एकीकृत कृषि में फसल चक्र अपनाना क्यों है ज़रूरी? डॉ. राजीव कुमार सिंह से जानिए कैसे अपनाएं IFS मॉडल

डॉ. राजीव कुमार सिंह बताते हैं कि प्रकृति की मार झेलते किसानों के लिए एकीकृत कृषि प्रणाली किसी वरदान से कम नहीं है। एक कृषि गतिविधि दूसरी गतिविधि को सहयोग करती है। इसमें कृषि से जुड़ी सारी गतिविधियां एक-दूसरे की पूरक होती हैं।

एकीकृत कृषि integrated farming

एकीकृत कृषि प्रणाली यानि IFS की ख़ासियत है कि सभी चीजें कहीं न कहीं एक दुसरे के काम आती हैं। इससे लागत का प्रतिशत कम हो जाता है और मुनाफ़ा बढ़ता है। मवेशियों के दुग्ध उत्पादन और मछली, मुर्गी और बत्तख के अंडों और मांस की बिक्री से किसान को अच्छी दैनिक आय भी होती है। इन सबके एक साथ पालन से प्रकृति चक्र भी सुचारू रूप से चलता है। किसान ऑफ़ इंडिया ने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के एग्रोनॉमी डीवीजन के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. राजीव कुमार सिंह से एकीकृत कृषि के बारे में जाना। 

एकीकृत कृषि integrated farming

प्रतिदिन मुनाफ़ा कमाने की बेहतर तकनीक एकीकृत कृषि प्रणाली

डॉ. राजीव कुमार सिंह बताते हैं कि प्रकृति की मार झेलते किसानों के लिए एकीकृत कृषि प्रणाली किसी वरदान से कम नहीं है। एक बार के लिए प्राकृतिक आपदा की मार फसल पर पड़ भी जाए तो दुग्ध उत्पादन, मशरूम और अंडे, मछली आदि को बेचकर वो अपनी दैनिक आय को जारी रख सकता है। प्रधान वैज्ञानिक डॉ. राजीव का कहना है कि जो किसान सिर्फ़ धान और गेंहू की फसल बोते हैं, उन्हें प्रति हेक्टेयर से  एक से डेढ़ लाख का मुनाफ़ा होता है। जबकि एकीकृत कृषि प्रणाली अपनाने से वही किसान रोज़ाना लगभग तीन से चार हज़ार रूपये प्रतिदिन कमा सकता है। यानी लगभग कम से कम 5 से 6 लाख रुपये साल में एकमुश्त कमा सकता है। साथ ही अपनी घरेलू दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए फल, सब्जी, औषधि, दूध और अनाज की जरूरत उसी खेत से रोज़ाना पूरी करके भी अपनी आमदनी बढ़ा सकता है।

IFS मॉडल में फसल चक्र पर रखें विशेष ध्यान

डॉ. राजीव ने एकीकृत कृषि मॉडल को समझाते हुए बताया कि अगर कोई किसान एक हेक्टेयर क्षेत्र में इस तकनीक से खेती करना चाहता है तो लगभग 0.7 हेक्टेयर में फसलों की खेती कर सकता है। इसके लिए फसल चक्र में बरसीम-बेबी कॉर्न, मक्का-सरसों-सूरजमुखी, मक्का-टमाटर-भिंडी, मल्टीकट ज्वार-आलु-प्याज, मक्का-गेहूँ-लोबिया, धान-गेहूँ-लोबिया, लौकी-गेंदा-मल्टीकट ज्वार, अरहर-गेहूँ-बेबी कॉर्न-बैगन-रैटुन बैगन-लोबिया फसलों का उत्पादन कर सकते हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत किसान की कम लागत लगती है क्योंकि ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादक सामग्री, जैसे गोबर की खाद, वर्मीकम्पोस्ट की पूर्ति फ़ार्म से ही हो जाती है। 

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डेयरी, मुर्गी और मछली पालन आय बढ़ाने का बेहतर ज़रिया

कृषि वैज्ञानिक डॉ. राजीव कुमार सिंह के अनुसार, बागवानी लगभग 0.05 हेक्टेयर क्षेत्र में करनी चाहिए। आम ,अमरुद, अनार, आंवला, नींबू, कटहल और केले जैसी बागवानी फसलों की उन्नत किस्में लगानी चाहिए। वहीं दुग्ध उत्पादन के लिए किसान अपने फ़ार्म पर कम से कम 3 गाय या भैंस पाल सकते हैं। साहीवाल, गिर, जर्सी, मुर्रा, भदावरी जैसी गाय एवं भैंस की अच्छी दुधारू नस्लें पाल सकते हैं। 

डॉ. राजीव बताते हैं कि मछली पालन के लिए 0.1 हेक्टेयर क्षेत्रफल की ज़रूरत होती है। शुरुआत में तालाब में कतला, मृगल एवं रोहू मछलियाँ पाल सकते हैं। मछली के आहार की ज़रूरत बत्तख, मुर्गी एवं बकरियों के मलमूत्र द्वारा पूरी हो जाती है। इससे उनको बाहरी आहार देने की ज़रूरत नहीं पड़ती और किसान की लागत भी कम होती है। मीठा जल में मछली पालन के लिए प्रजाति का चयन भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए आप कतला, सिल्वर कार्प, रोहू, ग्रास कार्प, नैन और कामन कार्प मछलियों को पाल सकते हैं। 

मुर्गी पालन में कैरी देवेन्द्र, फ्रीजल, असील, कड़कनाथ, ग्रामप्रिया, श्रीनिधि, वनराजा, धनराजा, कालाहांडी, कलिंग ब्राउन, पंजाब ब्राउन जैसी नस्लों की मुर्गियाँ पाल सकते हैं। इसमें कम लागत लगाकर अच्छा मुनाफ़ा भी कमाया जा सकता है। इसके साथ ही इनके मलमूत्र को मछलियों के आहार के रूप में प्रयोग कर सकते हैं।मुर्गी पालन अधिकांश तालाब के सतह के ऊपर करना चाहिए, जिससे उनका मलमूत्र सीधा तालाब में गिरे और मछली उसे आहार के रूप में ले सके।

अगर बत्तख पालन करते हैं तो खाकी कम्बल, भारतीय धावक, सफेद पेंकिन को पाल सकते हैं। उन्होंने बताया कि जब बत्तख पानी में रहती है, तब पानी में नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है। बत्तख के मलमूत्र से फाइटोप्लेन्टस एवं ज्यूप्लेन्टस का निर्माण होता है, जो कि मछलियों के भोजन के रूप में काम आता है।  यह मछली पालन की लागत को भी कम करता है।

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मधुमक्खी पालन और वर्मीकम्पोस्ट से लाभ

इसके अलावा, मधुमक्खी पालन से भी अच्छी कमाई कर सकते हैं। एक बॉक्स की कीमत लगभग 3500 होती है। इस तरह एक बार में एक बॉक्स से 2 किलो शहद प्राप्त होता है। लगभग 10-15 दिन में एक बार शहद निकलने लायक तैयार हो जाता है। इस तरह एक महीने में 4 किलो शहद प्राप्त कर सकते हैं। इसे बाज़ार में बेचकर अच्छा मुनाफ़ा कमा सकते हैं। कृषि-वानिकी प्रणाली के अंतर्गत सहजन की खेती भी कर सकते हैं। सहजन की साल में दो बार फलने वाली उन्नतशील प्रजातियों में पी.के.एम. 1, पी.के.एम. 2, कोयंबटूर 1 और कोयंबटूर 1 प्रमुख हैं। साल में एक पौधे से लगभग 40-50 किलो फल प्राप्त हो जाते हैं। 

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एकीकृत कृषि में फसल चक्र अपनाना क्यों है ज़रूरी? डॉ. राजीव कुमार सिंह से जानिए कैसे अपनाएं IFS मॉडल

आईएफएस तकनीक में वर्मीकम्पोस्ट और जैविक खाद, रासायनिक उर्वरकों के विकल्प के रूप में सस्ते और पर्यावरण की दृष्टि से उपयुक्त पाए गए हैं। पशुओं के मूत्र व गोबर, कूड़ा-कचरा, अनाज की भूसी, राख, फसलो एवं फलों के अवशेष इत्यादि से बेहतर जैविक खाद तैयार कर सकते हैं। वहीं फ़ार्म की चारदीवारी पर सेम की खेती करके अच्छी उपज ली जा सकती है। सेम भी एक उपयोगी दलहनी फसल है, जिसकी फली, बीज, जड़े, फूल और पत्तिया खाने के काम में आती हैं। 

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सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

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