उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर झांसी से लगे दतिया की पहचान पीताम्बरा शक्तिपीठ के रूप में है। वैसे मध्य प्रदेश के इस शहर की नई पहचान तेज़ी से विकसित हो रहे शहर के रूप में भी बन रही है और यहां के स्थानीय लोग इसे मिनी स्मार्ट सिटी दतिया भी कहने लगे हैं। शहर में मेडिकल कॉलेज, सेंट्रल स्कूल, अस्पताल, मॉल्स, होटल्स, बड़ा सा रेलवे प्लेटफॉर्म, ओवरब्रिज और सड़कों के किनारे फुटपाथ को संवारकर वॉकिंग ट्रैक बनाया गया है, जहां सुबह और शाम लोगों को टहलते हुए देखा जा सकता है। किसान ऑफ इंडिया की टीम इसी सीमावर्ती ज़िले के ग्रामीण इलाकों में होने वाली खेती-किसानी की ग्राउंड रिपोर्ट यानी ज़मीनी जानकारी हासिल करने के लिए यहां पहुंची थी।
दतिया में पहला दिन – बजनी और अगोरा गांव के किसानों से मुलाकात
नवंबर का तीसरा हफ्ता यानी गुलाबी सर्दी का मौसम और होटल में चेक इन फिर खाना खाते-खाते दोपहर के 3 बज चुके थे, ऐसे में हमने ये तय किया कि कहीं बिल्कुल पास के किसी गांव में चला जाए। इसमें ज़्यादा मुश्किल नहीं आई क्योंकि शहरी आबादी को थोड़ा ही पीछे छोड़ने पर गांव शुरू हो जाते हैं और हम जिस रास्ते पर निकले थे, उसमें जो पहला गांव हमें मिला, वो था बजनी। एक छोटा सा गांव, जिसका रास्ता संकरा लेकिन पक्का है। गांव में थोड़ा अंदर जाने पर एक घर के सामने बने छोटे से सीमेंटेड चबूतरे पर संयोग से आठ-दस किसान बैठे मिल गए। हमने और अर्पित ने अपना परिचय दिया तो उन लोगों ने हमें भी साथ बैठा लिया और फिर हमारी बातचीत शुरू हो गई। दतिया शहर से बिल्कुल लगा हुआ ये गांव है, लेकिन यहां की ज़िंदगी शहर से बिल्कुल अलग है।
बजनी के ज्यादातर लोगों की आजीविका का साधन है खेती, लेकिन ज्यादातर किसानों के पास ज़मीन काफी कम है। छोटी जोत के अलावा जो सबसे बड़ी समस्या है वो है पानी की कमी। जलस्तर काफी नीचे होने से सिंचाई जल की मुश्किल है, ऐसे में यहां धान और गेहूं की तुलना में सरसों, आलू जैसी फसलों की खेती करना किसान ज़्यादा पसंद करते हैं। बजनी के किसानों ने बताया कि डीएपी की पूरे इलाके में और राज्य में भारी किल्लत है, जिससे इस साल बुवाई में देरी हो रही है। बाजनी के किसान परिवारों में से ज़्यादातर के पास एक-दो गाय-भैंस या बकरियां हैं, लेकिन पूरे गांव में शायद ही कोई ऐसा पशुपालक किसान है, जो डेयरी फार्म के बारे में सोच सके।
यहीं हमारी मुलाकात राजेश यादव से हुई, जो हाल तक सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ में कार्यरत थे। सेवानिवृत्त होने के बाद पहली बार पारिवारिक पारंपरिक खेती में हाथ आजमा रहे हैं। उन्होंने बताया कि सरसों की फसल लगाई है, लेकिन आवारा पशुओं की बहुत बड़ी समस्या है तो देखते हैं कि कितनी फसल बच पाती है। हमने उनसे अपने खेत पर चलने और फसल दिखाने का आग्रह किया। गांव की आबादी से बाहर निकलने पर सड़क के एक ओर की ज़मीन अगोरा में और दूसरी ओर बजनी में आती है। राजेश यादव बजनी के हैं, लेकिन उनकी ज़मीन अगोरा में आती है। खेत पर जाने के रास्तों को उन्होंने तार और कांटों से घेर रखा है ताकि आवारा पशुओं को घुसने का रास्ता नहीं मिल सके। राजेश यादव ने कांटों को एक किनारे करके रास्ता खोला और हमने उनके खेत पर जाकर सरसों की फसल को देखा। फसल अच्छी निकली है, डीएपी नहीं मिल पाने की भरपाई गोबर की खाद से उन्होंने की है और योजना है खेत की मेंड़ पर एक छोटी सी झोपड़ी या मचान बनाने की ताकि वहां रहकर आवारा पशुओं से फसल की सुरक्षा कर सकें।
अब तक शाम ढ़लने लगी थी और हमारी योजना थी कि कम से कम एक और गांव तो जाना ही चाहिए, ऐसे में हमने राजेश यादव से आग्रह किया। उनके साथ ही हम बगल के अगोरा गांव पहुंचे। बजनी और अगोरा में बमुश्किल दो किलोमीटर की दूरी है, लेकिन दोनों गांवों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में अंतर साफ नज़र आया। सड़क भी कुछ ज़्यादा चौड़ी है। यहां हमें सड़क से लगा एक बड़ा भूभाग बिल्कुल खाली दिखा, लोगों से बातचीत में ये पता चला कि ये वो ज़मीन है, जहां साल में सिर्फ एक फसल हो पाती है क्योंकि बाकी समय यहां पानी भरा होता है।
अभावों में जीना और मुश्किलों में भी हंसना किस तरह किसानों का स्वभाव बन जाता है, ये हमें इस जगह देखने को मिला। पानी में डूबी रहने वाली अपनी ज़मीन से साल में सिर्फ एक फसल ले पाने वाले किसान इसी बात से संतुष्ट हैं कि उसमें उनकी लागत ज़्यादा नहीं आती। बीज और बुवाई का खर्च भर आता है, खाद और सिंचाई करनी नहीं होती और इस तरह फसल बहुत अच्छी नहीं भी हो तो भी नुकसान नहीं होता।
जिस जगह पर हम सड़क से नीचे उतरकर इस ज़मीन तक पहुंचे थे, वहां एक छोटा सा घर था, जिसके सामने बंधी थी एक छोटी सी बछिया। बछिया के पास ही बैठी थीं दो महिलाएं, जिनसे हमने थोड़ी देर बात की, इसी बीच राजेश यादव ने वापस लौटने का आग्रह किया। उन्होंने पुराने दिनों को याद करते हुए कहा कि पहले हमारा दतिया एक छोटे से किले में बसता था, लेकिन अब तो ये महानगर जैसा फैलता जा रहा है। रास्ते में उन्होंने बताया कि पहले तो इस इलाके में आना-जाना भी मुश्किल था, अपराधियों का आतंक था, लेकिन अब दतिया बदल गया है, बिना रोक-टोक, किसी डर के कोई भी कभी भी आ जा सकता है। हमने इस पर उनसे कहा कि फिलहाल तो आज अब कहीं और नहीं जाना है क्योंकि वापस लौटकर मां पीताम्बरा की पीठ भी जाना है और शाम ढ़ल चुकी है। इस बीच ड्राइवर ने बताया कि शनिवार का दिन है और इस दिन माई के मंदिर में भीड़ ज़्यादा होती है तो फटाफट निकलना होगा। इस तरह राजेश यादव को बजनी में उनके गांव में छोड़ते हुए हमने दतिया का अपना पहला दिन पूरा किया।
दतिया में दूसरा दिन – पचोखरा, गोरा घाट, बडोनकला, हिडोरा
रविवार का दिन शहरी क्षेत्र में अपेक्षाकृत सुस्ती भरा होता है, छुट्टी होती है, लेकिन गांवों के लिए बाकी दिनों की तरह ही होता है। खेती-किसानी और मवेशी पालन में छुट्टी की गुंजाइश नहीं होती। ऐसे में सुबह-सुबह जब हमारी टीम पचोखरा जा रही थी तो वहां किसानों से मुलाकात में कोई दिक्कत नहीं हुई।
यहां के खेतों में सरसों, आलू, गेहूं की फसल नहीं दिख रही थी, बल्कि गन्ना ही गन्ना नज़र आ रहा था। पचोखरा के किसानों ने बताया कि आसपास के गांवों में गन्ना ही मुख्य फसल है और अब तो इस पर इतनी निर्भरता बन चुकी है कि डबरा चीनी मिल बंद होने के बावजूद वैकल्पिक खेती की ओर किसान जाना ही नहीं चाहते।
दूसरे दिन किसान ऑफ इंडिया की टीम पचोखरा, गोराघाट, बडोनकला और हिडोरा जहां भी गई, वहां के किसानों से बातचीत में मुख्य रूप से जो मुश्किलें सामने आईं, वो थी गन्ना की उचित कीमत नहीं मिल पाना। चीनी मिल दूर होने के कारण यहां के किसानों के पास गन्ना की फसल के लिए मुख्य रूप से दो विकल्प हैं। पहला ये कि गांव में ही गुड़ उत्पादन करें या उत्पादक को दें और दूसरा बाहर से आकर क्रशर लगाने वाले व्यापारियों के हाथों बेच दें। स्थानीय स्तर पर गुड़ के लिए सीमित मात्रा में ही गन्ना खरीद होती है, इसलिए ज़्यादातर किसान क्रशर व्यापारियों को उनकी मनमानी कीमत में बेच देते हैं। किसानों ने बताया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसा तो कुछ है नहीं, भाव ऊपर-नीचे होता रहता है और फिलहाल 200 रुपये से लेकर 230 रुपये क्विंटल तक ही उन्हें मिल पाता है।
हमने किसानों से ये जानना चाहा कि जब कीमत नहीं मिल पा रही है तो वो आख़िर गन्ना की ही फसल क्यों लगाते हैं, तो इसका जवाब था कि इसमें एक बार लागत आती है और तीन साल तक सिर्फ फसल आती है। दूसरी वजह ये कि मौसम की मार से गन्ना दूसरी फसलों की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित रहती है।
लेकिन, गन्ना में पनपी रेड रॉट यानी लाल होकर रस सूख जाने की बीमारी ने गन्ना किसानों की चिंता पिछले कुछ साल से बढ़ा रखी है। किसानों ने किसान ऑफ इंडिया से इस बीमारी से अपनी फसल को बचाने के लिए क्या करें, इस बारे में जानकारी मांगी और हमने एक्सपर्ट्स से जानकारी लेकर उन तक पहुंचा भी दी।
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यहां से जब हम गोराघाट और फिर बडोनकलां पहुंचे तो वहां अलग तरह की समस्या सामने आई। एक युवा किसान ने हमें बताया कि खेत में गन्ना कट कर रखा है, उसकी ढुलाई नहीं हो पा रही है क्योंकि बारिश हो गई थी और ट्रैक्टर के पहुंच पाने का रास्ता ही नहीं है। वहीं पर उस युवा के बुजुर्ग दादाजी भी बैठे थे, तो हमने उत्सुकतावश उनसे पूछा कि आप जब अपने पोते की उम्र के रहे होंगे और जब ट्रैक्टर वगैरह से खेती नहीं होती थी तो कैसे फसल लाते होंगे किसान? उनका जवाब था-हमारे समय की तरह के किसान अब कहां होते हैं? उस ज़माने में तो पत्थर को तोड़कर भी खेत बना देते थे हम, फसल तो सिर पर ही ढ़ो लेते थे। ये सुनकर अहसास होता है कि देश के अन्नदाता कितनी लंबी संघर्ष यात्रा तय करके मौजूदा दौर तक पहुंचे हैं।
गांव-गांव घूमते-घूमते कब दिन निकल गया, इसका अंदाज़ा हमें तब हुआ जब हमारे सहयोगी अर्पित दुबे के साथ-साथ ड्राइवर ने बड़ी तेज़ भूख लगने की बात कही और फिर ये तय हुआ कि ज़ल्दी किसी ढ़ाबे पर पहुंचा जाए।
आपके साथ हमारा दतिया का सफ़र जारी रहेगा जहाँ मैं आपको ज़िले के अन्य गांव के किसानों से मुलाकात कराऊँगा। तब तक के लिए पढ़ते रहिए www.kisanofindia.com
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