एक ओर जब कोरोना महामारी से उपजे संकट के बीच कामकाज ठप हो रहे थे और पुरूष अपनी नौकरी गंवाकर घर लौट रहे थे, उस दौरान पश्चिम बंगाल में महिलाओं ने परिवार के भरण पोषण के लिए बतख पालन शुरू किया और आज परिवार के आर्थिक हालात को संभालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
कोलकाता से लगभग 700 किलोमीटर की दूर स्थित कूच बिहार जिले के सिलखुरी बास गांव में रहने वाली ब्यूटी बीबी (31) के पति बिलाल मियां गांव में ही थोड़ी सी जमीन पर खेती करते हैं, लेकिन महामारी आने के बाद उनकी आय परिवार के भरण पोषण के लिए पर्याप्त नहीं थी। इस दौरान ब्यूटी बीबी अपने मोबाइल पर यूट्यूब पर पॉल्ट्री फार्मिंग से जुड़े वीडियो घंटों तक देखा करती थीं।
इसी दौरान उन्हें बतख पालन करने का विचार आया। आज वे सोशल मीडिया की शुक्रगुजार हैं कि उसकी वजह से वह अपने परिवार को संकट से बाहर निकालने में सक्षम हो पाईं।
आज दंपति खाकी कैंपबेल नस्ल की बत्तखों को पालकर प्रतिमाह 3,000 रुपये कमा रहे हैं और आने वाले समय में उन्हें कमाई बढऩे की उम्मीद है। ब्यूटी बीबी के मुताबिक उन्होंने ग्रामीण आजीविका के लिए काम करने वाले एक स्थानीय गैर सरकारी संगठन सतमील सतीश क्लब ओ पथगर से खाकी कैंपबेल नस्ल की 25 वयस्क बत्तख और लगभग 200 डकलिंग्स (बत्तख के बच्चे) खरीद लिए। उन्हें एक डकलिंग 60 रुपये और एक वयस्क बत्तख 400 रुपये में मिली। वयस्क बत्तख एक माह में ही अंडे देनी लगी।
अन्य नस्ल की बत्तख प्रतिवर्ष 180-200 अंडे देती है, जबकि खाकी कैंपबेल नस्ल की बत्तख 250- 280 अंडे देती है।स्थानीय स्तर पर बत्तख का मांस भी काफी मांग में है। ब्यूटी बीबी ने बताया कि जब ये बत्तख अंडे देना बंद कर देती है तो उन्हें मांस के लिए 350 से 400 रुपये प्रति पक्षी मिल सकते हैं।
ब्यूटी बीबी बत्तख पालन करने वाली अकेली महिला नहीं हैं। कूच बिहार में 2,000 से अधिक ग्रामीण महिलाएं बत्तख पालन कर परिवार का सहारा बन रही हैं। इनमें से ज्यादातर ने अपने झोपडिय़ों के बाहर, आंगन या खुले स्थानों में जाल की मदद से सुरक्षित बाड़े बनाए हैं जहाँ बत्तखों को पाला जाता है। महिलाओं के अनुसार, खाकी कैंपबेल बत्तख पालने के लिए प्रारंभिक निवेश की आवश्यकता होती है, लेकिन इसके परिणाम जल्दी मिलना शुरू हो जाते हैं।
भोगदाबरी केशरीबारी गांव की बुलबली रॉय (35) 2019 की शुरुआत से बत्तख के कारोबार में हैं। उनके मुताबिक बत्तख पालन से उन्हें अपने किसान पति की आय को बढ़ाने में काफी मदद मिली। उनके दो बच्चे हैं। आज वे बेहतर तरीके से अपना खर्च संभाल रही हैं।
इसी तरह कूचबिहार के बोरोइलाजन गांव में रहने वाली स्कूली छात्रा झुनुका खातून (17) और उसकी बहन रेणुका (15) ने लॉकडाउन के दौरान परिवार की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिए बत्तख पालने का फैसला किया। उनके पिता साहा आलम मियां भूटान में राजमिस्त्री का काम करते थे, लेकिन कोरोना महामारी फैलने के बाद काम न मिलने पर वे गांव लौट आए।
दोनों बहनों ने पिता से बत्तख पालने की बात की। पहले तो वे नहीं माने फिर उन्होंने बेटियों की बात मानकर 200 डकलिंग और 15 वयस्क बत्तख खरीद ली। इस पर 46,000 रुपये खर्च हुए। उन्हें उम्मीद है कि छह महीने में उनकी आमदनी शुरू हो जाएगी। साहा को इतनी कम उम्र में अपनी बेटियों की इस पहल पर काफी गर्व है। उनके मुताबिक उनका यह काम कदम अन्य लोगों की आर्थिक स्थिति भी मजबूत करेगा।
तीन वर्षों तक मिलते हैं अंडे
खाकी कैंपबेल नस्ल की बत्तख भारी मांग में है, क्योंकि प्रत्येक पक्षी छह महीने के भीतर अंडे देना शुरू कर देता है और अगले तीन वर्षों तक अंडे देता है।
पशु चिकित्सकों का काम बढ़ा
कोलकाता से लगभग 140 किलोमीटर दूर सतमील में स्थित पशुचिकित्सक पूर्णेश्वर बर्मन के मुताबिक कूच बिहार में ग्रामीण सतमील में कई महिलाओं ने इन बत्तखों को एक सार्थक उद्यम के रूप में अपना लिया है। एक साल पहले उन्हें बत्तखों के उपचार और टीकाकरण के लिए प्रतिदिन लगभग 30-40 कॉल आती थी, लेकिन अब करीब 100 लोग उनसे संपर्क करते हैं।
इलाज और टीकाकरण से आमदनी में वृद्धि
बत्तख पालन में रुचि बढऩे से पशुधन के रखरखाव के लिए राज्य सरकार द्वारा नियुक्त कई अन्य महिलाओं की आय भी बढ़ गई है। कूचबिहार में पशु संसाधन विकास विभाग से जुड़ी प्राणि मित्र ज्योतिका आधिकारी बर्मन के मुताबिक वे घरों में जाकर बत्तखों के इलाज और टीकाकरण से हम कभी-कभी 9 से 10 हजार रुपये प्रति महीना तक कमा लेते हैं ये महिलाएं प्रत्येक पक्षी को टीका लगाने के लिए 5 से 7 रुपये तक लेती हैं।
3000 किमी दूर से लाए बत्तख
सतमील सतीश क्लब ने खाकी कैंपबेल नस्ल के बत्तख पालन को स्थानीय स्तर पर बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्लब के सचिव अमल रॉय के मुताबिक कूच बिहार में बत्तख के अंडे और मांस की मांग और आपूर्ति में एक बड़ा अंतर था। हमने एक शोध किया और पाया कि खाकी कैंपबेल नस्ल दूसरों की तुलना में अधिक अंडे देती है और मांस के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
वे 3,000 किलोमीटर दूर तमिलनाडु के सलेम जिले से डकलिंग खरीदकर लाए, लेकिन इतनी दूर से आने के दौरान बत्तख के काफी बच्चे मर गए और काफी नुकसान हुआ। इसके बाद हमने इन्क्यूबेटर लगाए और गांव की महिलाओं को बत्तख के बच्चे बेचने और खरीदने भी लगे।
अमल ने बताया कि उनका संगठन इन महिलाओं को 12 रुपये प्रति अंडा देता है जो बाजार की तुलना में एक रुपये ज्यादा है। संगठन स्वयं सहायता समूहों और इच्छुक महिलाओं को प्रतिमाह 5,000 डकलिंग्स बेचता है। हालांकि मांग को पूरा करने के लिए आपूर्ति अब भी पर्याप्त नहीं है।