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बुंदेलखंड का इलाक हमेशा सूखे और प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित रहता है। यहां ज़मीन तो है, मगर खेती योग्य ज़मीन बहुत कम है। दरअसल, यहां की ज़मीन सूखी है और सिंचाई के लिए पर्याप्त साधन नहीं है। वहीं मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन भी कम है जिससे ज़मीन बंजर होती जा रही है। इस क्षेत्र में रोज़गार के साधन सीमित होते जा रहे हैं, जिससे पलायन की संभावना बढ़ रही है। ऐसे में बांदा कृषि विश्वविद्यालय उम्मीद की एक किरण बनकर आया है।
बांदा कृषि विश्वविद्यालय न सिर्फ़ किसानों को खेती की नई-नई तकनीकों की जानकारी दे रहा है, बल्कि विश्वविद्यालय में ऐसे कोर्स उपलब्ध करा रहा है जिससे युवा पढ़ाई के बाद खुद अपन रोज़गार शुरू कर सके। विश्वविद्यालय किस तरह से किसानों और छात्रों की मदद कर रहा है जानने के लिए किसान ऑफ़ इंडिया के संवाददाता सर्वेश बुंदेली ने बात की विश्वविद्यालय के कुलपति नरेंद्र प्रताप सिंह से।
कब हुई बांदा कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना?
कुलपति नरेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि बांदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय 2 मार्च 2010 में बना। हालांकि, पहले 2-3 साल तो आधारभूत सरंचना तैयार करने और सुविधाएं जुटाने में लग गए। मगर पिछले 10 साल से विश्वविद्यालय लगातार काम कर रहा है। यहां 4 महाविद्यालय है। कृषि, उद्यान, वानिकी और सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय। जहां ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स के साथ ही छात्रों को पी.एच.डी. की सुविधा भी उपलब्ध है।
किस तरह की आधुनिक सुविधाएं?
बांदा कृषि विश्वविद्यालय में मौजूद सुविधाओं के बारे में कुलपति नरेंद्र प्रताप सिंह बताते हैं कि यहां छात्रों को सभी तरह की ज़रूरी आधुनिक सुविधाएं दी जाती हैं जिससे वो नई चीज़ें इन्वेंट कर सकें। चाहे वो प्रयोगशाला हो या शोध प्रक्षेत्र। शैक्षणिक फ़ार्म हो या शोध फ़ार्म या और भी एडवांस रिसर्च के लिए जो कमर्शियल फार्म ज़रूरी होता है, वो सब यूनिवर्सिटी में है। ये यूनिवर्सिटी रेजिडेंशियल है यानि छात्र कॉलेज परिसर में ही रहते हैं।
बांदा कृषि विश्वविद्यालय का किसान मेला
बांदा कृषि विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित किए जाने वाले कृषि मेले के बारे में वो बताते हैं कि पिछले 3 साल से यूनिवर्सिटी में किसान मेला लग रहा है। जहां न सिर्फ़ इस इलाके के, बल्कि दूर-दराज के हज़ारों की संख्या में किसान आते हैं। यहां आने पर उन्हें यूनिवर्सिटी में जो नई रिसर्च हो रही है उसके बारे में जानकारी दी जाती है। किसानों की वैज्ञानिकों के साथ परिचर्चा होती है जिसमें किसानों को खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी दी जाती है।
बांदा कृषि विश्वविद्यालय में बच्चों के भविष्य पर किस तरह काम?
कुलपति महोदय का कहना है कि उनके विश्वविद्यालय का मकसद है छात्रों को आत्मनिर्भर बनाना। आगे वो कहते हैं कि बांदा कृषि विश्वविद्यालय की कोशिश है कि यहां पढ़ाई के बाद बच्चे खुद स्वरोज़गार स्थापित करें। उन्हें स्टार्टअप बनाने, एफपीओ बनाने के लिए प्रेरित किया जाता है। जो छात्र नई सोच के साथ कुछ करना चाहते हैं उनकी मदद की जाती है। यहां छात्रों में स्किल डेवलप की जाती है, बाहर से कंपनियां आती है प्लेसमेंट के लिए। यूनिवर्सिटी का यही उद्देश्य है कि जो बच्चे यहां से निकलें उन्हें अच्छा प्लेसमेंट मिले या वो अपना रोज़गार शुरू कर सकें।
जैव विविधता का केंद्र है बुंदेलखंड
नरेंद्र प्रताप सिंह बताते हैं कि बुंदेलखंड में जहां तक पानी का सवाल है, तो यहां नदियां तो हैं, मगर नदियों में कभी-कभी तो पूरे साल पानी ही नहीं रहता है। दरअसल, यहां कि नदियां बहुत चंचल है, ऐसे में जो पानी बरसता है उसे ये रोक नहीं पाती हैं। सरकार ने कई योजनाएं बनाई हैं जिसमें तालाब, पोखरे खोदकर बारिश के पानी को संचय करने की कोशिश की जा रही है।आगे वो कहते हैं-
बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के 7-7 ज़िले आते हैं। ये शुष्क क्षेत्र है। यहां जैव विविधता बहुत अधिक है और यहां कि खेती दूसरी जगहों से बिल्कुल अलग है। इस इलाके में पहाड़ भी है, पठार भी हैं, मैदान भी हैं, निचली ज़मीन है और जंगल भी बहुत है। यहां खेती की संभावनाएं तो हैं, मगर ज़मीन शुष्क है। इसलिए हमारे यहां कैंपस में ड्राई लैंड एग्रीकल्चर पर एक पूरा सेंटर है।
जल-मिट्टी संचयन पर काम
ड्राई लैंड एग्रीकल्चर का मुख्य काम है जल और मिट्टी का संचयन कैसे किया जाए। जब बारिश होती है तो ऊपर की उपजाई मिट्टी भी बह जाती है, जिससे मिट्टी का पीएच संतुलन भी बिगड़ जाता है। अधिकतर जगहों पर ज़मीन के नीचे का पानी खारा है, ऐसे में कोशिश हो रही है कि इसे इस्तेमाल योग्य बनाया जाए।
यहां कि बड़ी समस्या है कि अधिकतर इलाके एक फसली है यानी सिर्फ़ रबी की फसल होती है। बाकी समय खेत खाली रहते हैं। दरअसल, मिट्टी में कार्बन की कमी है, जिससे मिट्टी उपजाऊ नहीं है, सिंचाई के संसाधनों की भी कमी है। ऐसे में कोशिश हो रही है कि कैसे संचित पानी का कृषि में इस्तेमाल किया जाए और एक से अधिक फसल उगाई जाए, ताकि युवाओं की कृषि में रुचि बढ़े और उनके पलायन को रोका जा सके।
सिंचाई के लिए सू्क्ष्म सिंचाई प्रणाली, जिसमें स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई तकनीक आती है, इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। फसलों में स्प्रिंकलर और उद्यान में ड्रिप सिंचाई तकनीक का इस्तेमाल करना फायदेमंद है।
जैव संपदा के संरक्षण के लिए कर रहा काम
नरेंद्र प्रताप सिंह बुंदेलखंड के बारे में बताते हैं कि यहां हर क्षेत्र में जैव विवधता है। चाहे पशु हो, वन्य जीव या फल और सब्ज़ियां हों। बहुत सी चीज़ें ऐसी है जो सिर्फ़ यहीं होती हैं।
हमारी कोशिश है कि इनका संरक्षण और संवर्धन किया जाए। इसके लिए संरक्षण और संवर्धन केंद्र खोला गया है। केनकथा गाय की नस्ल उत्तर प्रदेश में पायी जानी वाली 4 स्वदेशी नस्लों में से एक है। समय के साथ इसकी नस्ल में बदलाव आया है जिससे इनकी उपयोगिता कम हो गई है। हमारी कोशिश है कि इन गायों की पहचान कर उनकी नस्ल को उन्नत बनाया जाए, ताकि इनकी उपयोगिता बढ़े। इसी तरह से जालोरी भेड़ को सरंक्षित करने की कोशिश की जा रही है। यहां की ख़ास बुंदेलखंडी बकरी को भी सरंक्षित करने का प्रयास हो रहा है।
उन्नत बीजों का उत्पादन
कुलपति नरेंद्र प्रताप सिंह बताते हैं कि बुंदलेखंड में बहुत से स्वदेशी फल जैसे चीरौंजी, जो जंगल खत्म होने के कारण खत्म हो रहे हैं, इसके लिए राष्ट्रीय बीज बैंक बनाया है। चिरौंजी की तरह ही महुआ भी खत्म हो रहा है। छोटे आकार के जामुन, आंवला, बेल, बेर, इन सबके बीज सरंक्षित करके किसानों को दिए जा रहे हैं, ताकि स्वदेशी फलों को बचाया जा सके। ये फल कम पानी में भी हो जाते हैं। यहां ड्रैगन फ़्रूट की खेती भी बहुत अच्छी होती है। इसके साथ ही खजूर की खेती से भी किसान अच्छी कमाई कर रहे हैं।
पोस्ट हार्वेस्टिंग टेक्नोलॉजी
नरेंद्र प्रताप सिंह का कहना है कि पोस्ट हार्वेस्टिंग तकनीक बहुत फ़ायदेमंद है। आमतौर पर सीज़नल फल और सब्ज़ियां बहुत सस्ती होती है जिससे किसानों को आमदनी अच्छी नहीं होती है, जबकि सीज़न के बाद बहुत महंगे हो जाते हैं। पोस्ट हार्वेस्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करके फल, सब्ज़ियों से अचार, चटनी जैसे उत्पाद बनाए जा रहे हैं, जिससे आमदनी बढ़ती है।
एग्रो इको पार्क प्रोजेक्ट
विश्वविद्यालय के अंदर एग्रो इको पार्क बनाया जा रहा है। जहां सारी जैव विविधता का सरंक्षण होगा, ताकि लोगों को कृषि की पुरानी परंपरा से जोड़ा जाए।
किसानों और युवाओं को ट्रेनिंग
बांदा कृषि विश्वविद्यालय में बहुत सारे प्रशिक्षण कार्यक्रम होते रहते हैं। यही नहीं किसानों के खेत में भी प्रदर्शनी लगाई जाती है। इन सबके ज़रिए किसानों को जोड़ने का प्रयास हो रहा है ताकि वो उत्पादकता बढ़ाकर अपनी आमदनी बढ़ा सके। इसके साथ ही कोशिश की जा रही है कि युवाओं का कृषि से पलायन रोका जा सके और पर्यावरण और जैव संपदा को बचाया जाए। विश्वविद्यालय की कोशिश है कि वो आने वाले समय में शुष्क खेती शोध और पर्यावरण के क्षेत्र में अग्रणी बने।
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