19 नवम्बर 2021 को तीनों विवादित कृषि क़ानूनों को वापस लेने का एलान करने के वक़्त ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, “आज ही सरकार ने कृषि क्षेत्र से जुड़ा एक और अहम फ़ैसला लिया है। ‘ज़ीरो बजट खेती’ यानि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए, देश की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर क्रॉप पैटर्न को वैज्ञानिक तरीके से बदलने के लिए MSP को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए, ऐसे सभी विषयों पर, भविष्य को ध्यान में रखते हुए, निर्णय लेने के लिए, एक कमेटी का गठन किया जाएगा। इस कमेटी में केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होंगे, किसान होंगे, कृषि वैज्ञानिक होंगे, कृषि अर्थशास्त्री होंगे।”
दरअसल, प्रधानमंत्री ने जब से अपने राष्ट्र के नाम सन्देश में ‘ज़ीरो बजट खेती’ का ज़िक्र किया तब से बहुत सारे लोगों में इसके बारे में जानने-समझने का कौतूहल पैदा हो गया। दिलचस्प बात ये है कि ‘ज़ीरो बजट खेती’ (Zero Budget Farming) या ‘ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती’ (Zero Budget Natural Farming) में कुछ भी नया नहीं है। ये तो खेती का सबसे पुराना और परम्परागत तरीक़ा है जो युगों-युगों से दुनिया भर में मौजूद है। आसान शब्दों में कहें तो ‘ज़ीरो बजट खेती’ का सीधा मतलब खेती की बाहरी लागत को ख़त्म करके किसानों की आमदनी बढ़ाने की कोशिश करना है।
क्या है ‘ज़ीरो बजट खेती’ की ख़ासियत?
‘ज़ीरो बजट खेती’ करने वाले किसान अपनी किसी भी फ़सल के लिए कोई भी रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक इस्तेमाल नहीं करते। इस तकनीक की उपज का स्वाद शानदार होता है, मिट्टी की सेहत बेहतर होती है और पैदावार या कमाई में कमी नहीं आती। ये पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल है। इसमें किसान को बाज़ार से बीज, खाद और कीटनाशक वग़ैरह नहीं ख़रीदना पड़ता। यानी, खेती-बाड़ी पर होने वाला बाहरी ख़र्च शून्य रहता है। लिहाज़ा, किसान को खेती के लिए बजट बनाकर अतिरिक्त वित्तीय साधन नहीं जुटाने पड़ते। यही परम्परागत तकनीक ही जैविक खेती भी मानी जाती है, जिसकी बाज़ार में ख़ूब माँग है, जिसकीउपज को बढ़िया दाम मिलता है और जिसमें निर्यात की अपार सम्भावनाएँ हैं।
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कब बनी ‘ज़ीरो बजट खेती’ की नीति?
‘ज़ीरो बजट खेती’ के लेकर हाल ही में लोकसभा में पूछे गये एक सवाल के जबाब में केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने बताया कि मोदी सरकार ने साल 2020-21 से परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY) शुरू की। इसके तहत भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP) को एक उप-योजना के रूप में अपनाया गया। इसका उद्देश्य खेती-बाड़ी की उन पारम्परिक और देसी प्रथाओं के लिए प्रोत्साहित करना है जिसकी बदौलत सदियों से किसान ‘ज़ीरो बजट खेती’ के तौर-तरीकों को अपनाते रहे हैं।
उन्होंने बताया कि ‘ज़ीरो बजट खेती’ के परम्परागत तौर-तरीकों के तहत किसान सभी तरह के रासायनिक खाद वग़ैरह से परहेज़ करते हैं और अपनी मौजूदा उपज से ही अगली फ़सल के लिए बीज तथा खाद तैयार करते हैं। इसके अलावा बायोमास मल्चिंग, जैविक खाद, गोबर-मूत्र का कीटाणु नाशक के रूप में इस्तेमाल और बायोमास रीसाइक्लिंग जैसी तकनीकों को अपनाने पर ज़ोर देते हैं। BPKP को प्रोत्साहित करने के लिए केन्द्र सरकार की ओर से तीन साल के लिए 12,200 रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वित्तीय सहायता भी प्रदान की जाती है।
‘ज़ीरो बजट खेती’ का मौजूदा दौर कहाँ शुरू हुआ?
‘ज़ीरो बजट खेती’ को व्यापक स्तर पर अपनाने की शुरुआत 2015 में आन्ध्र प्रदेश में हुई। वहाँ कुछ गाँवों में किसान ने इस परम्परागत तकनीक की ओर वापस लौटकर अच्छा फ़ायदा पाया तो राज्य सरकार ने इसे और बढ़ावा देने की ठानी। अब राज्य के क़रीब पाँच लाख किसानों ‘ज़ीरो बजट खेती’ को अपना चुके हैं। इसे देखते हुए आन्ध्र प्रदेश सरकार ने साल 2024 तक राज्य के हरेक गाँव तक ‘ज़ीरो बजट खेती’ को पहुँचाने का लक्ष्य रखा है।
उत्तर भारत में परम्परागत ‘ज़ीरो बजट खेती’ की ओर वापस लौटने के लिए राजस्थान सरकार ने साल 2019-20 में राज्य के टोंक, सिरोही और बाँसवाड़ा ज़िलों में पायलट प्रोजेक्ट (प्रायोगिक परियोजना) के रूप में शुरू किया। राज्य की ये पहल केन्द्र सरकार की परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY) से साल भर पहले ‘ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती’ (ZBNF) के नाम से शुरू हुई। इसके तहत ग्राम पंचायत स्तर पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करके 7213 किसान को ट्रेनिंग दी गयी। इसके उत्साहजनक नतीज़े मिलते ही केन्द्र सरकार ने इसे भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP) की एक उप-योजना के रूप में अपना लिया। दूसरी ओर, राजस्थान ने भी नतीज़तन, साल 2020-21 के दौरान ‘ज़ीरो बजट खेती’ के दायरे को अजमेर, बाँसवाड़ा, बारां, बाड़मेर, भीलवाड़ा, चुरू, हनुमानगढ़, जैसलमेर, झालवाड़, नागौर, टोंक, सीकर, सिरोही और उदयपुर ज़िलों तक बढ़ा दिया।
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अभी आठ राज्य ही ‘ज़ीरो बजट खेती’ की ओर बढ़े
तोमर ने बताया कि अब तक देश के आठ राज्य परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY) यानी ‘ज़ीरो बजट खेती’ को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। ये राज्य हैं – आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, केरल, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओड़िशा, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु। अब तक 4.09 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर हो रही खेती को भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP) के दायरे में लाया जा चुका है। ‘ज़ीरो बजट खेती’ के लिए अब तक केन्द्रीय सहायता के रूप में क़रीब 49.81 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं।
उन्होंने बताया कि राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने भी राज्य के 35 ज़िलों की 98,670 हेक्टेयर ज़मीन पर ‘ज़ीरो बजट खेती’ को प्रोत्साहित करने के लिए 197 करोड़ रुपये का प्रस्ताव बनाया है। इस प्रायोगिक परियोजना से राज्य में 51,450 किसानों के लाभान्वित होने का अनुमान है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने भी ‘सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती’ (SPNF) की ‘ज़ीरो बजट खेती’ वाली परिकल्पना को ‘प्राकृतिक खेती, ख़ुशहाल किसान योजना’ का नाम देकर अपनाया है। सरकार का दावा है कि अक्टूबर-2021 तक हिमाचल प्रदेश में 1,46,438 किसानों को ‘ज़ीरो बजट खेती’ से जोड़ा जा चुका है।
‘ज़ीरो बजट खेती’ के लिए वैज्ञानिक प्रयास
कृषि मंत्री तोमर ने बताया कि भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (ICAR) से सम्बद्ध उत्तर प्रदेश के मोदीपुरम् स्थित इंस्टीच्यूट ऑफ़ फ़ॉर्मिंग सिस्टम को ये ज़िम्मेदारी दी गयी है कि वो खरीफ़ सीज़न 2020 में 16 राज्यों के 20 इलाकों में स्थानीय कृषि जलवायु के अनुकूल ज़ीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती के ज़रूरी तत्वों जैसे बीजामृत, जीवामृत, घनजीवमृत और इंटरक्रॉपिंग, मल्चिंग और व्हापासा यानी भाप आधारित नमी (Intercropping, Mulching and Whapasa) जैसी तकनीकों के मानक तय करें। इस प्रोजेक्ट से राज्यों के 11-कृषि विश्वविद्यालयों, ICAR के 8-संस्थाओं और 1-हेरिटेज़ यूनिवर्सिटी को भी जोड़ा है।
उन्होंने बताया कि इसी वैज्ञानिक अध्ययन और शोध के तहत पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में ‘मक्का + लोबिया (चारा)’ और ‘गेहूँ + चना’ जैसे फ़सलों की सह-खेती (इंटरक्रॉपिंग) का मूल्यांकन भी किया जाएगा। इसी तर्ज़ पर तमिलनाडु और कर्नाटक के लिए ‘कपास + हरा चना’ और ‘रबी ज्वार + चना’ की फसलों को भी परखा जाएगा। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लिए ‘सोयाबीन + मक्का’ और ‘गेहूँ + सरसों’, झारखंड और महाराष्ट्र के लिए ‘धान + ढैंचा’ और ‘मक्का + लोबिया (चारा)’, केरल और मेघालय के लिए ‘हल्दी + लोबिया या हरा चना’, गुजरात और राजस्थान के लिए ‘लोबिया + मक्का (चारा)’ और ‘सौंफ + गोभी’, तथा हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तराखंड के लिए ‘सोयाबीन + मक्का अनाज’ और ‘मटर (सब्जी) + हरा धनिया’ जैसी फ़सलों की पहचान की गयी है।
फ़िलहाल, ‘ज़ीरो बजट खेती’ को लेकर हुई शुरुआत बहुत छोटी है और इसे अभी बहुत लम्बा सफ़र तय करना है। केन्द्रीय कृषि मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2020-2021 में लिखे Land use statistics यानी भूमि उपयोग सांख्यिकी 2016-17 के अनुसार, भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.87 करोड़ हेक्टेयर है। इसमें से 20.02 करोड़ हेक्टेयर (60.9%) ज़मीन पर खेती-बाड़ी हो सकती है। लेकिन फसलों की पैदावार सिर्फ़ 13.94 करोड़ हेक्टेयर में ही होती है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 42.4 फ़ीसदी और देश की कुल खेती योग्य ज़मीन का 69.6 फ़ीसदी है। खेती-बाड़ी की कुल ज़मीन में से सिंचित क्षेत्र का इलाका 6.86 करोड़ हेक्टेयर है, जो देश की कुल खेती योग्य ज़मीन का 34.26 फ़ीसदी है और जितनी ज़मीन पर देश में खेती हो पाती है उसका 49.2 प्रतिशत है।
इसी रिपोर्ट से ज़ाहिर है कि बीते 75 वर्षों में हुए तमाम औद्योगिक विकास और आत्मनिर्भरता की कोशिशों के बावजूद भारत अब भी एक कृषि प्रधान देश ही है। जनगणना 2011 के मुताबिक़, हमारी कुल कामकाज़ी आबादी में से 54.6 फ़ीसदी लोगों की आजीविका खेती-बाड़ी या कृषि आधारित रोज़गार पर ही निर्भर है। 2019-20 की मौजूदा क़ीमतों के लिहाज़ से देखें तो आबादी के इतने बड़े हिस्से की राष्ट्रीय उत्पादकता में हिस्सेदारी सिर्फ़ 17.8 प्रतिशत है। अर्थव्यवस्था की भाषा में किसी भी देश की उत्पादकता को सकल मूल्य वर्धित (Gross Value Added – GVA) के पैमाने पर परखा जाता है। GVA का मतलब है कि आबादी का कितना बड़ा हिस्सा देश की कुल उत्पादकता में कितने रुपये की हिस्सेदारी रखता है? इससे अलग-अलग पेशों में लगे लोगों की उत्पादकता और उनकी माली-हालत का हिसाब लगाया जाता है।
कैसे शुरू हुई भारत में ‘ज़ीरो बजट खेती’?
‘ज़ीरो बजट खेती’ के आधुनिक तौर-तरीकों को पूर्व कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर (Subhash Palekar) ने प्रचारित किया। उन्होंने पारम्परिक भारतीय कृषि प्रथाओं पर गहन शोध किया और अनेक भाषाओं में क़िताबें प्रकाशित करके इसका प्चार किया। उनके सुझावों के आधार पर कर्नाटक राज्य रैथा संघ (KRRS) के किसानों ने ‘ज़ीरो बजट खेती’ के नुस्ख़ों को अपनाया और देखते ही देखते राज्य के क़रीब एक लाख किसान इस कारवाँ से जुड़ते चले गये।
‘ज़ीरो बजट खेती’ के चार स्तम्भ
- जीवामृत (Jivamrita) – इससे ज़मीन को पोषक तत्व मिलते हैं, मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं और फ़सल का कवक अन्य रोगाणुओं से बचाव होता है।
- बीजामृत (Bijamrita) – इसका इस्तेमाल बीज या पौध रोपण के वक़्त करते हैं। इससे नन्हें पौधों की जड़ों को कवक तथा मिट्टी से मिलने वाली बीमारियों से बचाया जाता है।
- आच्छादन (Mulching) – मिट्टी की नमी को संरक्षित रखने के लिए मल्चिंग का सहारा लिया जाता है। मल्चिंग तीन तरह की होती हैं – मिट्टी मल्च, स्ट्रॉ (भूसा) मल्च और लाइव मल्च। मिट्टी मल्च के तहत खेत के सतह पर और मिट्टी डाली जाती है तो स्ट्रॉ मल्च के रूप में धान या गेहूँ के भूसे का उपयोग करते हैं। लाइव मल्चिंग के तहत भरपूर धूप और हल्की धूप चाहने वाले पौधों को ऐसे मिलाजुलाकर लगाते हैं कि एक की छाया से दूसरे को राहत मिल सके। जैसे, कॉफ़ी के साथ लौंग का पेड़।
- व्हापासा (भाप से सिंचाई) – सुभाष पालेकर के शोध से साबित हुआ कि कई पौधों को बढ़ने के लिए इतना कम पानी चाहिए कि व्हापासा यानी भाप की मदद से भी बढ़ सकते हैं। व्हापासा, ऐसी दशा है जिसमें पौधे हवा और मिट्टी में मौजूद मामूली सी नमी से भी पोषण पा लेते हैं।
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