कैसे सैफरॉन पार्क ने कश्मीरी केसर और इसके किसानों की बदली तस्वीर?

बीते एक दशक में कश्मीर में केसर की खेती में नयी जान फूँकने के लिहाज़ से नैशनल सैफरॉन मिशन ने शानदार काम किया है। एक ही छत के नीचे केसर के किसानों को हर तरह से मदद देने वाले इस प्रोजेक्ट में ‘सैफरॉन पार्क’ की भूमिका भी बेजोड़ रही है। इसी की बदौलत आज कश्मीरी केसर को GI Tag हासिल है। पढ़िए किसान ऑफ़ इंडिया की एक्सक्लुसिव ग्राउंड रिपोर्ट।

कैसे सैफरॉन पार्क ने कश्मीरी केसर और इसके किसानों की बदली तस्वीर - Kisan Of India

कश्मीरी केसर की निराली ख़ुशबू और स्वाद की दीवानगी भले ही दुनिया भर में हो, लेकिन दुनिया के प्रमुख केसर उत्पादक देशों की तुलना में कश्मीरी केसर की खेती के हालात बीते दशकों में बेहद चुनौतीपूर्ण होते चले गये। क्योंकि कश्मीरी केसर का उत्पादन जहाँ 3 से 4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, वहीं दुनिया के शीर्ष केसर उत्पादक देशों ईरान, स्पेन और ग्रीस की उत्पादकता भारत के मुकाबले दोगुनी है। केसर की खेती से जुड़ी तमाम चुनौतियों का सामना करने के लिए थाI केन्द्र सरकार ने नेशनल सैफरॉन मिशन शुरू किया था। इसके नतीज़े अब दिखने लगे हैं।

नेशनल सैफरॉन मिशन के तहत एक ओर, एडवांस रिसर्च सेंटर की तकनीकों और उन्नत बीजों के ज़रिये केसर उत्पादक किसानों का मार्गदर्शन किया जाता है तो दूसरी ओर, आधुनिक प्रोसेसिंग तकनीक और GI Tag का इस्तेमाल करके उम्दा क्वालिटी के कश्मीरी केसर की सीधे मार्केटिंग भी की जाती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 9 अगस्त को ऐसी ही उम्दा क्वालिटी वाले कश्मीरी केसर को नाफेडकी सभी दुकानों पर भी उपलब्ध करवाने की घोषणा की है। ताकि केसर उत्पादक किसानों, इसके उपभोक्ताओं और इसके कारोबार से जुड़े राज्य के व्यापारियों को फ़ायदा हो।

दुनिया का सबसे महँगा मसाला

कश्मीर की अनेक ख़ूबियों में से एक है वहाँ की केसर की खेती और उसका 500 साल का इतिहास। केसर को जाफ़रान, कुमकुम और सैफरॉन (Saffron) भी कहते हैं। इसका वानस्पतिक नाम Crocus sativus है। ये दुनिया का सबसे महँगा मसाला है। ये खुले बाज़ार में 200 से 250 रुपये प्रति ग्राम के भाव से बिकता है और अपनी मनमोहक ख़ुशबू और केसरिया रंग के लिए जाना जाता है। इसका इस्तेमाल खाने-पीने की चीज़ों, पान मसाला, ज़र्दा, मिठाईयों और दवाईयों वग़ैरह में होता है। केसर में मुख्य रूप से क्रोकिन, पिक्रोक्रोकिन और सफारी जैसे रसायन पाये जाते हैं। कश्मीरी केसर में क्रोकिन की प्रचुर मात्रा पायी जाती है। इसीलिए ये दुनिया भर में सबसे प्रसिद्ध है और केसर के शीर्ष उत्पादक देशों ईरान, स्पेन या ग्रीस के केसर की तुलना में प्रीमियम मूल्य देता है।

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देश में सिर्फ़ कश्मीर में होती है केसर की खेती

CSIR-Indian Institute of Integrative Medicine (भारतीय एकीकृत चिकित्सा संस्थान, CSIR-IIIM) के मुताबिक, देश में सिर्फ़ जम्मू-कश्मीर की ही 3715 हेक्टेयर ज़मीन पर केसर की खेती होती है। वहाँ के चार ज़िलों पुलवामा, बड़गाम, श्रीनगर और किश्तवाड़ की उच्च जल निकासी वाली करेवा मिट्टी  और समुद्र तल से 1500 से लेकर 2000 मीटर तक की ऊँचाई वाली जलवायु केसर की खेती का मुख्य आधार है। पुलवामा ज़िले के पम्पोर इलाके को केसर की खेती का विरासत स्थल भी कहा जाता है, क्योंकि वहाँ करीब 3200 हेक्टेयर में केसर के फूल लहलहाते हैं।

पुलवामा का पम्पोर है केसर का गढ़

केसर की खेती का 86 फ़ीसदी इलाका पुलवामा ज़िले के पम्पोर क्षेत्र का है। कभी यहाँ कैसर की शानदार पैदावार होती थी, लेकिन जलवायु परिवर्तन और सिंचाई की किल्लत से उत्पादन गिरता गया। माँग के भरपाई के लिए बाज़ार में मिलावटी या नकली केसर का धन्धा भी काफ़ी फैल गया। इससे किसानों को मिलने वाला दाम और गिर गया। इसीलिए नेशनल सैफरॉन मिशन के तहत किसानों की मदद करने के लिए उच्च तकनीक वाले प्रोसेसिंग प्लांट लगाये गये। किसानों के लिए केसर के मार्केटिंग की  सुविधा विकसित की गयी। ताकि वो पूरी ताक़त से पैदावार बढ़ाने पर ज़ोर दे सकें।

सैफरॉन मिशन ने बदले हालात

पम्पोर में तैनात कृषि विभाग के संयुक्त निदेशक मोहम्मद क़ासिम का कहना है कि नेशनल सैफरॉन मिशन के आने से पहले परम्परागत तौर से केसर की खेती करने वाले किसान ईरान और स्पेन से आने वाले हल्की क्वालिटी के केसर को कश्मीरी बताकर बेचे जाने से बहुत परेशान थे, क्योंकि इससे उम्दा क्वालिटी के केसर की क़द्र कम हो रही थी और इससे प्रतिस्पर्धा में किसानों पर सही दाम नहीं मिल पाता था। इसीलिए सैफरॉन मिशन का लक्ष्य किसानों को उन्नत बीज और ट्रेनिंग देकर उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के अलावा केसर की उम्दा क्वालिटी की गारंटी देने वाली तकनीक को भी अपनाना था।

कासिम आगे बताते हैं कि सैफरॉन मिशन के तहत पम्पोर में शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और तकनीकी विश्वविद्यालय (SKUAST) के मातहत पम्पोर में ‘सैफरॉन पार्क’ यानी एडवांस रिसर्च स्टेशन फ़ॉर सैफरॉन बनाया गया। इसने GI (Geographical Indication) Tag हासिल करके कश्मीरी केसर की शुद्धता की गारंटी सुनिश्चित की और इसे इंटरनैशनल ब्रॉन्ड बनाया। नेशनल सैफरॉन मिशन के तहत अब तक करीब सवा चार सौ करोड़ रुपये खर्च हुए। लेकिन इसकी बदौलत कश्मीरी केसर की डूबती खेती को बहुत बड़ा सहारा मिला।

क्या है GI Tag?

GI Tag के ज़रिये किसी खाद्य पदार्थ, प्राकृतिक और कृषि उत्पादों तथा हस्तशिल्प के उत्पादन क्षेत्र की गारंटी दी जाती है। भौगोलिक संकेत (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत जीआई टैग वाली पुख़्ता पहचान देने की शुरुआत 2013 में हुई। ये किसी ख़ास क्षेत्र की बौद्धिक सम्पदा का भी प्रतीक है। एक देश के जीआई टैग पर दूसरा देश दावा नहीं कर सकता। भारत के पास आज दुनिया में सबसे ज़्यादा जीआई टैग हैं। इसकी वजह से करीब 365 भारतीय उत्पादों की दुनिया में ख़ास पहचान है।

कैसे सैफरॉन पार्क ने कश्मीरी केसर और इसके किसानों की बदली तस्वीर?
नेशनल सैफरॉन मिशन के तहत स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन की तर्ज़ पर पुलवामा ज़िले के पम्पोर में बना ‘सैफरॉन पार्क’

‘सैफरॉन पार्क’ की भूमिका

नेशनल सैफरॉन मिशन के तहत स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन की तर्ज़ पर पुलवामा ज़िले के पम्पोर में ‘सैफरॉन पार्क’ बनाया गया है। इसकी विश्वस्तरीय प्रयोगशाला में किसान अपनी उपज लेकर पहुँचते हैं। वहाँ प्रोसेसिंग, पैकेजिंग और जीआई टैगिंग का काम करने के अलावा ई-ऑक्शन के ज़रिये किसानों को अच्छी कमाई मुहैया करवायी जाती है। ख़ुशगवार बात ये है कि सैफरॉन पार्क और एडवांस रिसर्च सेंटर की गतिविधियों की बदौलत कश्मीरी केसर के उत्पादन में ख़ासा सुधार आया है। केसर का दाम दोगुना हो चुका है और किसानों का मुनाफ़ा बढ़ा है।

एक ही छत के नीचे सारा समाधान, वो भी मुफ़्त

सैफरॉन पार्क या इंडियन इंटरनैशनल कश्मीर सैफरॉन ट्रेडिंग सेंटर के क्वालिटी मैनेज़र ख़ुर्शीद अहमद का कहना है कि यहाँ हमलोग एक ही छत के नीचे केसर के किसानों की हरेक चुनौती का वैज्ञानिक समाधान सुलभ करवाते हैं। जैसे परम्परागत तौर पर केसर को धूप में सुखाकर बेचा जाता था लेकिन यहाँ की विश्वस्तरीय प्रयोगशाला में हमलोग केसर के फूल से उसका स्टिग्मा अलग करके वैक्यूम ड्राइंग (vaccume drying) करते हैं।

कैसे सैफरॉन पार्क ने कश्मीरी केसर और इसके किसानों की बदली तस्वीर?
सैफरॉन ट्रेडिंग सेंटर के क्वालिटी मैनेज़र ख़ुर्शीद अहमद

इससे प्राप्त उत्पाद की क्वालिटी और बेहतर होती है, क्योंकि इससे केसर में मौजूदों रसायनों का मामूली सा अंश भी बर्बाद नहीं होता और उसकी रंगत और स्वाद बेजोड़ बना रहता है। सुखाने के बाद यहीं केसर की तीन श्रेणियों में ग्रेडिंग करके ऑटोमैटिक पैकेजिंग प्लांट में ख़ूबसूरत शीशियों में पैकिंग और जीआई टैगिंग की जाती है। पैकिंग पर ग्रेड 1, 2 या 3 लिखा होता है। इसके अलावा, यहीं से ई-ऑक्शन के ज़रिये मार्केटिंग भी की जाती है। नेशनल सैफरॉन मिशन की बदौलत किसानों को ये सारी सुविधाएँ मुफ़्त मिलती हैं।

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केसर की उन्नत किस्म विकसित

शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और तकनीकी विश्वविद्यालय (SKUAST) के प्रोफ़ेसर और एडवांस रिसर्च स्टेशन फ़ॉर सैफरॉन के प्रभारी डॉ बशीर अहमद इलाही का कहना है कि उनके संस्थान ने हाल ही में ‘शालीमार सैफरॉन-1’ के नाम से केसर की एक उन्नत किस्म विकसित की है और इसे कृषि और विकास विभाग के ज़रिये तेज़ी से किसानों को मुहैया करवाया जा रहा है। इसके अलावा संस्थान की ओर से केसर की खेती के लिए उपयुक्त इलाके का विस्तार और वहाँ सिंचाई की समुचित व्यवस्था विकसित करने पर ख़ास ज़ोर दिया जा रहा है।

‘शालीमार सैफरॉन-1’ के नाम से केसर की एक उन्नत किस्म
एडवांस रिसर्च स्टेशन फ़ॉर सैफरॉन के प्रभारी डॉ बशीर अहमद इलाही

कश्मीर में सैफरॉन का इकोनॉमिक रिवाइवल

नेशनल सैफरॉन मिशन के बारे में जम्मू-कश्मीर के कृषि विभाग के निदेशक चौधरी मोहम्मद बताते हैं कि कश्मीर में सैफरॉन की खेती का इतिहास 500 साल का है। लेकिन बीते दशकों में आहिस्ता-आहिस्ता जब केसर की खेती दम तोड़ने लगी तो 2008-09 में यूनियन गवर्नमेंट ने नेशनल सैफरॉन मिशन का एलान किया। इस प्रोजेक्ट से कश्मीर में सैफरॉन का इकोनॉमिक रिवाइवल हो गया।  इस बात की पुष्टि करते हुए पम्पोर में केसर की खेती करने वाले किसान अब्दुल मजीद वानी बताते हैं कि सैफरॉन मिशन के तहत 2010 से केसर की खेती करने वाले किसानों को नयी तकनीक अपनाने के लिए करीब 20 हज़ार रुपये प्रति कनाल के हिसाब से मदद भी मिल रही है। इसके अलावा लेबर वगैरह या काम की कॉस्ट को भी गवर्नमेंट ने पूरा का पूरा दे दिया।

जम्मू-कश्मीर के कृषि विभाग के निदेशक चौधरी मोहम्मद- Kisan Of India
जम्मू-कश्मीर के कृषि विभाग के निदेशक चौधरी मोहम्मद

8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का लक्ष्य

एडवांस रिसर्च स्टेशन में स्थानीय मिट्टी और जलवायु के अनुकूल बेहतरीन किस्म के केसर के बीज तैयार किये जाते हैं। यहाँ किसानों को मिश्रित खेती के तहत केसर के साथ काला जीरा या कलौंजी या मंगरैल और बादाम की खेती अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और सिंचाई के संसाधन भी मुहैया कराया जाता है। कुलमिलाकर, नेशनल सैफरॉन मिशन का लक्ष्य जल्द से जल्द कश्मीर में 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर केसर की पैदावार को हासिल करने का है।

क्षेत्रफल में दूसरा, लेकिन पैदावार सिर्फ़ 7%

दुनिया में सालाना करीब 300 टन केसर की पैदावार होती है। भारत में सालाना करीब 100 टन केसर की माँग है, जबकि कश्मीरी केसर का उत्पादन करीब 16 टन है। हमारी बाकी माँग आयात से पूरी होती है। ईरान, भारत, स्पेन और ग्रीस प्रमुख केसर उत्पादक देश हैं। विश्व बाज़ार में ईरान के केसर की हिस्सेदारी करीब 88 फ़ीसदी है। भारत में केसर का खेती का क्षेत्रफल दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, लेकिन विश्व उत्पादन में हमारी हिस्सेदारी करीब 7 प्रतिशत ही है। तीसरे नम्बर पर स्पेन है, जहाँ 600 हेक्टेयर में केसर की खेती होती है। लेकिन वहाँ औसत उत्पादकता 8.33 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। उत्पादन की उन्नत तकनीकों की बदौलत ईरान, स्पेन और ग्रीस जैसे देश कश्मीरी केसर के लिए खतरा पैदा करते रहे हैं।

— पंपोर से पंकज शुक्ला की रिपोर्ट।

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