ून का नहीं रुकना या घाव से लगातार ख़ून का बहते रहना जोंक के संक्रमण से पैदा होने वाली एक बहुत ही सामान्य और घातक दशा होती है।
ऐसे हाल में फ़ौरन पशु चिकित्सक की मदद लेकर उपयुक्त एंटीबॉयोटिक, एंटीहिस्टमीन और हीमोस्टैट (ख़ून रोकने के लिए) दवाओं के टीके लगवाने की नौबत आ जाती है।
जोंक के हमले का हर्बल उपचार
जोंक से छुटकारा पाने के लिए साधारण नमक का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होता है, क्योंकि नमक के सम्पर्क में आने के की वजह से महज एक मिनट में जोंक की मौत हो जाती है। नमका वाला नुस्ख़ा हरेक किस्म की जोंक पर कारगर साबित होता है। जोंक की रोकथाम और पशुओं के शरीर पर बने घाव के उपचार के लिए पूर्वोत्तर भारत के किसान अनेक जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करते हैं।
ऐसे हर्बल उपचारों को शानदार विकल्प माना गया है कि क्योंकि इससे पशु और वातावरण को कोई नुकसान नहीं पहुँचता और ये आसानी से सुलभ होते हैं। जोंकरोधी हर्बल औषधियाँ मोटे तौर पर तीन तरह की होती हैं:
- जोंक घातक यानी जोंक का मारने वाली
- जोंक प्रतिकर्षक यानी जोंक को दूर भगाने वाली
- घाव के उपचार में उपयोगी औषधियाँ
पूर्वोत्तर की जनजातियों में प्रचलित जोंक से बचाव और उपचार की हर्बल औषधियाँ | ||
औषधीय पौधा | उपयोग का तरीका | विशेषता |
तम्बाकू/ वन तम्बाकू | सूखे पत्तों का पाउडर जोंक पर छिड़कना | जोंक प्रतिकर्षक/ घातक |
ककड़ी/ खीरा | फल के सेवन से आंतरिक जोंक संक्रमण में लाभ | जोंक प्रतिकर्षक/ घातक |
तेजफल/ तिमुर | सूखे फल का पाउडर शरीर और पैरों पर लगाना | जोंक प्रतिकर्षक |
अरबी/कोचई | पेटिओल (वृत) को पीसकर रस लगाना | जोक प्रतिकर्षक |
अदरक | राइजोम (प्रकन्द) को पीसकर रस लगाना | जोंक प्रतिकर्षक |
सुपारी | कद्दूकस करके सुपारी का अर्क बनाकर त्वचा पर लगाना | जोंक प्रतिकर्षक |
सोडा एप्पल | सन्दलित फल को शरीर और पैरों पर लगाना | जोंक प्रतिकर्षक |
जंगली पुदीना | पत्तियों को पीसकर रस लगाना | रक्त स्कंदन/ घाव प्रबन्धन |
बाँस | हरे तने की पाउडर जैसी खुरचन को लगाना | रक्त स्कंदन/ घाव प्रबन्धन |
तीव्र गन्ध/ बनमासुवा | पत्तियों को पीसकर रस लगाना | रक्त स्कंदन/ घाव प्रबन्धन |
मीठी पत्ती/ चिनी झार | पत्तियों को पीसकर रस लगाना | रक्त स्कंदन/ घाव प्रबन्धन |
लहरे बनमारा | पत्तियों को पीसकर उसका लेप (पेस्ट) त्वचा पर लगाना | रक्त स्कंदन/ घाव प्रबन्धन |
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