तीनों विवादित कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने का एलान करते वक़्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आन्दोलनरत किसानों की MSP से जुड़ी एक अन्य और बेहद महत्वपूर्ण माँग पर भी अपनी सरकार के नज़रिये को साफ़ किया। उन्होंने कहा कि “आज ही सरकार ने कृषि क्षेत्र से जुड़ा एक और अहम फ़ैसला लिया है। ज़ीरो बजट खेती यानि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए, देश की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर क्रॉप पैटर्न को वैज्ञानिक तरीके से बदलने के लिए MSP को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए, ऐसे सभी विषयों पर, भविष्य को ध्यान में रखते हुए, निर्णय लेने के लिए, एक कमेटी का गठन किया जाएगा। इस कमेटी में केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होंगे, किसान होंगे, कृषि वैज्ञानिक होंगे, कृषि अर्थशास्त्री होंगे।”
भारतीय कृषि की दुर्दशा और पिछड़ेपन को घटाने में MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्योंकि भले की देश ने कृषि बाज़ार की राष्ट्रव्यापी व्यवस्था में काफ़ी तरक्की की हो, लेकिन अब भी इस मोर्चे पर काफ़ी कुछ किया जाना है। आन्दोलकारी किसानों और उनके संगठनों की माँग रही है कि MSP की नीति के दायरे को 23 फ़सलों से बढ़ाकर सभी तरह की उपज से जोड़ा जाए। उनका मानना है कि जिन फ़सलों का MSP निर्धारित है और जिसे समय-समय पर बढ़ाया भी जाता है, उसका लाभ भी सिर्फ़ मुट्ठीभर किसानों को ही मिल पाता है। दो हेक्टेयर या पाँच एकड़ से कम की काश्त करने वाले 10 करोड़ से ज़्यादा ऐसे छोटे किसान हैं जिनमें से ज़्यादातर तक MSP का कोई लाभ नहीं पहुँच पाता है।
किन 23 फ़सलों के लिए है MSP?
देश में भले ही सैंकड़ों किस्म के कृषि उत्पादों की खेती और कारोबार होता है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) सिर्फ़ 7-अनाजों, 5-दलहनों, 7-तिलहनों और 4-नगदी (कमर्शियल) फ़सलों के लिए ही तय किया जाता है। इसमें 14 फ़सलें ख़रीफ़ की हैं और 6 फ़सलें रबी की हैं। ख़रीफ़ की MSP वाली फ़सलें हैं – धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, अरहर, मूँग, उरद, मूँगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, तिल, रामतिल और कपास। रबी की MSP वाली फ़सलें हैं – गेहूँ, जौ, चना, मसूर, सरसों और कुसुम। दूसरे शब्दों में कहें तो MSP के दायरे में आने वाले सात-अनाज हैं – धान, गेहूँ, मक्का, जौ (Barley), बाजरा, ज्वार (Sorghum) और रागी। पाँच दलहन हैं – अरहर, चना, मूँग, मसूर और उड़द। सात-तिलहन हैं – सरसों, सोयाबीन, मूँगफली, सफ़ेद तिल, Sesame seed), काला तिल (Niger seed), कर्दी या कुसुम (Safflower seed) और सूरजमूखी। चार कमर्शियल फ़सलों गन्ना, कपास, नारियल (खोपरा) और जूट को भी MSP का फ़ायदा मिलता है।
MSP का मलतब क्या है?
MSP यानी कृषि उपज का ऐसा न्यूनतम समर्थन मूल्य जिसे सुनिश्चित करने की गारंटी सरकारों की ओर से किसानों को दी जाती है। इसके पीछे का तर्क ये है कि बाज़ार में फ़सलों की क़ीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव का किसानों पर नुकसानदायक असर नहीं पड़े और उन्हें न्यूनतम मूल्य की गारंटी मिले। क्योंकि दरअसल होता ये है कि जब किसानों की उपज के बाज़ार में पहुँचने का मौसम होता है तब बाज़ार पर हावी माँग और पूर्ति की शक्तियों की वजह से किसानों से उनकी उपज ऐसे औने-पौने दाम में नहीं खरीदी जा सके जिससे किसानों की घाटा हो।
अभी तक MSP के दायरे में कुल 23 फ़सलों को ही लाया जा सका है। बाक़ी सैकड़ों तरह की कृषि उपज अब भी बाज़ार की शक्तियों के ही भरोसे है। कहने को तो मौसम की मार, प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप और बाज़ार की शक्तियों का असर किसान की हरेक उपज पर पड़ता है। इनसे सुरक्षा के लिए तरह-तरह की फ़सल और पशुधन से जुड़ी बीमा योजनाएँ भी हैं, लेकिन अभी तक ऐसी सुरक्षा की पहुँच का अनुपात देश के कुल किसानों की तादाद के मुक़ाबले काफ़ी कम है। इसीलिए, भले ही MSP का सुख कम ही किसानों के नसीब में हो, लेकिन इससे उन्हें बहुत बड़ी मदद और राहत मिलती है।
कैसे होता है MSP का निर्धारण?
MSP देश की कृषि मूल्य नीति का एक अभिन्न हिस्सा है। इसका मक़सद किसानों के लिए उनकी फ़सल का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना है। इसकी एक अच्छाई ये भी है कि यदि किसानों को उनकी उपज का दाम MSP से ज़्यादा मिले तो उन्हें ज़्यादा दाम पर अपनी उपज को बेचने की पूरी आज़ादी होती है। लेकिन यदि ऐसा नहीं हो सरकार की ओर से किसानों को MSP की गारंटी मिलती है।
MSP का निर्धारण भारत सरकार के कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CAPC) की सिफ़ारिशों के आधार पर और राज्य सरकारों तथा केन्द्रीय मंत्रालयों के उपयुक्त विभागों से विचार-विमर्श करने के बाद किया जाता है। MSP तय करने के लिए CAPC की ओर से जिन कारकों पर ग़ौर किया जाता है उनमें किसान की उत्पादन लागत, घरेलू एवं अन्तरराष्ट्रीय क़ीमतें, माँग-आपूर्ति की स्थिति, विभिन्न फ़सलों के बीच मूल्य-समानता, कृषि एवं ग़ैर-कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तें जैसे अनेक पहलू शामिल होते हैं। सभी तरह के सरकारी सलाह-मशविरे के बाद केन्द्र सरकार की ओर से हरेक ख़रीफ़ और रबी सीज़न की बुवाई से पहले MSP की घोषणा की जाती है।
कौन हैं MSP के सबसे बड़े लाभार्थी?
पंजाब और हरियाणा, देश के ऐसे दो प्रमुख राज्य हैं जहाँ के किसानों की धान और गेहूँ की कमोबेश पूरी उपज को ही सरकारी एजेंसियाँ MSP पर ख़रीदती हैं। दरअसल, इन राज्यों में कृषि उपज मंडी का नेटवर्क अन्य राज्यों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा विकसित हुआ है। यही वो सबसे बड़ी वजह है जिसके कारण तीनों विवादित कृषि क़ानूनों का सबसे तीख़ा विरोध भी इन्हीं राज्यों या इनके समीपवर्ती पड़ोसी राज्यों जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों में नज़र आया।
उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक 2014-15 से 2019-20 के बीच पंजाब में औसतन 121 लाख टन सालाना धान की पैदावार हुई। इसका 86 फ़ीसदी हिस्सा MSP पर ख़रीदा गया। इसी दौरान हरियाणा में औसतन 44 लाख टन सालाना धान पैदा हुआ और इसका 78 प्रतिशत MSP पर ख़रीद गया। दूसरी ओर, देश के 15 राज्य ऐसे हैं, जहाँ 30 लाख टन से ज़्यादा धान की पैदावार हुई, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 6 राज्यों में ही 50 प्रतिशत से ज़्यादा उपज को MSP का लाभ मिल पाया। मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में तो बमुश्किल 30 प्रतिशत धान की ही ख़रीदारी MSP पर हो सकी।
गेहूँ के मामले में भी कमोबेश यही ट्रेंड है। पंजाब और हरियाणा में क़रीब 70 प्रतिशत गेहूँ को सरकार ने MSP पर ख़रीदा। उपरोक्त अवधि में ही पंजाब में सालाना औसतन 169 लाख टन गेहूँ पैदा हुआ और इसमें से 69 प्रतिशत सरकार ने MSP पर ख़रीदना पड़ा। जबकि हरियाणा में 66.5 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 37 प्रतिशत गेहूँ की ख़रीदारी MSP पर हुई। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और महाराष्ट्र में MSP पर 10 प्रतिशत गेहूँ की ख़रीदारी भी नहीं हुई।
MSP की आलोचना की वजह
अभी तक भले ही MSP का सुख सिर्फ़ 23 फ़सलों के नसीब में हो, लेकिन ज़मीनी हालात ये हैं कि MSP पर होने वाली सरकारी ख़रीद का लाभ मुख्य रूप से खाद्य सुरक्षा के लिए संचालित रियायती अनाज को बाँटने के मामले में ही होता है। सरकारी राशन की दुकान पर MSP की ख़रीदारी वाली अनाज ही मिलता है। आलम ये है कि देश में धान और गेहूँ की पैदावार माँग या ख़पत के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा है, जबकि दलहन और तिलहन के मामलों में हालात सालों-साल से चिन्ताजनक ही बने हुए हैं। हालाँकि, सरकारों की ओर से इनकी पैदावार को बढ़ाने के लिए अनेक जतन हो रहे हैं, इसके बावज़ूद तिलहन और दलहन के मामले में हमारी आयात पर निर्भरता बनी ही रहती है।
उधर, धान और गेहूँ की MSP पर ख़रीद हमारी भंडारण क्षमता से भी बहुत ज़्यादा हो जाती है। नतीज़ा ये है कि हर साल MSP पर ख़रीदा गया करोड़ों रुपये का अनाज सड़ जाता है और उसे फेंकना पड़ता है। इससे सरकारी राजस्व पर गहरी चोट लगती है और MSP की नीति कलंकित होती है। इन्हीं तर्कों को आधार बनाकर वो राज्य ढीला-ढाल रवैया अपनाते हैं जहाँ सरकारी कृषि उपज मंडी और MSP की संस्कृति पंजाब और हरियाणा जैसी विकसित नहीं हो सकी। नतीज़तन, इन राज्यों के किसान और उनकी खेती-बाड़ी की हालत आज़ादी के 75 साल बाद भी सोचनीय ही बनी हुई है। खेती की लागत जिस रफ़्तार से बढ़ती है, उसी अनुपात में किसानों को उनकी उपज का दाम नहीं मिलता। लिहाज़ा, वो लगातार ग़रीबी के दलदल में धँसते चले जाते हैं।
जहाँ MSP दमदार वहाँ बाज़ार में भी ऊँचे दाम
MSP पर ख़रीद का सीधा असर किसानों की आमदनी पर भी देखा गया है। जिन राज्यों में MSP पर ज़्यादा ख़रीद होती है, वहाँ के किसानों की औसत मासिक आमदनी ज़्यादा है। कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट एंड प्राइसेज के आँकड़ों के मुताबिक, जिन राज्यों में MSP पर ज़्यादा ख़रीद होती है, वहाँ फ़सलों का बाज़ार मूल्य भी उचित बना रहता है, जबकि जिन राज्यों में MSP पर सीमित ख़रीद ही हो पाती है, वहाँ आम तौर पर फ़सलों की क़ीमतें कम ही रहती हैं। मिसाल के तौर पर अप्रैल 2020 में जब गेहूँ का MSP 1975 रुपये प्रति क्विंटल था तब उत्तर प्रदेश में खुले बाज़ार में गेहूँ 1650 रुपये प्रति क्विंटल बिका, जबकि उसी वक़्त पंजाब में इसका दाम 2200 रुपये तक पहुँच गया था।
MSP का फ़ायदा पाने के लिए क्या करें?
उपरोक्त ब्यौरे के बाद ये सवाल उठना लाज़िमी है कि यदि पंजाब-हरियाणा में MSP की व्यवस्था इतनी फ़ायदेमन्द है तो यूपी-बिहार जैसे राज्यों में इतनी दशा इतनी बदतर क्यों है? और, MSP का भरपूर फ़ायदा पाने के इच्छुक राज्यों के किसानों को क्या करना चाहिए? इन सवालों के बारे में कृषि विशेषज्ञों की राय है कि पंजाब और हरियाणा के खेती में आगे होने की सबसे प्रमुख वजह है वहाँ के किसानों का सबसे ज़्यादा संगठित होना। बिहार, यूपी, एमपी, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में MSP पर कम ख़रीदारी की वजह वहाँ कृषि उपज मंडी की पर्याप्त बुनियादी सुविधाएँ या इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव है। हालाँकि, MSP पर ख़रीदारी के लिहाज़ से ओडिशा और छत्तीसगढ़ का रिकॉर्ड भी अच्छा है, लेकिन ये मुख्य रूप से धान तक ही सीमित है।
दूसरी ओर बिहार में कृषि मंडियों से सम्बन्धित APMC एक्ट को 2006 में ही ख़त्म कर दिया गया। कई राज्यों में MSP पर ख़रीदारी देर से शुरू की जाती है और कृषि उपज के ख़रीदने के लिए बहुत कम मंडी (सेंटर) ही चालू की जाती है। इन मंडियों की दूरी भी इतनी ज़्यादा होती है कि किसानों के लिए वहाँ पहुँच पाना मुश्किल और ख़र्चीला होता है। इसीलिए उन राज्यों के ज़्यादातर किसान आर्थिक दबाव झेलते हुए अपनी उपज को MSP से कम दामों पर बेचने को मज़बूर हो जाते हैं। सच्चाई तो ये है कि अभी देश के कुल कृषि उत्पाद में से बमुश्किल 6 प्रतिशत को ही MSP पर ख़रीदारी का सौभाग्य मिल पाता है। यानी, 94 प्रतिशत कृषि उपज की भागीदारी निभाने वाले करोड़ों किसानों को MSP का लाभ नहीं मिल पाता। इसके लिए MSP की गारंटी के साथ ही देश में क़रीब 35 हज़ार और मंडियाँ बनाने की ज़रूरत है।
अगर हमारे किसान साथी खेती-किसानी से जुड़ी कोई भी खबर या अपने अनुभव हमारे साथ शेयर करना चाहते हैं तो इस नंबर 9599273766 या [email protected] ईमेल आईडी पर हमें रिकॉर्ड करके या लिखकर भेज सकते हैं। हम आपकी आवाज़ बन आपकी बात किसान ऑफ़ इंडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाएंगे क्योंकि हमारा मानना है कि देश का किसान उन्नत तो देश उन्नत।