टसर सिल्क (Tussar silk), ये नाम तो आप ने सुना ही होगा। आज इससे झारखंड के आदिवासी इलाकों के किसान अपनी ज़िंदगी को बेहटा बना रहे हैं। जंगल आदिवासी किसानों की आजीविका में अहम भूमिका निभाते हैं। जंगलों से सिर्फ़ लकड़ियां ही नहीं मिलतीं, बल्कि रेशम कीट पालन में भी इनका अहम योगदान है।
झारखंड टसर सिल्क उत्पादन में सबसे आगे है, यानी देश में सबसे अधिक टसर सिल्क यहीं बनता है। ख़ास बात यह है कि यह सिल्क जिस रेशम कीट से निकाला जाता है, वह मलबेरी (शहतूत) के पेड़ पर नहीं, बल्कि साल, अर्जुन और आसन के पेड़ों पर पाला जाता है। यह सारे पेड़ झारखंड के स्थानीय पेड़ हैं।
यही वजह है कि यहां टसर सिल्क का सबसे अधिक उत्पादन होता है। आदिवासी किसान इस सिल्क से साड़ियां, टेबल क्लॉथ, कवर और अन्य वस्त्र बनाकर पलाश ब्रांड के तहत बेच रहे हैं। इससे उनके जीवनस्तर में सुधार हो रहा है।
खूंटी ज़िले में सिल्क उत्पादन
टसर सिल्क से बने कपड़े पहनने के शौकीन लोगों की पहली पसंद रहे हैं। आज भी महिलाओं के बीच सिल्क की साड़ियां बहुत पसंद की जाती हैं। रेशम उत्पादन (Sericulture) में झारखंड देशभर में पहले नंबर पर है, और यहाँ के आदिवासी किसानों की आजीविका का मुख्य साधन भी है।
DAY-NRLM के ज़रिए रेशम उत्पादन और रेशम से बने उत्पादों को काफ़ी बढ़ावा दिया जा रहा है। कोशिश यही है कि किसानों के जीवनस्तर में सुधार हो सके। झारखंड के खूंटी और आसपास के ज़िलों में टसर सिल्क का उत्पादन अधिक किया जाता है। टसर सिल्क को वाइल्ड सिल्क भी कहते है। टसर सिल्क की लोकप्रियता का कारण है इसका रिच टेक्सचर और गहरा सुनहरा रंग, जो मिलकर इसे बहुत सुंदर बनाते हैं।
स्थानीय पेड़ों पर रेशम कीट पालन
टसर सिल्क के लिए रेशम कीटों को स्थानीय पेड़ों जैसे साल, अर्जुन और आसन पर पाला जाता है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए राज्य सरकार ने खूंटी ज़िले के दो ब्लॉकों, मुरहू और रानिया को रेशम प्रोजेक्ट के तहत लिया। ऐसी कोशिशों का ही नतीजा है कि आज करीब 1182 किसान टसर सिल्क उत्पादन में शामिल होकर अपनी आय बढ़ा रहे हैं।
किसानों को सिल्क उत्पादन के लिए प्रेरित करने के लिए एक्सपर्ट्स और वॉलंटियर्स की एक टीम बनाई गई। ये टीम किसानों को खेती के नए तरीकों के बारे में जागरुक करने के साथ – साथ, उन्हें प्रशिक्षण देने का भी काम करती है। शुरुआत में आदिवासी किसान खेती के नए तरीकों को अपनाने के लिए तैयार नहीं हुए, लेकिन धीरे-धीरे कुछ किसान आगे आए और फिर यह संख्या 1182 तक पहुंच गई।
कोकून का बंटवारा
रेशम उत्पादन के लिए पहले रेशम कीट से प्राप्त कोकून को उनकी शारीरिक बनावट के आधार पर A, B और C कैटेगरी में बांटा जाता है । इसी हिसाब से कीमत भी तय की जाती है। A, B और C कैटेगरी के कोकून को क्रमशः 3.2 रुपये, 2.39 रुपये और 50 पैसे में बेचा जाता है। 100 कोकून की औसत कीमत 260 से 270 रुपए के बीच होती है। इसके बाद कोकून को रीलिंग के लिए कोकून बैंकों में भेजा जाता है।
इससे मिले प्रोडक्ट यानी रेशम के धागे को 1200 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचा जाता है। इस टसर सिल्क यानी रेशम के धागे से ही पहनने वाले और घर में काम आने वाले दूसरे कपड़े बुने जाते हैं। इस काम से किसानों को एक सीजन में करीब 19,300 रुपए का लाभ होता है।
सरकार की योजना करीब 25,000 किसानों को इस मुहिम से जोड़ने की है। साथ ही ‘पलाश’ अंब्रेला ब्रांड के तहत उनके उत्पाद बेचने में भी मदद दी जाएगी। रेश्म उत्पादन को बढ़ावा देकर यकीनन झारखंड के आदिवासी किसानों को एक स्थायी आजीविका का साधन दिया जा सकता है।