हल्दी एक कन्द है। गुणों की खान है। पीली के अलावा काली हल्दी भी होती है। भोजन के तकरीबन हर व्यंजन का ज़रूरी मसाला है हल्दी। अपने औषधीय गुणों की वजह से दवाईयों और शृंगार सामग्रियों में हल्दी खूब इस्तेमाल होती है। धार्मिक रिवाज़ों में हल्दी का ख़ास स्थान है। औषधीय गुणों के लिहाज़ से काली हल्दी को उत्तम मानते हैं। ये नकदी फसल भी है क्योंकि हल्दी को बाज़ार में बेचना आसान है।
हल्दी के लिए जलवायु
हल्दी की खेती को ऐसी हल्की या बलुई दोमट मिट्टी में करना चाहिए जहाँ जल-भराव हर्ग़िज़ नहीं हो। इसे बरसात वाली गर्मी और नमी भरा मौसम पसन्द है। छायादार जगह भी इसे भाती है, लेकिन ज़्यादा सर्दी या तेज़ गर्मी इसे नहीं सोहाता। 20 डिग्री सेल्सियस वाली गर्मी हल्दी के बीजों के अंकुरण के अनुकूल होती है। इसीलिए इसे मई-जून में मॉनसून से पहले बोते हैं।
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हल्दी की उन्नत किस्में
हल्दी की लोकप्रिय किस्मों हैं – राजेन्द्र सोनिया, सोरमा, सगुना, RH-5 और RH 13/90. सभी किस्मों की फसल में हल्दी का कन्द परिपक्व होने में 7-8 महीने लगते हैं। बीज बनाने वाले पौधों के कुछेक हफ़्ते ज़्यादा खेतों में रखा जाता है। सभी किस्मों को उत्पादन प्रति हेक्टेयर क़रीब 400-600 क्विंटल के बीच मिलता है। लेकिन हरेक किस्म की हल्दी में पीलेपन के स्तर में फर्क़ ज़रूर है। ‘सोरमा’ ऐसी किस्म है जिसमें रोग भी कम लगते हैं और पीलापन भी सबसे बेहतर होता है। ‘सगुना’ की उपज सबसे ज़्यादा है लेकिन इसमें पीलापन कुछ कम होता है।
हल्दी के खेत की तैयारी
हल्दी की खेत को गहरी जुताई के बाद कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ें। फिर गोबर की खाद डालकर अच्छे से जुताई करके खेत को समतल करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें। अब हल्की सिंचाई करके और गहरा हल चलाकर एक-एक फीट की कतार वाली क्यारी बना लें।
हल्दी के बीज की रोपाई
रोपाई के लिए बारिश से पहले का वक़्त सही रहता है, क्योंकि इसके बाद होने वाले बारिश में सिंचाई की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन यदि बारिश अनुकूल नहीं हो तो खेत को सूखने से पहले हल्दी को पानी देना ज़रूरी है। बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 7 से 8 क्विंटल बीज की ज़रूरत पड़ती है। बुआई के बाद गुड़ाई-निराई करके खरपतवार को समय रहते निकाल देने से हल्दी के बीज जल्दी अंकुरित होते हैं और कन्द अच्छे से विकसित होता है।
कई बार हल्दी के बीजों को दवाई के घोल में डालकर और फिर सुखाकर इस्तेमाल करना फ़ायदेमन्द होता है। लेकिन इसके लिए हल्दी की खेती कर रहे अनुभवी किसानों या कृषि विज्ञान केन्द्र के वैज्ञानिकों से मशविरा ज़रूर करना चाहिए। खाद और दवाईयों का इस्तेमाल हमेशा मिट्टी की जाँच और विशेषज्ञों की सलाह लेकर ही करना चाहिए।
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हल्दी की फसल में लगने वाले रोग
हल्दी की फसल की विभिन्न अवस्था पर कई किस्म के रोग भी लग सकते हैं। इससे पैदावार प्रभावित होती है। ‘थ्रिप्स’ रोग के कीट हल्दी की पत्तियों का रस चूसकर उन्हें नष्ट करते हैं तो ‘लीफ ब्लाच’ रोग में हल्दी की पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे उभरकर बढ़ने लगते हैं। ‘पत्ती धब्बा’ रोग होने पर हल्दी की पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे बनने लगते हैं। इससे हल्दी की गाठों यानी कन्द विकास रुक जाता है और पैदावार घट जाती है। ‘तना छेदक’ शुरुआती दिनों में ही हल्दी के पौधे का तने को खोखला बना देता है। इससे पौधा जल्द ही पीला पड़कर सूख जाता है। ‘प्रकन्द विगलन’ भी हल्दी का एक रोग है। ये खेत में जल भराव की वजह से होता है। इसमें पौधे की जड़ें यानी कन्द सड़कर ख़राब हो जाता है।
हल्दी की खुदाई और सफाई
बुआई के 7-8 महीने बाद हल्दी की पत्तियाँ सूखने लगती हैं। ये संकेत है कि अब कन्द पूरी तरह से पक चुका है। यही खुदाई करने कन्द निकालने का वक़्त है। कन्द निकालने के बाद उसे पानी से धोकर मिट्टी को साफ़ किया जाता है। फिर थोड़ा सा सोडियम बाइकार्बोनेट डालकर कन्द को गर्म पानी में उबालते हैं। इससे हल्दी का रंग आकर्षक हो जाता है। अब धूप में अच्छी तरह से सूखाकर हल्दी के छिलके को उतारकर गाठों को तोड़ देते हैं और फिर उपज को बाज़ार में पहुँचाते हैं। हल्दी का बीज ख़ुद बनाने वाले किसान फसल के कुछ हिस्से की खुदाई तब करते हैं जब पत्तियाँ सूखकर झड़ जाती हैं।
हल्दी का दाम और लाभ
हल्दी की उपज का वजन सूखने के बाद क़रीब एक चौथाई रह जाता है। इसका बाज़ार भाव 6 हज़ार रुपये से लेकर 10 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल तक मिल जाता है। इस तरह लागत को घटाने के बाद हल्दी की खेती से प्रति हेक्टेयर करीब 5 लाख रुपये का मुनाफ़ा हो सकता है।