नैनीताल ज़िले के हल्द्वानी के रहने वाले नरेंद्र सिंह मेहरा खेती में अपने अभिनव प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं। गेहूं की किस्म ‘नरेंद्र 09’ ईज़ाद करने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है, जिसे भारत सरकार से मान्यता मिली हुई है। नरेंद्र सिंह मेहरा उत्तराखंड में जैविक खेती को बढ़ावा देने के मिशन में जुटे हुए हैं। इसी कड़ी में उनके अथक प्रयासों से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में फिर से गन्ने की फसल लहलाएगी।
गन्ने की खेती छोड़ने को क्यों मजबूर हुए किसान?
हल्द्वानी के गौलापार के गाँव मल्लादेवला के रहने वाले नरेन्द्र सिंह मेहरा ने कई तरह के अनाजों और फलों की खेती से जैविक खेती की शुरुआत की। किसान ऑफ़ इंडिया से ख़ास बातचीत में उन्होंने बताया कि गौलापार में जब 90 फ़ीसदी से ज़्यादा किसान गन्ने की खेती छोड़ चुके थे, उस वक़्त उन्होंने गन्ने की खेती को चुना। अन्य किसानों का गन्ने की फसल से मोह भंग होने के पीछे का कारण समय रहते दाम नहीं मिलना और मांग नहीं होना था। ऐसे किसानों ने नकदी फसलों का रूख कर लिया। हालांकि, गन्ना भी नकदी फसल है, लेकिन ये साल में सिर्फ़ एक बार ही ली जा सकती है।
जैविक तरीके से करते हैं गन्ने की खेती
नरेन्द्र सिंह मेहरा जैविक तरीके से ही गन्ने की खेती करते हैं। नरेन्द्र सिंह मेहरा बताते हैं कि कइ लोगों में गन्ने की खेती को लेकर धारणा है कि बिना यूरिया, DAP, NPK के सालभर में गन्ने की फसल नहीं ली जा सकती। लेकिन उन्होंने इस धारणा को नकारा और वो खुद पूरी तरह से जैविक तरीके से गन्ने का उत्पादन करते हैं।
नरेन्द्र सिंह मेहरा कहते हैं कि जब उन्होंने गन्ने की खेती शुरू की तो कई कठिनाइयों से दो-चार भी होना पड़ा। दीमक लगने से उनकी पूरी फसल खराब हो गई। अमूमन लोग इसके लिए केमिकल युक्त दवाइयों का छिड़काव करते हैं, लेकिन वो इसके पक्ष में नहीं थे। आगे वो कहते हैं कि उनके लिए जितना महत्वपूर्ण मित्र कीट है उतना ही शत्रु कीट भी है। वो गन्ने की फसल को कीटों से बचाने के विकल्पों की तलाश में लग गए।
वो कीटों से फसल के बचाव के लिए गौमूत्र, नीम की पत्तियां और हींग का इस्तेमाल करते हैं। नरेन्द्र सिंह मेहरा ने बताया कि हींग की सुगंध से ही दीमक आसपास नहीं फटकती। एक बार गन्ना परिपक्व हो जाए तो दीमक नहीं लगते। दीमक का स्वभाव होता है कि वो सिर्फ़ सुखी चीज़ों पर लगते हैं। नरेन्द्र सिंह कहते हैं कि दीमक भी एक तरह से मित्र कीट है। जंगल में दबी हुई लकड़ियों को खाकर वो उसे मिट्टी में परिवर्तित करते हैं। नरेन्द्र सिंह मेहरा ने दीमकों से जुड़ी एक और रोचक जानकारी साझा की। जिस क्षेत्र में ज़्यादा नमी होगी वहाँ दीमक बॉम्बी (मिट्टी के टीले) बनाते हैं। यानी जहां टीले होंगे, उस ज़मीन के नीचे पानी मिलने की संभावना अधिक होगी। दीमक की उपस्थिति ईकोलॉजिकल सिस्टम में संतुलन दर्शाती है। दीमक इको-सिस्टम का अंग है।
300 साल पहले से गुड़ बनाने की प्रथा
जैविक तरीके से गन्ने की खेती कर रहे नरेन्द्र सिंह मेहरा के प्रयासों को सराहते हुए उत्तराखंड गन्ना विकास विभाग ने उन्हें अपना रोल मॉडल किसान बनाया है। वो किसानों को ट्रेनिंग देते हैं। नरेन्द्र सिंह मेहरा कहते हैं कि एक बार पिथौरागढ़ से एक शख्स का फोन आया। उन्होंने जानकारी दी कि किसी ज़माने में पिथौरागढ़ में भी गन्ना उगाया जाता था। आज वहाँ कोल्हू जंग खा रहे हैं। जहां पहले करीबन 100 लोग गन्ने से गुड़ बनाने का काम करते थे, आज मुश्किल से एक से 2 किसान ही बचे हैं। नरेन्द्र सिंह मेहरा कहते हैं पिथौरागढ़ में 300 साल पहले से गुड़ बनाने की प्रथा थी।
नरेन्द्र सिंह मेहरा कहते हैं कि पहले तो उन्हें उस शख्स की बातों पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि गन्ना तराई क्षेत्रों में होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में गन्ने का उत्पादन कैसे हो सकता है। फिर उन्होंने इस शख्स से प्रमाण के तौर पर एक से दो किसानों का नंबर मांगा। जब उन किसानों से नरेन्द्र सिंह मेहरा की बात हुई तो वो हैरान रह गए। किसानों ने नरेन्द्र सिंह मेहरा को गुड़ के सैंपल दिखाए। कोल्हू की तस्वीरें भेजीं।
कभी पिथौरागढ़ का गुड़ जाया करता था विदेश
पिथौरागढ़ पूर्व में नेपाल और उत्तर में तिब्बत की सीमा से मिला हुआ है। नरेन्द्र सिंह मेहरा बताते हैं कि अंग्रेजों के शासन में एक समय ऐसा था जब नेपाल, तिब्बत और चीन से आने वाले लोग पिथौरागढ़ में बनने वाला गुड़ अपने साथ ले जाते थे।
पिथौरागढ़ के कई किसान बहुत सालों से जैविक विधि से गन्ने की खेती करते आ रहे हैं। लेकिन सही बाज़ार न मिलने और खाली होते गाँवों की वजह से गन्ने की खेती का रकबा घटता गया। अब तक ये किसान गन्ने की पुरानी किस्मों की ही खेती करते आ रहे थे।
गन्ने की उन्नत किस्म के बीज किसानों को कराए गए उपलब्ध
नरेन्द्र सिंह मेहरा ने पिथौरागढ़ में फिर से गन्ने की फसल को लहलहाने के उद्देश्य से गन्ना विकास विभाग से संपर्क किया। इसके बाद गन्ना एवं चीनी आयुक्त उत्तराखंड हंसा दत्त पांडे ने इस पर शोध करने का निर्देश दिया। शोध में सभी बातें सही पाई गईं।पिथौरागढ़ में गन्ने की खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों को 25 क्विंटल उन्नत किस्म के गन्ने का बीज उपलब्ध कराया गया। गन्ना विकास मंत्री सौरभ बहुगुणा ने 6 अप्रैल को हरी झंडी दिखाकर गन्ने को रवाना किया।
पिथौरागढ़ में कनालीछीना ब्लॉक के मलान गाँव के रहने वाले प्रगतिशील किसान जय प्रकाश जोशी का जिक्र करते हुए नरेन्द्र सिंह मेहरा ने बताया कि उन्होंने एकीकृत खेती (Integrated Farming) का मॉडल अपनाया हुआ है। फ़ार्म पॉन्ड, मछली पालन, गौपालन, बकरी पालन, आम के बागान, केले की उन्नत किस्में और बांस की खेती जैसी कई कृषि गतिवधियों से वो जुड़े हैं। साथ ही कई सालों से वो गन्ने की पुरानी किस्मों की भी खेती करते आए हैं। उन्हें अब उम्मीद है कि गन्ने की उन्नत किस्मों के मिलने से एक बार फिर शायद गन्ने की खेती को बढ़ावा मिले।
जैविक तरीके से गन्ने की उन्नत खेती
नरेन्द्र सिंह मेहरा गन्ने की जैविक खेती करते हैं। उन्होंने गन्ने की 2 उन्नत तकनीकों के बारे में बताया। एक है ट्रेंच विधि और दूसरी है रिंग पिट विधि।
क्या है ट्रेंच विधि?
ट्रेंच विधि में गहरी नालियां बना ली जाती है। 1 फीट चौड़ी और लगभग 25-30 सेंटीमेटर गहरी नालियां बना लेते हैं। एक नाली से दूसरी नाली की दूरी लगभग 4 से 5 मीटर तक होती है। इस तरह पूरे खेत में ट्रेंच बनाकर तैयार कर लिए जाते हैं। फिर ट्रेंच में गाय का गोबर, वर्मीकंपोस्ट, हरी खाद डाली जाती है। इसके बाद उसी समय बुवाई भी कर दी जाती है।
गन्ना एक ऐसी फसल है, जिसे बारिश भी चाहिए और तेज गर्मी भी। गन्ने की बढ़वार जुलाई से लेकर सितंबर के बीच अच्छी होती है। जिस क्षेत्र में उमस ज़्यादा होगी वहाँ गन्ने का उत्पादन तेजी से होता है। इस विधि से गन्ने की बुवाई करने के लिए तैयार नाली में दो आंख के उपचारित 10 से 12 गन्ने के टुकड़े प्रति मीटर की दर से इस तरह डालें कि उनकी आंखें अगल-बगल रहें।
गन्ने के बीज के लिए ऐसे गन्ने का चुनाव करें, जो लगभग 8 से 10 महीने का हो और रोग व कीट न लगे हों। इसके अलावा, ध्यान रखना चाहिए कि गन्ना गिरा हुआ या बहुत पतला न हो।
क्या है रिंग पिट विधि?
इसमें खेत की जुताई करने की आवश्यकता नहीं होती। इसमें मशीन या कृषि औजार से ढाई-ढाई फ़ीट की दूरी पर गड्ढा तैयार किया जाता है। इन गड्ढों की गहराई 15 से 18 इंच रखी जाती है। फिर इसमें गाय का गोबर, वर्मीकंपोस्ट, हरी खाद, नीम की पत्तियां, नीम की फलियां और हींग का पानी भी डाल सकते हैं। नरेन्द्र सिंह मेहरा ने बताया कि 15 इंच के गड्ढे को इन सब चीज़ों से भरके 6 इंच पर ले आते हैं। अब इसमें गन्ने की 5 आँखें लगा दें। फिर 2 इंच तक गड्ढे को हरी पत्तियों, पुआल, सड़ी घास, सूखे केले के पत्तों से ढक दें, जिससे नमी बने रहेगी। जब कल्ली बाहर निकलना शुरू होती है तो धीरे-धीरे मिट्टी, गोबर की खाद मिलाते जाएं। एक वक़्त ऐसा आएगा कि गड्ढा भरकर ज़मीन की सतह तक आ जाएगा। नरेन्द्र सिंह मेहरा ने बताया कि इससे गन्ना अच्छी ऊंचाई तक जाता है। चाहे कितनी भी तेज हवा चले, गन्ना गिरता नहीं है क्योंकि इसकी जड़ें मजबूत होती हैं। ये विधियां पहाड़ों में होने वाले मिट्टी कटाव को रोकने में भी मददगार है।
खुलेंगे रोज़गार के अवसर
नरेन्द्र सिंह मेहरा कहते हैं कि पिथौरागढ़ में गन्ने की खेती को बढ़ावा मिलने से कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा। गुड़ का उत्पादन बढ़ेगा और कई लोगों के लिए ये रोज़गार के अवसर लेकर आएगा। गन्ना किसानों को नई तकनीक से गन्ना बुवाई का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। विशेषज्ञों की इस टीम में खुद नरेंद्र सिंह मेहरा भी शामिल हैं। यहां के करीबन 150 किसानों को ट्रेंच विधि से गन्ने की बुवाई की ट्रेनिंग दी जाएगी। महिलाओं के लिए भी स्वरोजगार के अवसर खुलेंगे। स्वयं सहायता समूह की महिलाओं की मदद से गन्ने की प्रोसेसिंग भी की जाएगी।
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