बिहार में कतरनी धान की शान निराली है। ये बिहार का प्रसिद्ध, पारम्परिक, मध्यम पतले और छोटे दाने वाला सुगन्धित धान है। इसका चावल पकने पर बहुत ख़ुशबूदार और स्वादिष्ट होता है। धान की इस सुगन्धित किस्म की माँग बहुत है लेकिन पैदावार लगातार घटती जा रही है। हालाँकि, सामान्य धान के मुकाबले कतरनी की खेती की लागत काफ़ी कम है लेकिन बाज़ार में इसका दोगुना दाम मिलता है। ज़ाहिर है कि कतरनी उत्पादक किसानों की कमाई अच्छी है। फिर भी इसकी खेती का रक़बा बहुत कम है।
किसान, कतरनी धान से इसलिए कन्नी काटते हैं कि उन्हें इसकी पैदावार क़रीब 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ही मिल पाती है। जबकि ICAR-राष्ट्रीय चावल अनुसन्धान संस्थान, कटक की ओर से प्रस्तावित धान की अनेक उन्नत किस्मों की औसत पैदावार करीब 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की है। बता दें कि देश की विभिन्न जलवायु के अनुकूल धान की कुल 946 किस्में विकसित की गयी हैं। इसमें से 105 किस्में कटक के संस्थान की ही हैं। ज़ाहिर है, यदि धान की अन्य किस्मों के मुकाबले परम्परागत कतरनी धान की पैदावार 10-20% कम भी है तो भी कतरनी से होने वाली कमाई कहीं ज़्यादा है। इसीलिए यदि वैज्ञानिक तरीके से कतरनी धान की खेती की जाए तो इसकी गुणवत्ता तथा उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
सिर्फ़ 11 हज़ार क्विंटल है कतरनी की पैदावार
मनमोहक ख़ुशबू और शानदार स्वाद की वजह कतरनी धान में बिहार के किसानों का वारा-न्यारा करने का भरपूर क्षमता है। कतरनी धान से बने चूड़ा की माँग तो देश-विदेश तक फैली है। लेकिन इसकी पैदावार और रक़बा इतना कम है कि कतरनी धान का चावल और चूड़ा आसानी से मिल नहीं पाता। ये सुगन्धित चावल मुख्य रूप से बिहार के भागलपुर, मुंगेर और बाँका ज़िले में बहुत छोटे इलाके में ही पैदा किया जाता है। बिहार कृषि विश्वविद्यालय के कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, कतरनी धान की खेती महज 920 एकड़ में हो रही है और इसका पैदावार सिर्फ़ 11 हज़ार क्विंटल है। इसीलिए माना जाता है कि कतरनी धान की किस्म विलुप्त होने के कगार पर है।
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2018 में कतरनी धान को मिला GI Tag
कतरनी धान की नस्ल को विलुप्त होने से बचाने, इसे विशिष्ट पहचान दिलाने तथा इसके उत्पादक किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए साल 2018 में बौद्धिक सम्पदा अधिकार, नयी दिल्ली की ओर इसे GI Tag (जीआई टैग) प्रदान किया जा चुका है। बता दें कि GI Tag के ज़रिये किसी खाद्य पदार्थ, प्राकृतिक और कृषि उत्पादों तथा हस्तशिल्प के उत्पादन क्षेत्र की गारंटी दी जाती है। भौगोलिक संकेत (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत जीआई टैग वाली पुख़्ता पहचान देने की शुरुआत 2013 में हुई। ये किसी ख़ास क्षेत्र की बौद्धिक सम्पदा का भी प्रतीक है। एक देश के जीआई टैग पर दूसरा देश दावा नहीं कर सकता। भारत के पास आज दुनिया में सबसे ज़्यादा जीआई टैग हैं। इसकी वजह से करीब 365 भारतीय उत्पादों की दुनिया में ख़ास पहचान है।
कतरनी धान में है दोगुनी कमाई
कतरनी धान भागलपुर ज़िले के जगदीशपुर, साहकुंड, सुल्तानगंज और मुंगेर ज़िले के तारापुर, असरगंज तथा बाँका ज़िले के अमरपुर, शम्भूगंज, रजौन और कटोरिया में उगाया जाता है। भागलपुर और बाँका के स्थानीय बाज़ार में कतरनी धान का मूल्य 3000 रुपये प्रति क्विंटल से ज़्यादा रहता है, जबकि अन्य किस्मों के धान का दाम 1400 से 1500 रुपये प्रति क्विंटल का होता है। इसका मतलब ये है कि साधारण धान के मुक़ाबले कतरनी का भाव दोगुना से ज़्यादा मिलता है।
लागत और मुनाफ़ा की तुलना करें तो साधारण धान की खेती की लागत प्रति हेक्टेयर 50 से 55 हज़ार रुपये है और मुनाफ़ा 25 से 35 हज़ार रुपये। जबकि कतरनी धान की खेती में लागत 35 से 40 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर है और आमदनी 50 से 60 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर है। इसीलिए जो किसान धान की खेती में अपनी कमाई को और बढ़ाना चाहते हैं उन्हें वैज्ञानिक विधि से कतरनी धान की खेती को अपनाना चाहिए। इससे वो सामान्य धान की तुलना में 25 से 30 हज़ार रुपये ज़्यादा कमा सकते हैं।
कैसे करें कतरनी धान की वैज्ञानिक खेती?
कतरनी धान की खेती में अच्छी पैदावार लेने के लिए दो-चार ख़ास बातों का ख़्याल रखने से बहुत फ़ायदा होता है। पहली बात तो ये कि कतरनी धान की बढ़िया पैदावार पाने के लिए कार्बनिक और जैविक खाद का प्रयोग करें। हरी खाद ढेंचा का प्रयोग कतरनी धान के खेत का उपजाऊपन बढ़ाने में बेहद फ़ायदेमन्द होता है। दूसरी बात, कतरनी धान के पौधों के अच्छे विकास और बेहतर उपज पाने के लिए खेत में लगातार पानी भरा रखने की ज़रूरत नहीं है। खेत को हल्का सूखने देने और समय-समय पर सिंचाई करने से ज़्यादा कल्ला निकलता है।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि कतरनी धान की कटाई सही वक़्त पर करनी चाहिए, क्योंकि ज़्यादा पक जाने पर कटाई करने से इस धान की बालियों से दाने झड़कर खेत में गिर जाते हैं। इससे पैदावार काफ़ी कम जाती है। 25 नवम्बर से 15 दिसम्बर के बीच कतरनी धान की कटाई का वक़्त सबसे अच्छा होता है। इस वक़्त तक धान की बालियाँ पक जाती हैं और पौधे का काफ़ी हिस्सा पीला हो जाता है। यदि धान का इस्तेमाल चूड़ा बनाने के लिए ही करना हो तो इसकी कटाई करीब एक हफ़्ता पहले उस वक़्त करनी चाहिए जबकि धान की बालियों का हरा रंग हल्का पड़ना लगे। आमतौर पर ये वक़्त नवम्बर के दूसरे या तीसरे सप्ताह का होता है।
कतरनी धान के लिए खेत की तैयारी
रोपाई से पहले ऊँची क्यारी विधि से तैयार नर्सरी में जैविक खाद का इस्तेमाल करके बीजाई करनी चाहिए। एक हेक्टेयर में कतरनी धान की रोपाई के लिए 15 किग्रा बीज और 1000 वर्ग मीटर क्षेत्र की क्यारी की आवश्यकता होती है। नर्सरी में बीजाई का घनत्व 15-20 ग्राम बीज प्रति वर्ग मीटर की दर से होना चाहिए। बीजाई से पहले कार्बेन्डाजिम 2-3 ग्राम प्रति किग्रा और ट्राइकोडर्मा 7.5 ग्राम प्रति किग्रा के साथ PSB 6 ग्राम और एजेटोबेक्टर 6 ग्राम प्रति किग्रा की दर से बीजोपचार करना चाहिए। उपचारित बीज को छायादार पक्के फर्श पर जूट के गीले बोरे से लगभग 72 घंटे तक ढककर रखने के बाद तब बीजाई करना चाहिए, जब वो अंकुरित होने लगें।
बीजाई के लिए 15 से 25 जुलाई का समय उपयुक्त होता है। नर्सरी में तैयार पौधों या बिचड़ा की रोपाई के लिए खेत में अच्छी तरह से कीचड़ बनाकर 20-22 दिनों की उम्र वाले पौधों का इस्तेमाल करना चाहिए। बिचड़ा की रोपाई के वक़्त पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सेमी और पौधे से पौधे की दूरी 15 सेमी होनी चाहिए। रोपाई में 1 या 2 बिचड़ा का इस्तेमाल होना चाहिए।
कतरनी धान के लिए खाद और सिंचाई
कतरनी धान उत्पादन में कार्बनिक और जैविक खाद का प्रयोग आवश्यक होता है। हरी खाद में ढेंचा का प्रयोग मिट्टी की उर्वराशक्ति को क़ायम रखने में बहुत फ़ायदेमन्द होता है। जून में ढेंचा के बीज का 25-30 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव विधि से बुआई करके लगभग 50 दिनों की फसल को जुताई करके मिट्टी में दबा दें। इसके 10 दिन बाद रोपाई करें। मिट्टी के पोषक तत्वों की समृद्धि के लिए प्रति हेक्टेयर 40 किग्रा नाइट्रोजन, 30 किग्रा फॉस्फोरस और 20 किग्रा पोटाश और 25 किग्रा ज़िंक सल्फेट का प्रयोग करना चाहिए।
रोपाई से पहले खेत में कीचड़ बनाते वक़्त नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा तथा फॉस्फोरस, पोटाश और ज़िंक की पूरी मात्रा को खेत में डालना चाहिए। नाइट्रोजन की बाक़ी बची दो तिहाई मात्रा में से आधे-आधे को कल्ला और गाभा आने के समय डालना चाहिए। कतरनी धान के अच्छे विकास और पैदावार के लिए खेत में लगातार पानी के भरे रहने की ज़रूरत नहीं होती। खेत को हल्का सूखने देने से कल्ला ज़्यादा निकलता है, इसीलिए सिंचाई को कुछ अन्तराल पर करना चाहिए।
कतरनी धान के खेत में खरपतवार नियंत्रण
रोपाई के दूसरे तथा छठे सप्ताह में निराई करनी चाहिए। मशीन से निराई करने के लिए कोनोवीडर का प्रयोग कर सकते हैं। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रति हेक्टेयर ब्यूटाक्लोर 50EC या प्रेटीलाक्लोर 50EC की 2.5 से 3 लीटर मात्रा का 700 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर रोपाई के 2 से 4 दिनों में छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के वक़्त खेत में 1-2 सेमी पानी अवश्य होना चाहिए। इसके अलावा, रोपाई के 3 से 4 सप्ताह बाद बिस्पाइरिबेक सोडियम 10% की 20-25 ग्राम मात्रा का 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करने से भी खरपतवार पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
कटाई और गहाई
धान की बालियां पक गयी हों तथा पौधे का काफी भाग पीला हो गया हो, तब कटाई करनी चाहिए। अत्यधिक पकने पर कटाई करने से बालियों में से दाने खेत में झड़ जाते हैं। इससे उत्पादन में काफी कमी होती है। कतरनी धान की कटाई 25 नवम्बर से 15 दिसम्बर के बीच कर लेनी चाहिए। धान की गहाई किसी सख्त चीज पर पटककर या शक्तिचालित यंत्र से करनी चाहिए।
रोग और कीट नियंत्रण
कतरनी धान में मुख्य रूप से पीला तनाछेदक और गंधीबग कीट का प्रकोप अधिक होता है। पीला तनाछेदक का नियंत्रण करने के लिए कार्टप हाइड्रोक्लोराइड 10जी 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर रोपनी के 3 सप्ताह के बाद खेत में डालना चाहिए। फिर 20 दिनों बाद क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई.सी. 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। बाली आने के समय में गंधीबग का प्रकोप अधिक होता है। इसका नियंत्रण करने के लिए कार्बोरिल/मेलाथियान 25 से 30 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से सुबह में छिड़काव करना चाहिए। कतरनी धान में ब्लॉस्ट, ब्राउन स्पॉट, बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट और फॉल्स स्मट का प्रकोप अधिक होता है। ब्लॉस्ट रोग से फसल को बचाने के लिए बीजोपचार करना चाहिए। इस रोग का लक्षण नजर आते ही ट्राइसाइकोलाजोल 75 डब्ल्यू. पी. (बीम/सिविक) 0.6 ग्राम प्रति लीटर या कार्बेन्डाजिम 150 डब्ल्यू.पी. (बाविस्टिन) ग्राम प्रति लीटर का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
कतरनी धान की कम पैदावार (25-30 क्विंटल/ हेक्टेयर) होने के कारण किसानों का ग़ैर-सुगन्धित उच्च उपज वाले धान की ओर रुझान बढ़ रहा है। कतरनी धान को विलुप्त होने से बचाने और इसके उत्पादकों के हितों को बढ़ावा देने के लिए कतरनी धान को वर्ष 2018 में बौद्धिक सम्पदा अधिकार, नयी दिल्ली की ओर GI Tag (जीआई टैग) दिया गया है। अगर इसके उन्नत प्रभेद को विकसित किया जाए, जो कम समय में परिपक्व हो जाए तथा कटाई के समय दाना झड़ने की समस्या दूर हो जाए तो किसानों के बीच कतरनी धान की खेती के प्रति रुचि बढ़ जाएगी तथा इससे होने वाले आर्थिक लाभ से किसानों की स्थिति में भी परिवर्तन होगा।
इसकी सुगन्ध विशेषताओं के कारण ही देश और विदेशों में इसकी बड़ी माँग है। ग़ैर-बासमती सुगन्धित चावल कतरनी के उत्पादक समूहों को बढ़ावा देकर निर्यात बढ़ाने की व्यापक गुंज़ाइश है।
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