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भारत में कपास एक अहम नक़दी फ़सल है। ये क़रीब 60 लाख किसानों को प्रत्यक्ष रूप से और क़रीब 6 से 7 करोड़ लोगों को परोक्ष रूप से रोज़गार देती है। कपास की खेती में खरपतवार नियंत्रण (Weed Control & Management) हमेशा बहुत चुनौतीपूर्ण रहा है। इसीलिए नागपुर स्थित केन्द्रीय कपास अनुसन्धान संस्थान के वैज्ञानिक छोटे किसानों को एकीकृत खरपतवार प्रबन्धन को अपनाने का मशविरा देते हैं। इनके अनुसार, कपास की फ़सल को खरपतवार से सुरक्षित रखने में अंतरवर्तीय फसल प्रणाली (Intercropping System) और पलवार (Mulching) की तकनीक बेहद उपयोगी और किफ़ायती साबित होती है।
खरपतवारों के पनपने की प्रवृत्ति बरसात के मौसम में बहुत बढ़ जाती है। इसीलिए समय रहते खरपतवार की रोकथाम नहीं हो तो कपास की फ़सल की बढ़वार काफ़ी कम हो जाती है। इससे उपज पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि फ़सल के लिए मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों और नमी के बड़ा हिस्से को खरपतवार हड़प लेते हैं। खरपतवारों की अधिकता से कीटों और रोगों को फैलने में भी मदद मिलती है।
कपास के प्रमुख खरपतवार (Major Weeds Of Cotton Crop)
कपास की फ़सल में पनपने वाले खरपतवार की सीधा नाता स्थानीय कृषि जलवायु और फ़सल प्रणाली से है। फिर भी बहुतायत से उगने वाले कपास के मुख्य खरपतवार हैं – बैंगनी नटसेज (साइपेरस राडांटस), स्मूद जोयवीड (अलटेरनन्थेरा परनिचोइडीस), जंगली चावल (एकिनोक्लोवा कोलोना), अलेक्जेंडर घास (उरोक्लोवा प्लांटीजीनिया) और छैफ फ्लावर (एकेरन्थस असपेरा)। इनमें से अलेक्जेंडर घास और जंगली चावल को घास प्रजाति का खतपतवार कहते हैं।
इसी तरह जंगली जूट (क्रोकरस ट्रिक्लोरिस), स्मूद जोयवीड (अलटेरननथेरा परनिचोइडीस), ट्रीडॉक्स (ट्रिडॉक्स प्रोकंबेन्स), गोट वीड (अजर्नेटम कोनिज्यडिस) और फाल्सअमरेन्थस (डिजरा मुरीकेटा) को चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार कहा जाता है तो पीली नटसेज (साइपेरस ईरिया) और बैंगनी नटसेज (साइपेरस राडांटस) जैसी प्रजातियों को नटसेज (nut sledge) श्रेणी में रखा गया है।
खरपतवारों की रोकथाम (Weed Control Methods)
परम्परागत तौर से निराई-गुड़ाई के ज़रिये खरपतवार का नियंत्रण रखा जाता है। लेकिन इससे खेती की लागत बहुत बढ़ जाती है। इसी तरह मशीनीकृत उपकरणों से खरपतवार नियंत्रण की तरकीब भी ग़रीब किसानों की पहुँच से बाहर होती है। बड़े किसान खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग करते हैं। लेकिन इससे पर्यावरण, मानव और पशु स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव के अलावा खेत की मिट्टी की संरचना और उर्वरता को काफ़ी नुकसान पहुँचता है। इन्हीं पहलुओं को ध्यान में रखकर कपास वैज्ञानिकों ने अंतरवर्तीय फसल प्रणाली (Intercropping System) और पलवार की तकनीक विकसित की हैं। इसे खरपतवारों का एलीलोकैमिकल प्रबन्धन भी कहते हैं।
एलीलोपैथिक फ़सलों से लाभ (Allelopathic plants For Weed Control)
एलीलोपैथिक गतिविधियों वाले पौधे कपास की फ़सल को प्रभावित करने वाले सभी किस्म के खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण प्रदान करके हानिकारक संक्रमण को कम करते हैं। इनके अन्तःफ़सलीय इस्तेमाल से ना सिर्फ़ कपास के बीजों की गुणवत्ता बेहतर होती है बल्कि खेती की लागत घटती है और मुनाफ़ा बढ़ता है। अन्तःफ़सल का पलवार के रूप में उपयोग भी बेहद किफ़ायती साबित होता है।
सनई और तिल की फ़सल से ऐसे ख़ास किस्म के रसायन उत्सर्जित होते हैं जिससे कपास की फ़सल में उगने वाले अवांछित और आक्रामक खरपतवारों की बढ़वार कम हो जाती है। इसीलिए इन्हें एलीलोकैमिकल (Allelochemical) पौधे कहा गया है। ये फ़सल सुधार के लिए भी शानदार विकल्प प्रदान करते हैं। इसीलिए कपास की दो पंक्तियों के बीच सनई और तिल की फ़सल को अन्तःफ़सल की तरह बोने से बेहद उत्साहजनक नतीज़े मिलते हैं। पलवार के साथ इनका इस्तेमाल बेहद प्रभावी और पर्यावरण हितैषी विकल्प है।
अंतरवर्तीय फसल प्रणाली की भूमिका (Role Of Intercropping In Weed Management)
अन्तःफ़सल को उगाने से खरपतवारों की समस्या पर अंकुश लगता है। इससे खेत की मिट्टी के भौतिक और रासायनिक गुणों का संरक्षण होता है क्योंकि कुछ अन्तःफ़सलों में उच्च मात्रा वाले ऐसे फेनोलिक्स और टेरपेनॉइड (phenolics and terpenoids) पाये जाते हैं जो खरपतवारों के बीजों के अंकुरण और विकास की रोकथाम करने में सहायक होते हैं। इस तरह अन्तःफ़सल उगाने से कपास की खेती की लागत में कमी और लाभ में सुधार होता है।
अन्तःफ़सल की बुआई और पलवार (Intercropping & Mulching)
कपास की बुआई के 30 दिनों बाद ही अन्तःफ़सल की बुआई शुरू कर सकते हैं। सनई की फ़सल बहुत तेजी से बढ़ने वाली फ़सल है। इसकी बुआई 30-45 दिनों बाद में की जाती है। तिल की फ़सल को भी 30 दिनों बाद ही बोया जाता है। अन्तःफ़सल को बोने के 45-70 दिनों बाद इसके बायोमास को काटकर मिट्टी की सतह पर पलवार के रूप में उपयोग करते हैं। इससे नये खरपतवार की रोकथाम को कम किया जा सकता है। पलवार करने के पश्चात सनई और तिल अन्तःफ़सलों से फेनोलिक्स और टेरपेनॉइड युक्त एलीलोकैमिकल्स निकलते हैं। ये खरपतवार के बीज को निष्क्रिय कर देते हैं। ये खरपतवार का घनत्व भी कम कर देते हैं।
अंतरवर्तीय फसल प्रणाली का खरपतवार पर प्रभाव (Effect Of Intercropping System On Weeds)
कपास की खेती से जुड़े वैज्ञानिकों ने सनई अन्तःफ़सल वाले भूखंडों में हाथ से निराई-गुड़ाई करने से पहले खरपतवार घनत्व और उसका बायोमास लिया गया। इस समय खरपतवार का घनत्व अधिक था। सनई और तिल अन्तःफ़सल की बुआई कपास की पक्तियों के बीच में करने और उनका मल्च करने के बाद यह देखा गया कि अन्तःफ़सल वाले भूखंडों में लगातार खरपतवार का घनत्व औसतन 43 प्रतिशत कम था। सनई अन्तःफ़सल का उपयोग करने वाले भूखंडों में नटसेज की मात्रा नगण्य थी जबकि तिल का अन्तःफ़सल के रूप में इस्तेमाल किये गये भूखंडों में नटसेज की मात्रा कुछ कम थी।
अन्तःफ़सल वाले भूखंडों के ज़मीन के ऊपरी हिस्सों में उच्च मात्रा वाले फेनोलिक्स और टेरपेनॉइड पाये गये। इन्होंने खरपतवार के बीजों के अंकुरण और विकास को रोकने में कारगर भूमिका निभायी। सामान्य तौर पर अन्तःफ़सलीय उपचार वाले भूखंडों में एकबीजपत्री और द्विबीजपत्री खरपतवारों की संख्या उन भूखंडों की तुलना में बेहद कम पायी गयी जहाँ अन्तःफ़सलीय उपाय नहीं अपनाये गये थे। ज़ाहिर है कि अन्तःफ़सलों में सनई ने लगातार खरपतवारों को कम किया था। इसमें नटसेज और चिकने जॉयवीड (nut sledge and Joyweed) का प्रभाव कम पाया गया। जबकि अन्तःफ़सल उपचार विहीन खेतों में कपास का उत्पादन सबसे कम था। दूसरी ओर, सनई को अन्तःफ़सल के रूप में अपनाये गये खेतों में कपास का उत्पादन उच्चतम था।
अन्तःफ़सल से प्राकृतिक खाद का लाभ (Benefit Of Natural Fertilizer From Intercropping)
एलीलोपैथिक गतिविधियों वाले पौधों का अन्तःफ़सल के रूप में इस्तेमाल करने से मध्यम से लेकर लम्बी अवधि के लिए खरपतवार की समस्याओं पर काबू पाने में मदद मिलती है। सनई की अन्तःफ़सल से एलीलोकैमिकल्स यौगिकों के उत्पादन के अलावा मिट्टी में वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अवशोषित करने की क्षमता भी बढ़ती है। इस तरह सनई की अन्तःफ़सल प्राकृतिक खाद की भूमिका भी निभाती है जो कपास की पैदावार को बढ़ाता है। सनई और तिल जैसे उच्च बायोमास वाली अन्तःफ़सलों से निकलने वाले एलीलोकैमिकल (Allelochemicals) की उच्च मात्रा से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।
कैरम, सौंफ, मेथी और तिल जैसे अन्तःफ़सलों के बोकर और मल्च से निकलने वाले एलीलोकैमिकल्स का निरोधात्मक प्रभाव जंगली चावल, बैंगनी नटसेज और स्मूद जोयवीड पर भी दिखता है। मल्च और बोकर, मिट्टी की सतह पर लगायी जाने वाली सामग्री की परतें हैं। मल्च जैविक या अकार्बनिक पदार्थ हो सकता है, जबकि बोकर स्थायी या अस्थायी हो सकता है। मल्चिंग से मिट्टी में नमी बनी रहती है, खरपतवारों को दबाया जाता है और पौधों के जड़ों की रक्षा होती है। बोकर से मिट्टी का कटाव कम होता है, पानी का बहाव धीमा होता है और तापमान नियंत्रित रहता है।
कपास की खेती में अंतरवर्तीय फसल प्रणाली से खरपतवार नियंत्रण पर अक्सर पूछे जाने वाले सवाल
सवाल: अंतरवर्तीय फसल प्रणाली क्या है?
जवाब: अंतरवर्तीय फसल प्रणाली वो प्रणाली है जिसमें एक ही खेत में एक ही समय पर दो या अधिक फसलों की खेती की जाती है। ये प्रणाली खेत की उत्पादकता बढ़ाने, मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने और खरपतवार नियंत्रण में मददगार होती है।
सवाल: कपास की खेती में कौन-कौन सी फसलें अंतरवर्तीय फसल के रूप में उगाई जा सकती हैं?
जवाब: कपास के साथ मूंगफली, तुअर, मक्का, ग्वार, सोयाबीन, मूंग, उड़द आदि फसलों को अंतरवर्तीय फसल के रूप में उगाया जा सकता है।
सवाल: अंतरवर्तीय फसल प्रणाली से खरपतवार नियंत्रण कैसे होता है?
जवाब: अंतरवर्तीय फसल प्रणाली में कई तरह की फ़सलों के बढ़ने के तरीके और उनकी छाया के कारण खरपतवार को बढ़ने के लिए पर्याप्त जगह और प्रकाश नहीं मिलती। इसके अलावा, कुछ फसलें विशेष गुणों के कारण खरपतवार को बढ़ने से रोकती हैं।
सवाल: कपास के साथ अंतरवर्तीय फसल लगाने के क्या लाभ हैं?
जवाब: कपास के साथ अंतरवर्तीय फसल लगाने से निम्नलिखित लाभ होते हैं:
- खरपतवार नियंत्रण में मदद मिलती है।
- मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है।
- कुल उत्पादकता में वृद्धि होती है।
- किसानों की आमदनी का अतिरिक्त स्रोत।
- भूमि की उपयोगिता बढ़ती है।
सवाल: अंतरवर्तीय फसल प्रणाली अपनाने से उत्पादन में कोई कमी आती है क्या?
जवाब: सही फसल चयन और उचित प्रबंधन के साथ, अंतरवर्तीय फसल प्रणाली से उत्पादन में कमी नहीं आती, बल्कि मिट्टी की उर्वरता बढ़ने और खरपतवार नियंत्रण के कारण कुल उत्पादकता में वृद्धि हो सकती है।
सवाल: अंतरवर्तीय फसल प्रणाली में किस प्रकार की मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है?
जवाब: अंतरवर्तीय फसल प्रणाली विभिन्न प्रकार की मिट्टी में अपनाई जा सकती है, लेकिन अच्छी जल निकासी और उर्वरता वाली मिट्टी इसमें सबसे उपयुक्त होती है। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए जैविक खाद और हरी खाद का प्रयोग किया जा सकता है।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।