कृषि का सुनहरा भविष्य सिर्फ़ जैविक खेती में ही है। सारी दुनिया रासायनिक उर्वरकों और पर्यावरण के लिए विनाशकारी साबित हो रहे कीटनाशकों के दुष्प्रभावों से सबक लेकर वापस उसी जैविक खेती का रुख़ कर रही है, जो सदियों से धरती पर क़ायम रहा है क्योंकि सिर्फ़ जैविक खेती ही प्रकृति के अनुकूल है। जैविक खेती से ही ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ सम्भव है। इसीलिए भारतीय कृषि को यदि मुनाफ़े और खुशहाली का पेशा बनाना है कि हमें जैविक खेती का ही दामन थामना होगा।
जैविक खेती में रासायनिक खाद, कीटनाशक और जेनिटिक इंजीनियरिंग वाले बीजों का उपयोग वर्जित है। जैविक खेती करने वाले किसान फसल कटने के बाद उसके अवशेषों से खाद बनाते हैं। मिट्टी के पोषक तत्वों की भरपाई के लिए गोबर से तैयार जैविक खाद, फास्फो कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, बायोगैस स्लरी, नाडेप कम्पोस्ट, नीलहरित शैवाल और एजोला का इस्तेमाल किया जाता है। जैविक खेती के बीजों का उपचार करने के लिए गोमूत्र, नीम और करंज की पत्तियाँ, नीम का तेल, निबोंली जैसी जैविक औषधियों का ही इस्तेमाल होना चाहिए।
भारत में जैविक खेती
देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए केन्द्रीय कृषि मंत्रालय वर्ष 2015-16 से एक समर्पित कार्यक्रम ‘परम्परागत कृषि विकास योजना’ (PKVY) चला रही है। इस योजना के ज़रिये जैविक खेती से जुड़ने वाले किसानों को उत्पादन से लेकर फसलोत्तर प्रबन्धन, प्रसंस्करण, पैकिंग, प्रमाणन और विपणन के काम में मदद और मार्गदर्शन किया जाता है। PKVY के तहत जैविक खेती अपनाने वाले किसानों को तीन साल तक 50 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वित्तीय सहायता दी जाती है। इसमें से जैविक खाद, जैविक कीटनाशक, वर्मी-कम्पोस्ट, वानस्पतिक अर्क जैसी खेती की लागत वाली चीज़ों के लिए किसानों को 31 हज़ार रुपये (62%) सीधे उनके बैंक खातों में भेजे जाते हैं।
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देश में रासायनिक उर्वरकों का परित्याग करके फिर से जैविक खेती की ओर लौटने का सिलसिला दो-तीन दशक पुराना ही है। भारतीय खेती में आधुनिक जैविक तकनीक के विकास के तीन पहलू हैं। पहला, ऐसे क्षेत्र जहाँ परम्परागत तरीके से मामूली निवेश करके ही खेती हो जाती है। हालाँकि, मुमकिन है कि ऐसी खेती करने वाले किसानों के संसाधन बेहद सीमित हों या फिर खेती की उत्तम तकनीकों तक उनकी पहुँच अब तक नहीं बन पायी हो।
दूसरा वर्ग उन किसानों का है जिन्होंने रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के दुष्प्रभावों को देखते हुए वापस पारम्परिक खेती का रुख़ किया हो। मुमकिन है कि ऐसे किसान मिट्टी की घटती उर्वरा शक्ति या दिनों-दिन बढ़ रही फसल की लागत के अनुरूप खेती को फ़ायदेमन्द नहीं पाया हो और मज़बूर होकर जैविक खेती को अपनाया हो।
तीसरे तबके में वो प्रगतिशील किसान आते हैं जिन्हें जैविक खेती के व्यावसायिक लाभ और पर्यावरण के अनुकूल होने वाले पहलू ने आकर्षित किया। क्योंकि ये निर्विवाद है कि जैविक खेती से पैदा होने वाली उपज की न सिर्फ़ बाज़ार में भरपूर माँग है, बल्कि इसका दाम भी बढ़िया मिलता है। साथ ही, इसके निर्यात का भी अपार अवसर मौजूद है।
LAC कार्यक्रम
साल 2020-21 में PKVY को संशोधित करके बड़े और पारम्परिक जैविक खेती वाले इलाकों जैसे पहाड़ियों, द्वीपों, आदिवासी और रेगिस्तानी क्षेत्रों को प्रमाणित करने के लिए बृहद क्षेत्र प्रमाणन (Large Area Certification, LAC) कार्यक्रम शुरू किया। इसके तहत जिन इलाकों में खेती में रासायनिक पदार्थों के उपयोग का कोई इतिहास नहीं है, वहाँ जैविक खेती के प्रमाणन की सारी प्रक्रिया को 3-6 महीने में पूरा किया जाता है। जबकि जो इलाके रासायनिक खाद या कीटनाशक वग़ैरह के प्रभाव में होते हैं वहाँ जैविक खेती के लिए अपेक्षित प्रमाणन की ज़रूरतें पूरा करने में 2-3 साल लगते हैं। LAC कार्यक्रम की वजह से वर्षों का काम महीनों में हो जाता है और किसानों को अपनी उपज को प्रीमियम कीमतों पर बेचने की अनुमति और सुविधा मिल जाती है।
देश का पहला LAC
केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने 28 जुलाई 2021 को लोकसभा को बताया कि LAC कार्यक्रम के तहत केन्द्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कार निकोबार और नानकॉरी द्वीप समूह की 14,491 हेक्टेयर कृषि योग्य ज़मीन को जैविक खेती के लिए देश के पहले ‘बृहद क्षेत्र प्रमाणन’ का दर्ज़ा दिया गया। इसी कार्यक्रम के तहत भारत सरकार केन्द्र शासित प्रदेश लद्दाख के लिए भी 11.48 लाख रुपये जारी कर चुकी है।
कैसे करवाएँ जैविक खेती के लिए रजिस्ट्रेशन?
जैविक खेती से जुड़ने के इच्छुक किसानों और इसकी मार्केटिंग में दिलचस्पी रखने वाले कारोबारियों को सरकारी वेबसाइट https://www.jaivikkheti.in/ पर ख़ुद को रजिस्टर करना चाहिए। इस पोर्टल पर जैविक खेती से सम्बन्धित हरेक जानकारी मौजूद है। इसके जरिये किसान अपने उत्पादों का बेहतर दाम पा सकते हैं तो व्यापारी उन किसानों से सीधे जुड़ सकते हैं जो जैविक खेती के उत्पाद पैदा करते हैं। पोर्टल में रजिस्ट्रेशन के लिए वेबसाइट के होम पेज़ पर दाहिनी ओर ‘रजिस्टर’ टैब पर क्लिक करें और माँगी जा रही हरेक जानकारी को सही ढंग से भरके ‘सबमिट’ करें।
जैविक खेती और सत्यापन
जैविक खेती के लिहाज़ से ऊपर बताये गये पहले वर्ग के किसानों को ‘अप्रमाणित’ माना जाता है। जबकि दूसरे समुदाय में ‘प्रमाणित और अप्रमाणित’, दोनों ही किस्म के किसान आते हैं। लेकिन तीसरे समूह में आने वाले ज़्यादातर किसान ‘प्रमाणित’ ही होते हैं। यही तीसरा तबका व्यापारिक नज़रिया अपनाते हुए आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करके संगठित तौर पर जैविक खेती कर रहा है इसीलिए यही वर्ग आकर्षण का भी केन्द्र बनता है और जैविक खेती से सम्बन्धित भारतीय आँकड़े भी इसी वर्ग की उपलब्धियों का बखान करते हैं।
जैविक खेती का प्रमाणन
जैविक खेती में किसी भी रासायनिक उत्पाद के इस्तेमाल की सख़्त मनाही होती है। इसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग भी वर्जित है। इसकी निगरानी के लिए किसान और उसके उत्पादों का जैविक प्रमाणन होना भी ज़रूरी है। प्रमाणन का काम मान्यताप्राप्त संस्थाओं से ही होना चाहिए। जैविक प्रमाणीकरण के लिए वार्षिक फसल योजना, ज़मीन के दस्तावेज, किसान का पैन कार्ड, आधार कार्ड, पासपोर्ट साइज फोटो, जैविक खेती वाले फॉर्म का नक्शा और इसका जीपीएस डाटा एक निर्धारित फॉर्म के साथ उपलब्ध कराना होता है।
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किसान के आवेदन की जाँच प्रमाणन संस्था करती है। जहाँ आवेदक किसान अपने खेतों और जैविक तैयारियों का ब्यौरा देता है। इसे उपयुक्त पाये जाने के बाद किसान को निरीक्षण और प्रमाणीकरण का निर्धारित शुल्क जमा करना पड़ेगा। निरीक्षण-रिपोर्ट की जाँच करके संस्था किसान को प्रमाणपत्र देती है। एक साल, तीन साल या इससे ज़्यादा वक़्त से जैविक खेती करने वालों को अलग श्रेणी का प्रमाणपत्र मिलता है।
प्रमाणित किसान अपने उत्पाद कहीं भी बेच सकते हैं। सीधे निर्यात भी कर सकते हैं। प्रमाणपत्र के साथ ही किसान चाहे तो संस्था से करार करके स्थायी पंजीयन संख्या भी हासिल कर सकता है। इसके बाद संस्था की ओर से जैविक खेती लगी लागत, फसल की कटाई, मड़ाई, भंडारण, विक्रय का रिकॉर्ड, मिट्टी और सिंचाई के पानी की जाँच, फॉर्म पर तैयार हुई खाद, बीज और कीटनाशक का ब्यौरा भी आवेदक के दस्तावेज़ों के साथ संलग्न रखा जाता है।
सत्यापित जैविक खेती का विस्तार
जैविक खेती पर शोध करने और इसे प्रोत्साहित करने का काम सर्वोच्च स्तर पर ग़ाज़ियाबाद स्थित राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र (NATIONAL CENTRE OF ORGANIC FARMING – NCOF) करता है। ये राष्ट्रीय कृषि अनुसन्धान परिषद (ICAR) के मातहत है। इसकी 2010 की एक रिपोर्ट बताती है कि 2004 से 2010 के दरम्यान 6 वर्षों में देश में प्रमाणित जैविक खेती का रक़बा 42 हज़ार हेक्टेयर से बढ़कर 10 लाख हेक्टेयर तक जा पहुँचा था। इसके अलावा, तब 34 लाख हेक्टेयर वन्य क्षेत्र को भी जैविक खेती के पैमाने पर प्रमाणित किया गया था।
इसी तरह साल 2010 में देश की कुल 44 लाख हेक्टेयर ज़मीन को जैविक खेती के प्रमाणीकरण के अनुरूप पाया गया था। अनुमान है कि बीते 10-11 वर्षों में देश में जैविक खेती के लिए प्रमाणित भूभाग का कई गुना और बढ़ गया होगा, क्योंकि अब किसानों में जैविक खेती को अपनाने की चाहत कहीं ज़्यादा दिखायी दे रही है।
यदि बात करें ताज़ा आँकड़ों की तो 16 मार्च 2021 को केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने एक प्रश्न के उत्तर में लोकसभा को बताया कि बीते वर्षों में घरेलू बाजार में जैविक खेती की माँग बढ़ी है। उन्होंने बताया कि उद्योगों के संगठन ASSOCHAM–EY के एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार, जैविक उत्पादों का घरेलू बाज़ार सालाना 17% की रफ़्तार से बढ़ रहा है। साल 2021 तक इसके कुल कारोबार 87.1 करोड़ रुपये से ज़्यादा होने की उम्मीद है। साल 2016 में 53.3 करोड़ रुपये था। इसकी सबसे ख़ास वजह ये है कि विश्व बाज़ार में जैविक उत्पादों की माँग में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है।
जैविक खेती के लिए प्रोत्साहन नीति
जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र सरकार ने साल 2015-16 में दो योजनाएँ शुरू कीं। ‘परम्परागत कृषि विकास योजना’ (PKVY) और उत्तर पूर्वी क्षेत्र के लिए मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट योजना यानी Mission Organic Value Chain Development for North Eastern Region (MOVCDNER). दोनों योजनाएँ जैविक खेती से जुड़ने वाले किसानों को प्रोत्साहित करके उनके उत्पादन की शुरुआत से लेकर, प्रमाणन और मार्केटिंग (विपणन) तक के चक्र पर ज़ोर देती हैं। इसके तहत फसल की कटाई के बाद के प्रबन्धन जैसे प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग), पैकिंग, विपणन प्रक्रिया को लेकर किसानों की मदद की जाती है।
PKVY का दायरा जहाँ पूरा देश है। वहीं उत्तर पूर्वी राज्यों के लिए MOVCDNER के तहत किसानों को जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। PKVY के तहत किसानों को तीन साल के लिए 50 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर की वित्तीय सहायता दी जाती है। इसमें से 31 हज़ार रुपये यानी 62% रकम जैव उर्वरकों, जैव कीटनाशकों, जैविक खाद, खाद, वर्मी-खाद, वनस्पति अर्क वग़ैरह हासिल करने के लिए DBT (Direct Benefit Transfer) के ज़रिये किसानों के बैंक खातों में सीधे भेजे जाते हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों के मामले में बाक़ी शर्तें तो एक जैसी हैं, लेकिन वित्तीय सहायता की दर तीन साल के लिए 25 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर रखी गयी है।
जैविक खेती का नियमन और सत्यापन
आयात-निर्यात और स्थानीय बाज़ारों के लिए जैविक उत्पादों की गुणवत्ता तय करने के लिए एक विश्वसनीय प्रमाणन या सत्यापन प्रक्रिया स्थापित है। इसका नाम है – ‘राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम’। इसे जैविक उत्पादों के निर्यात से जुड़े विश्वस्तरीय मानकों को लागू करने के लिए चलाया जाता है। राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम के तहत अधिकृत प्रमाणन संस्था के सत्यापन के बाद यूरोपीय संघ, अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों को निर्यात होने वाले जैविक उत्पादों को फिर से सत्यापन की ज़रूरत नहीं पड़ती।
इस कार्यक्रम का संचालन वाणिज्य मंत्रालय की संस्था ‘कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण’ (APEDA) करती है। इसे ‘कृषि उत्पाद श्रेणी, चिन्हीकरण और प्रमाणन अधिनियम’ (APGMC) और ‘विदेश व्यापार विकास एवं नियमन अधिनियम’ के तहत बनाया गया है। ‘राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम’ के तहत जैविक उत्पादों के निरीक्षण और प्रमाणन का काम ‘राष्ट्रीय प्रत्यायन समिति’ करती है।
देश में अभी कम से कम 20 प्रमाणन संस्थाएँ हैं। इनमें 6 सरकारी हैं और बाक़ी निजी क्षेत्र की। फ़िलहाल 2099 संचालक और 427 खाद्य प्रसंस्करण इकाईयाँ रजिस्टर्ड हैं। जैविक खेती से जुड़े छोटे और मझोले किसानों के 919 समूहों से करीब 6 लाख किसान भी पंजीकृत हैं। इनके अलावा 753 किसान तो निजी स्तर पर रजिस्टर्ड हैं।
लघु और सीमान्त किसानों की संख्या के आधार पर देखें तो विश्व के कुल जैविक उत्पादकों में करीब आधे भारतीय हैं। विश्व के कुल जैविक फसलीय क्षेत्र एवं वनीय क्षेत्र में भारत का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्ष 2008-09 में 77 हज़ार टन जैविक कपास की पैदावार करके भारत इस श्रेणी में शीर्ष पर था। ये विश्व के कुल जैविक कपास उत्पादन का आधा था।