भारत में किसानों की आर्थिक बदहाली के लिए परम्परागत खेती ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है। ये स्थापित सत्य है। हमारे किसान धान-गेहूँ-आलू जैसे तमाम ऐसी फसलों का बम्पर उत्पादन करते हैं जो उसकी माँग से कहीं ज़्यादा होती है। इसीलिए साल दर साल उन्हें अपने उपज का सही भाव पाने के लिए तरसना पड़ता है। यही वजह से है कि फसल के ख़राब होकर कम उत्पादन देने से कितना उतना तबाह नहीं होता, जितना शानदार फसल होने पर होता है।
ज़बरदस्त उत्पादन की वजह से कई बार किसानों को इतना कम दाम मिलता है कि लागत तक नहीं निकलती। वो अपनी खड़ी फसल को खेत में ही छोड़ देने के लिए मज़बूर हो जाते हैं या फसल को ख़ुद ही बर्बाद कर देते हैं। इसीलिए किसानों को ऐसी फसलें चुननी चाहिए जिसका बाज़ार में अच्छा भाव मिलने की उम्मीद हो।
ये तभी सम्भव है जब वो आसानी से पैदा होने वाली फसलों का मोह त्यागकर सह-फसली जैसी तकनीक का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करें। इस नियम की अनेदखी करने वालों के लिए कोई भी सरकारी योजना या मदद काम नहीं आ सकती। अब सवाल ये है कि किसान अपनी फसलों का चुनाव कैसे करें? इसका सबसे आसान जवाब है कि उन्हें खेती की सह-फसली तकनीकी को अपनाना चाहिए।
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क्या है सह-फसली खेती?
इसमें किसानों को एक मुख्य फसल के साथ ही कई अन्य फसलें उगानी पड़ती है। इसे सूझबूझ से करने पर मिट्टी हमेशा उपजाऊ बनी रहती है और रासायनिक खाद या कीटनाशकों की ज़रूरत काफ़ी कम हो जाती है। क्योंकि अलग-अलग फसले जहाँ मिट्टी से अलग-अलग तरह का पोषण हासिल करते हैं, वहीं बदले में वो उसे अलग-अलग तत्वों से सम्पन्न भी करते रहते हैं।
एक फसल की ओर से पैदा हुई मिट्टी की यही सम्पन्नता अन्य फसलों के लिए टॉनिक यानी शक्तिवर्धक का काम करती है। क्योंकि जैसे हरेक उपज में अलग-अलग गुण होते हैं वैसे ही उसके अवशेषों से भी अलग-अलग किस्म की खाद भी बनती है।
अलबत्ता, इतना ज़रूर है कि सह-फसली खेती के लिए जिन फसलों का चयन किया जाए वो सही होनी चाहिए। वर्ना लेने के देने भी पड़ सकते हैं। सह-फसली खेती को किसानों के लिए परोक्ष बीमा की तरह भी देखा जा सकता है, क्योंकि इससे किसी एक फसल को हुए नुकसान की भरपाई दूसरी फसल से हो सकती है। इसके अलावा उर्वरक की एक मात्रा में दो फसलें लेने का मौका भी मिलता है। इससे दोनों फसलों की उत्पादन लागत कम हो जाती है।
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अनाज के साथ फल-सब्ज़ी और तिलहन भी उगाएँ
अनाज के सह-फसल के रूप में तिलहन और सब्ज़ी की खेती करनी चाहिए। जैसे गेहूँ के साथ सरसों या राई को 9:1 के रूप में पैदा करना चाहिए। गेहूँ की नौ पंक्तियों के बीच में राई या सरसों की भी एक लाइन होनी चाहिए। इसी तरह मक्का और पत्ता गोभी को भी एक ही खेत में 1:1 में लगाना चाहिए। गेहूँ और सरसों की फसल के साथ 3:1 के हिसाब से आलू उगाना अच्छा रहता है।
बाग़वानी को भी सह-फसली खेती में अपनाना चाहिए। बाग़वानी के खेती से उपज पाने में दो-तीन साल लग जाते हैं। इसके पौधों के बड़ा पेड़ बनने के दौरान बीच-बीच की ज़मीन में सब्ज़ी या कुछेक अनाज भी उगाये जा सकते हैं। पपीता जैसे कम समय लेने वाली फसल की खेती पर उपयोगी साबित होती है। इसी तरह, लता या लतर वाली सब्ज़ियों की क्यारियों में बैंगन और टमाटर जैसी फसलों की खेती भी करनी चाहिए।
व्यावसायिक या कॉमर्शियल सह-फसलें
बाज़ार में आसानी से बिक जाने वाले उन फसलों को कैश-कॉप या व्यावसायिक फसल कहते हैं, जो या तो अन्य कृषि आधारित उद्योगों के लिए कच्चे माल की भूमिका निभाते हैं या फिर जिन्हें ज़्यादा वक़्त तक सड़ने से नहीं बचाया जा सकता। इसीलिए औषधीय गुणों वाली फसलों के अलावा गन्ना, सब्ज़ियाँ, फल-फूल की खेती भी ज़रूर करना चाहिए, ताकि खेती से नियमित आमदनी की ज़रिया हमेशा बना रहे। गन्ने के साथ मटर और आलू या कम वक़्त में तैयार होने वाली सब्ज़ियों और मसाला की खेती भी अवश्य करनी चाहिए। जैसे आलू के साथ प्याज़ और लहसुन को उगा सकते हैं तो गन्ने के साथ धनिया को।
सह-फसली खेती के लिए दलहनी फसलों का कोई जवाब ही नहीं होता, क्योंकि दलहन से मिट्टी के सबसे बड़े पोषक तत्व नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती है। नाइट्रोजन और कार्बन मिट्टी का सबसे बड़ा उर्वरक है। इसीलिए बारिश के पानी के साथ घुलकर मिट्टी में पहुँचने वाला पानी और कार्बन से भरपूर जैविक खाद के इस्तेमाल से खेती का कायाकल्प हो जाता है। यही वजह है कि मिट्टी की सबसे बड़ी ख़्वाहिश दलहन की खेती होती है।
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सह-फसली खेती से जुड़ी सावधानियाँ
सह-फसली खेती में ज़ोर आज़माने से पहले किसानों को अपने इलाके के कृषि विज्ञान केन्द्र के विशेषज्ञ से अवश्य मशविरा लेना चाहिए। क्योंकि उनसे अच्छी और सही सलाह और कोई नहीं दे सकता। किसानों को चाहिए कि अपने कृषि विज्ञान केन्द्र को खेती-किसानी का डॉक्टर समझें और वहाँ से मिलने वाले मशविरे को मर्ज़ का इलाज़। फिर भी मोटे तौर पर कुछ सामान्य सावधानियाँ को अपनाना ज़रूरी है। जैसे – सह-फसलें एक ही प्रजाति की नहीं हो, इनके पकने का समय अलग-अलग हो और हरेक फसल का विकास ऐसे हो जिससे उसे सूरज की रोशनी की कमी नहीं पड़े।
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