कम उपजाऊ और असिंचित ज़मीन से भी यदि कम लागत में बढ़िया कमाई का इरादा हो तो अश्वगन्धा की खेती बेहद शानदार विकल्प है। अश्वगन्धा एक औषधीय और नकदी फसल है। इसकी खेती सिंचित और असिंचित तथा सभी प्रकार की ज़मीन में की जा सकती है।
इसे न सिर्फ़ फसल चक्र के रूप अपना सकते हैं, बल्कि ये उस ज़मीन के लिए भी आदर्श है जहाँ सिंचाई का पानी कुछ खारा और जलवायु शुष्क या अर्धशुष्क है क्योंकि खारे पानी की सिंचाई से अश्वगन्धा में पाये जाने वाले उपयोगी तत्वों यानी ‘एल्केलॉइड्स’ (Alkaloids या क्षाराभ) की मात्रा दो से ढाई गुणा बढ़ जाती है।
अश्वगन्धा का वानस्पतिक नाम Withania somnifera है। इसमें जल्दी रोग नहीं लगता। ना ही इसे रासायनिक खाद की ज़रूरत पड़ती है। आवारा पशु भी इसे नुकसान नहीं पहुँचाते। इसीलिए अश्वगन्धा की खेती करने वाले किसान अनेक मोर्चों पर निश्चिन्त रहते हैं। इसीलिए कृषि विशेषज्ञ ऐसी ज़मीन को अश्वगन्धा के लिए सबसे उपयुक्त बताते हैं जहाँ अन्य लाभदायक फसलें लेना बहुत मुश्किल हो। अश्वगन्धा की खेती में मुख्य पैदावार भले ही इसकी जड़ें हों, लेकिन इसकी हरेक चीज़ मुनाफ़ा देती है। अश्वगन्धा के पौधों, पत्तियों और बीज वग़ैरह सभी चीज़ों के दाम मिलते हैं।
देश में अश्वगन्धा की माँग
देश में अश्वगन्धा की खेती करीब 5000 हेक्टेयर में होती है। इसकी सालाना पैदावार करीब 1600 टन है, जबकि माँग 7000 टन है। इसीलिए किसानों को बाज़ार में अश्वगन्धा का बढ़िया दाम पाने में दिक्कत नहीं होती। यह पौधा ठंडे प्रदेशों को छोड़कर अन्य सभी भागों में पाया जाता है। लेकिन पश्चिमी मध्यप्रदेश के मन्दसौर, नीमच, मनासा, जावद, भानपुरा और निकटवर्ती राजस्थान के नागौर ज़िले में इसकी खेती खूब होती है। नागौरी अश्वगन्धा की तो बाज़ार में अलग पहचान भी है।
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अश्वगन्धा का इस्तेमाल
अश्वगन्धा का इस्तेमाल दवा की तरह ही होता है। इसकी सूखी जड़ों से अनेक आयुर्वेदिक और यूनानी दवाईयाँ बनती हैं। इसके सेवन से तनाव और चिन्ता दूर होती है। यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है और नर्वस सिस्टम को मज़बूत करता है। इससे लकवा, रीढ़ और पेशाब सम्बन्धी तकलीफ़ों, गठिया, कैंसर, यौन शक्तिवर्धक, त्वचा रोग, फेफड़े में सूजन, पेट के फोड़ों, कीड़ों (कृमि) तथा मन्दाग्नि, कमर दर्द, घुटने की सूजन, तपेदिक और नेत्र रोगों जैसी बीमारियों की दवाएँ बनती हैं। च्यवनप्रास बनाने में भी अश्वगन्धा का खूब इस्तेमाल होता है।

अश्वगन्धा की जड़ों और पत्तियों में अनेक एल्केलॉइड्स की 0.13 से लेकर 0.51 प्रतिशत मात्रा पायी जाती है। इसके प्रमुख एल्केलॉइड्स हैं – विथेनीन (निद्रादायी), बिथेनेनीन, विथेफेरिन (ट्यूमर रोधी), विथेफेरिन-ए (जीवाणु रोधी) सोमिनीन, कोलीन, निकोटीन और सोम्नीफेरीन हैं। इसके अलावा अश्वगन्धा में ग्लाइकोसाइड, विटानिआल, स्टार्च, शर्करा और अमीनो अम्ल भी पाये जाते हैं।
कैसे करें अश्वगन्धा की खेती?
अश्वगन्धा की खेती साल में दो बार की जा सकती है। एक बार फरवरी-मार्च में रबी के तहत और दूसरी बार अगस्त-सितम्बर में ख़रीफ़ के रूप में। फसल चक्र में ख़रीफ़ वाली अश्वगन्धा के बाद गेहूँ की पैदावार भी ली जा सकती है। अश्वगन्धा की फसल करीब 5 महीने में तैयार होती है। अश्वगन्धा की मुख्य उपज इसकी जड़ है। इसकी अच्छी बढ़वार के लिए 500 से 700 मिमी वर्षा वाला शुष्क और अर्धशुष्क मौसम और तापमान 35 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए।
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अश्वगन्धा का उन्नत बीज
अश्वगन्धा के पौधे की ऊँचाई 40 से 150 सेमी तक होती है। इसका तना शाखाओं युक्त, सीधा, धूसर या श्वेत रोमिल होता है। इसकी जड़ें लम्बी और अंडाकार होती है। इसके फूल हरे या पीले रंग के होते हैं और फल करीब 6 मिलीमीटर गोल, चिकने और लाल रंग के होते हैं। हरेक फल में काफ़ी बीज होते हैं। अनुपजाऊ और सूखे इलाकों के लिए केन्द्रीय औषधीय एवं सुगन्ध अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ की ओर से विकसित अश्वगन्धा की ‘पोशीता’ और ‘रहितता’ नामक किस्में बहुत उम्दा हैं। इसका दाम करीब 200 रुपये प्रति किलोग्राम है।
अश्वगन्धा की बुआई
अश्वगन्धा की बुआई दोनों तरह से हो सकती है। बीज छिटककर या फिर नर्सरी में विकसित पौधों की रोपाई से। नर्सरी में बिजाई जून-जुलाई में करनी चाहिए। वर्षा आधारित फसल की बुआई बीजों को सीधे खेत में छिटककर की जा सकती है। सिंचित फसल में पौधों की कतार के बीच एक फीट की दूरी और दो पौधे के बीच की दूरी 5 से 10 सेमी रखने पर अच्छी उपज मिलती है तथा निराई-गुड़ाई में भी आसानी रहती है।

अश्वगन्धा की फसल सुरक्षा
बुआई से पहले अश्वगन्धा के बीजों को थीरम या डाइथेन एम-45 की प्रति 3 ग्राम प्रति किलो के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए। इसकी जड़ों को निमेटोड रोग से बचाने के लिए बुआई के समय ही 5-6 किलोग्राम फ्यूराडान प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देना चाहिए। पत्ती की सड़न (सीडलीग ब्लास्ट) और लीफ स्पाट (पत्तियों पर धब्बे) अश्वगन्धा की सामान्य बीमारियाँ हैं, जो खेत में पौधों की संख्या कम कर देती हैं। इसीलिए बुआई से पहले बीजों को थीरम या डाइथेन एम-45 की प्रति 3 ग्राम प्रति किलो के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए।
एक हेक्टेयर के लिए 5 किलो बीज की नर्सरी उपयुक्त है। बीजों का अंकुरण 8-10 दिन में होता है। नर्सरी के पौधे जब 4 से 6 सेमी ऊँचे हो जाएँ तो उन्हें एक फ़ीट वाले कतारों में 5 से 10 सेमी के फ़ासले पर रोपना चाहिए। एक माह पुरानी फसल को 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में डायथीन एम-45 मिलाकर 7-10 दिन के अन्तराल पर तब तक छिड़काव करना चाहिए जब तक बीमारी नियंत्रित न हो जाए। पत्ती भक्षक कीटों से फसल को सुरक्षित रखने के लिए रोगर या नुआन नामक दवा के 5-6 मिलीलीटर अंश को एक लीटर पानी में मिलाकर इस घोल का छिड़काव 2-3 बार करना चाहिए।
खाद और निराई-गुड़ाई
अश्वगन्धा जड़ वाली फसल है इसीलिए नियमित निराई-गुड़ाई से जड़ों को हवा मिलती और उपज ज़्यादा मिलती है। सीधी बुआई के 20-25 दिन बाद पौधों की दूरी को सन्तुलित करके खरपतवार निकालते रहना चाहिए। अश्वगन्धा की जड़ों के बढ़िया विकास के लिए बुआई से पहले खेत में सिर्फ़ गोबर की खाद या 15 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर डालने से अधिक ऊपज मिलती है। इसके बाद फसल को किसी और खाद की ज़रूरत नहीं पड़ती।
अश्वगन्धा की सिंचाई
अश्वगन्धा को कम सिंचाई की ज़रूरत होती है, इसलिए यदि उपजाऊ और सिंचित ज़मीन में अश्वगन्धा की खेती करें तो फिर वहाँ जल निकास की बढ़िया व्यवस्था होनी चाहिए। यदि वर्षा नियमित है तो फसल को पानी देने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वर्षा के बाद सिंचाई तभी करें जब खेत सूखने लगे। अश्वगन्धा की सिंचाई यदि 4 से 12 EC (electrical conductivity) वाले खारे पानी से की जाए तो इसकी गुणवत्ता 2 से 2.5 गुणा बढ़ जाती है, क्योंकि इसकी लवण सहनशीलता 16 EC तक होती है। बता दें कि लवण सहनशीलता को मिट्टी की सेहत का अहम पैमाना माना जाता है।
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अश्वगन्धा की खुदाई, सुखाई और भंडारण
अश्वगन्धा की फसल 135 से 150 दिन के दरम्यान खुदाई के लिए तैयार हो जाती है। पौधे की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें तो फसल खुदाई के लिए तैयार होती है। खुदाई के वक़्त पूरे पौधे को जड़ समेत उखाड़ना चाहिए। फिर जड़ों को पौधों से काटकर और पानी से धोकर धूप में सुखाना चाहिए। सूखने के बाद जड़ों की छँटाई उनके आकार के मुताबिक करना चाहिए।
6-7 सेमी लम्बी, एक-डेढ़ सेमी मोटी, चमकदार और सफ़ेद जड़ वाली अश्वगन्धा सबसे बढ़िया श्रेणी की मानी जाती है। इसके बाद 5 सेमी लम्बी और एक सेमी मोटी जड़ों को दूसरे स्तर की तथा 3-4 सेमी लम्बी जड़ों को तीसरे स्तर की तथा इसके बाद बची कटी-फटी और पतली जड़ों को आख़िरी श्रेणी में रखा जाता है। छँटाई के बाद जड़ों को जूट के बोरों में भरकर हवादार और दीमक रहित जगह पर साल भर तक आसानी से रखा जा सकता है या बाज़ार में बेचा जा सकता है।

अश्वगन्धा की लागत, उपज और मुनाफ़ा
अश्वगन्धा की जड़ों के अलावा बाज़ार में इसके बीजों और खेत से उखाड़े गये पौधों की झाड़ का भूसा भी यानी सब कुछ बिक जाता है। क्वालिटी के हिसाब से जड़ें और बीज 150 से 200 रुपये प्रति किलोग्राम तक बिकते हैं तो झाड़ का भूसा भी करीब 15 रुपये किलो का भाव पाता है।
आमतौर पर एक हेक्टेयर में अश्वगन्धा की खेती से 7-8 क्विंटल ताज़ा जड़ें प्राप्त होती हैं। ये सूखने पर 4-5 क्विंटल रह जाती हैं। इसके अलावा करीब 50-60 किलो बीज भी प्राप्त होता है। अश्वगन्धा की खेती की लागत करीब 10-12 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर (2.5 एकड़) बैठती है। जबकि उपज करीब 75-80 लाख रुपये में बिकती है। यानी, लागत का 6-7 गुना मुनाफ़ा। उन्नत प्रजातियों की अश्वगन्धा की खेती का लाभ और ज़्यादा हो सकता है।
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