केन्द्र सरकार के तीनों विवादित कृषि क़ानूनों को रद्द किये जाने की माँग को लेकर 6 महीने से ज़्यादा वक़्त से आन्दोलन कर रहे किसानों 5 जून को ‘कारपोरेट भगाओ, खेती बचाओ’ दिवस मनाने का फ़ैसला किया है। इसके तहत गाँव-गाँव में किसानों की ओर से सरकार के रवैये के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करके तीनों कृषि क़ानूनों की प्रतियाँ जलायी जाएगी। साथ ही बिजली (संशोधन) विधेयक 2020 को भी वापस लेने तथा सभी कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम दाम तय किये जाने की माँगों को भी दोहराया जाएगा।
हरियाणा के बहादुरगढ़ ज़िले में नयागाँव चौक के पास 30 मई को हुई भारतीय किसान यूनियन एकता की किसान सभा और ऑल इंडिया किसान खेत मजदूर संगठन की ऑनलाइन बैठकों में तय किया कि 5 जून को ‘कॉरपोरेट भगाओ, खेती बचाओ’ दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन प्रदेश में किसान विरोधी तीन कृषि क़ानूनों और बिजली बिल 2020 की प्रतियों को ज़्यादा से ज़्यादा गाँवों में जलाया जाएगा। उधर, झज्जर ज़िले में भी ढांसा बॉर्डर पर भी धरने की तैयारी चल रही है। वहाँ भी 5 जून को किसान आन्दोलन के समर्थन में ‘कॉरपोरेट भगाओ, खेती बचाओ’ दिवस मनाया जाएगा।
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किसान आन्दोलन का अतीत
पिछले साल 5 जून को केन्द्र सरकार ने खेती-किसानी से जुड़े उन तीन अध्यादेशों को लागू किया था जिन्हें संसद के आगामी सत्र में क़ानूनों का दर्ज़ा मिल गया और लगे हाथ राष्ट्रपति ने उसे लागू किये जाने के आदेश जारी कर दिये। इन्हीं तीनों क़ानूनों के ख़िलाफ़ संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले अनेक राज्यों में तमाम किसान संगठन लामबन्द होना शुरू हुए। यही लामबन्दी ‘किसान आन्दोलन’ कहलायी। इसी आन्दोलन के तहत दिल्ली की सीमाओं पर 26 नवम्बर से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का धरना-प्रदर्शन जारी है।
सभी कोशिशें नाकाम – छह महीने से लम्बे खिंच गये किसान आन्दोलन को ख़त्म करवाने के लिए किसानों नेताओं की कृषि मंत्री की अगुवाई वाले सरकारी समूह से कम से कम 11 दौर की बातचीत भी हुई। मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुँचा। विशेषज्ञों की समिति भी बनी। लेकिन सारी क़वायद का नतीज़ा सिर्फ़ इतना ही रहा कि किसान आन्दोलन अभी तक जारी है। हालाँकि, कोरोना महामारी की भयावहता और मौसम तथा खेती-किसानी की चुनौतियों की वजह से कई बार ऐसा भी लगा कि किसानों का गुस्सा अब महज सांकेतिक ही रह गया है।
सुलग ही रहा है विरोध – दूसरी ओर ऐसा साफ़ दिख रहा है कि किसानों का आन्दोलन भले ही सतह पर सांकेतिक लगे लेकिन आग अभी बुझी नहीं है। वो अन्दर खाने लगातार सुलगती ही रही है और किसान नेताओं की ओर से बारम्बार दोहराया जा रहा है कि विवादित कृषि क़ानूनों को पूरी तरह से वापस लिये जाने तक वो अपने घरों को नहीं लौटेंगे। पूरे प्रसंग में किसान और सरकार, दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी ज़िद पर अड़े हुए और ये अनुमान लगाना मुश्किल है कि कौन अपने क़दम पीछे खींचने के लिए राज़ी होगा? अलबत्ता, किसान आन्दोलन की अभी तक की प्रगति ने सरकार के लिए भले ही कोई गम्भीर राजनीतिक चुनौती नहीं पैदा की हो, लेकिन इससे उससे इक़बाल पर काली छाया तो अवश्य पड़ी है।